Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 279
________________ २५२ अनेकान्त पुरुष और चन्दन द्वारा लेपन-कार्य में प्रवृत्त पुरुष के प्रति विषये समारणकप्पे-समानकल्पस्तुल्याध्यवसायः।"४ जो समान भाव रखता है. वह वासीचन्दनकप्प है। विनयविजयजी की यह व्याख्या प्रायः प्रथम व्याख्या (३) कल्पसूत्र के एक टीकाकार,१ शान्तिसागर ने के समान ही है। ये बासी का अर्थ 'बढ़ई का एक उपप्रस्तुत रूप में प्रयुक्त 'वासीचन्दनसमाणकप्प' की व्याख्या करण' करते हैं तथा समग्र सूक्ति का अर्थ "वासी और इस प्रकार की है-"काष्ठछेदनोपकरणवासीचन्दनतुल्ययोः चन्दन के विषय में तुल्य-अध्यवसाय पाले" ही करते हैं। छेदनपूजकयो विषये समभावः ।"२ इस विषय में' कहने से यही तात्पर्य निकलता है कि 'वासी से छेदन होने वाले प्रसंग में' और 'चन्दन से लेपन टीकाकार ने यहाँ वासी का अर्थ तो 'काष्ठछेदन करने होने के प्रसंग में।' इस प्रकार यह व्याख्या जम्बूद्वीप का उपकरण किया है, किन्तु समप्र सूक्ति का अर्थ पूर्व प्राप्ति की व्याख्या को ही पुष्ट करती है। व्याख्या से कुछ भिन्न किया है। उनके अभिमत में समग्र (५) लक्ष्मीवल्लभ सूरि, जिनकी 'उत्तराध्ययन' की सूक्ति का अर्थ है-"बासी और चन्दन के तुल्य छेदक। टीका को उद्धत किया जा चुका है, 'कल्पसूत्र' की टीका ५ पौर पूजक के विषय में समभाव रखने वाले।" यहाँ में प्रस्तुत प्रसंग की व्याख्या कुछ भिन्न रूप से करते हैं । वासी प्रौर चन्दन शब्द को पक समझकर-वासी के वे लिखते हैं-"वासी चन्दणसमाणकप्पे-यथा पशुना ममान जो व्यक्ति है अर्थात् छेदक और चन्दन के समान चन्दनवृक्षः बिंद्यमानः पमुखं सुरभीकरोति तया भगवाजो व्यक्ति है अर्थात् पूजक-इन दोनों में समभाव रखने, नपि दुःखदायकेऽपि उपकारं करोति प्रथवा पूजके छेदके वाले 'वासी चन्दन समान कल्प' कहलाते हैं । भावार्थ की च उभयोस्परि समानकल्पः ।"६ दष्टि से पूर्व व्याख्या और इस व्याख्या में अधिक पन्तर टीकाकार यहाँ वासी का अर्थ 'परशु' करते है तथा नहीं। फिर भी इतना अन्तर तो अवश्य है कि यह समग्र पाठ का अर्थ दो विकल्पों में प्रस्तुत करते हैव्याख्या रूपकात्मक है, जब कि पूर्व व्याख्या शब्दशः है। [१] कुठार से चन्दन के वृक्ष को काटने पर चन्दन पूर्व व्याख्या में 'वासी' और 'चन्दन' को रूपक के रूप में कुठार के मुख को सुगन्धित करता है। भगवान् भी उसी ग्रहण न कर सीधे शब्दशः ग्रहण किया गया है। क्योंकि प्रकार दुःख देने वाले पर भी उपकार करते हैं। वहाँ वासी का तात्पर्य 'वसूला' (से काटने वाला) और [२] पूजक और छेदक-दोनों पर समभाव रखने चन्दन का अर्थ चन्दन (से अनुलेपन करने वाला) किया वाले हैं। है, जब कि यहाँ 'बासी' का तात्पर्य 'वमूले के समान छेदने टीकाकार ने यहाँ प्रथम विकल्प में पालंकारिक अर्थ वाला' और चन्दन का अर्थ 'चन्दन के समान पूजने वाला' ग्रहण किया है। साहित्य के क्षेत्र में ऐसे अनेक प्रयोग किया गया है। मिलते है, जिनमें चन्दन की उपमा या रूपक से सज्जन (४) 'कल्पमूत्र' के अन्य टीकाकार विनयविजयजी३ को प्रकृति का चित्रण किया गया है। 'जम्बूद्वीप-प्रज्ञाप्ति ने प्रस्तुन प्रसंग की व्याख्या इस प्रकार की है-"वासी सूत्र' और 'महाभारत' जैसे ग्रन्थों में प्रस्तुत सूक्त पालं. मुत्रधारस्य काष्ठच्छेदनोपकरणं, चन्दनं प्रसिद्ध, तयो द्वयो ४. कल्पसूत्र, मुबोधिका टीका सहित, प्र. प्रात्मानन्द जैन सभा, भावनगर, १९१५, सूत्र ११६ १. वि० सं० १७०७ में कौमुदी नामक टीका के लेखक, '५. इन्होंने कल्पसूत्र पर कल्पद्रुमकलिका नामक टीका द्रष्टव्य, वेलनकर पूर्व उद्धृत ग्रंथ, पृ० ७७ जिन सौभाग्य सूरि (वि० सं० १८९२) के समय में २. कल्पसत्र, कौमुदी टीका सहित, प्र. ऋषभदेव लिखी है। द्रष्टव्य, बेलनकर, पूर्व उद्धृत ग्रंथ, सरीमल संस्था रतलाम, १९३६, सूत्र ११९ पृ० ७८ ३. वि० सं० १६९६ में सुबोधिका टीका लिखी। द्रष्टव्य, ६. कल्पसूत्र कल्पदुमकलिका सहित, प्र. वेलजी शिवजी, वेलनकर, पूर्व उद्धृत ग्रंथ, पृ०७७ बम्बई, १९१८, १० १३६

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