Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 273
________________ २४३ अनेकान्त इसी प्रकार भक्तामर स्तोत्र के 'नित्योऽदयं दलितमोहमहान्धकारं ' ( पद्य १८) का कल्याण मन्दिर के 'नूनं न मोहतिमिरात लोचनेन' ( पद्य (३७) पर और 'त्वामा मनन्ति मुनयः परमं पुमांसम् (पद्य २३) का त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूपम्' ( पद्य १४ ) पर स्पष्ट प्रभाव दिखलाई पड़ता है। कोई भी निष्पक्ष समालोचक उपर्युक्त विश्लेषण के प्रभाव में इस स्वीकृति का विरोध नहीं कर सकता है कि भक्तामर का शब्दों, पदों धौर कल्पनाओं में पर्याप्त साम्य है तथा भक्तामर की कल्पनाओं और पदावलियो का विस्तार कल्याण मन्दिर में हुआ है । भक्तामर स्तोत्र के प्रारम्भ करने की शैली पुष्पदन्त के शिवमहिम्न स्तोत्र से प्राय मिलती है। प्रातिहार्य एवं वैभव वर्णन में भवतामर पर पात्रकेसरी स्तोत्र का भी प्रभाव परिलक्षित होता है । अतएव मानतुंग का समय उवीं शती है। यह शती मयूर, बाणभट्ट यादि के म त्कारी स्तोत्रों की रचना के लिए प्रसिद्ध भी है । भारत का सांस्कृतिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि ई० मन् की ५वीं शताब्दी से मन्त्र तन्त्र का प्रचार विशेष रूप से हुआ है। श्वी शताब्दी में महायान चौर । कापालिकों ने बड़े-बड़े चमत्कार की बाते कहना आरम्भ कीं । अतएव यह क्लिष्ट कल्पना न होगी कि उस चमत्कार के युग मे प्राचार्य मानत्ग ने भी भक्तामर स्तोत्र की रचना की हो। इस स्तोत्र को उन्होंने दावाग्नि, भए कर सर्प राज सेवायें भयानक समुद्र यादि के भयो से रक्षा करने वाला का है जमोदर एवं कुष्ट जैसी व्याधियाँ भी हम स्तोत्र के प्रभाव से नष्ट होने की बात कही गई है। अतः स्पष्ट है कि चमत्कार के युग में वीतरागी आदि जिनका महत्व और चमत्कार कवि युग के प्रभाव से ही दिम्मन्नाया है। एवमान का समय वीं शताब्दी का उतरा है। I ने रचना और काव्य-प्रतिभा : मानतंग ने ४८ पद्य प्रमाण भक्तामर स्तोत्र की रचना की है। यह समस्त स्तोत्र वसन्ततिलका छन्द मे लिखा गया है। इसमे पादितीर्थकर ऋषभनाथ की स्तुति की गई है। पर इस स्तोत्र की यह विशेषता है कि इसे किसी भी तीर्थकर पर घटित किया जा सकता है । प्रत्येक पद्य में उपमा, उत्प्रेक्षा श्रौर रूपक अलंकार का समावेश किया गया है। इसका भाषासौष्ठव और भाव गाम्भीर्य प्रसिद्ध है। कवि अपनी नम्रता दिखलाता हुआ कहता है कि हे प्रभो ! अल्पज्ञ और बहुश्रुतज्ञ विद्वानों द्वारा हँसी के पात्र होने पर भी तुम्हारी भक्ति ही मुझे मुखर बनाती है। बसन्त में कोकिल स्वयं नहीं बोलना चाहती, प्रत्युत मात्र मंजरी ही उसे बलात् कूजने का निमन्त्रण देती है । यथा अल्पभूतं भूतवतां परिहास धाम त्वद्भक्तिरेव मुखरी कुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किल मधो मधुरं विरौति तच्चारुचतकलिकानिकरं हेतुः ॥ अतिशयोक्ति अलंकार में धाराध्य के गुणों का वर्णन करता हुआ कवि कहना है कि हे भगवन् प्राप एक अद्भुत् जगत्-प्रकाशी दीपक हैं, जिसमें न तेल है न बाती, और न धूम। पर्वतों को कम्पित करने वाले वायु के झोंके भी इस दीपक तक पहुँच नहीं सकते है । तो भी जगत में प्रकाश फैलता है । यथानिमतिरपजलपूर: कृत्स्नं जगत्रयमिदं प्रकटी करोषि । गम्यो न जातु मरुतां चालानां दीपोsपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः ॥ भक्तामर स्तोत्र पद्य (१६) इस पक्ष में आदिजिन को गर्वोकृष्ट विचित्र दीपन कहकर कवि ने प्रतिशयोक्ति अलंकार का समवेश किया है । अतिशयोक्ति अलंकार के उदाहरण इस स्तोत्र मे और भीका है। पर पकी योनि नही सुन्दर है। कवि कहता है कि हे भगवन ! आपकी महिमा सूर्य मे भी बढ़कर है क्योंकि आप कभी भी नही होते, न गहुगम्य है, न प्रापका महान प्रभाव मेघो से अवरुद्ध होता है एवं ग्राप समस्त लोकों के स्वरूप को स्पष्ट रूप से अवगत करते हैं। यथानातं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः स्पष्टीकरोवि सहसा युगपजगन्ति । नाम्भोबरोदरनिरुड महाप्रभावः

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