Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 295
________________ २६८ अनेकान्त 'दर्शन दे धीपुरी राया, दर्शन दे॥धृ॥ है। उसमें बताया है कि 'यह प्रतिमा रावण काल से ही स्थल मंदिरी रहिवास तुमचा, शेष धरितो छाया ॥१॥ एक जलशय में पड़ी थी, एजलपुर (एलिचपुर) के ईल अंतरिक्ष स्वामी माघर शोभतो, पूजो माष्ट द्रव्या ।२। राजा ने वहाँ स्नान करने से उसका कुष्ट रोग दूर हुमा। सभेमध्ये दास 'दयाल' उभा, पाठवितो तव पाया ॥३॥ फिर उसने इस मूर्ति का बोध करके प्रति स्थापना की। [३६] श्री ज्ञानयति [१६५०-७५] ये बलात्कारगण प्रादि । ऐसा विवरण 'सन्मति' के १९६० के अगस्त कारंजा शाखा के भ० पद्मनंदी के शिष्य थे अंक में डा० विद्याधरजी जोहरापुर करजी ने दिया है। पद-'सुंदर सावल स्वरूपाचा, सुन्दर स्वामी प्रामुचा। और वहाँ उन्होंने यह भी लिखा कि, ईल राजा १०वीं पाश्वप्रभु स्वामी शिरपुरीचा, अधांतरी महात्म्याचा ॥ मदी के उत्तरार्ध में हुआ है। मोहनमुद्रा श्रीध्यानस्थ, पद्मासनी व्दयी हस्तक । यंत्र मंत्र साधना करी 'ज्ञानयति' देवी देव प्रसो स्फूर्ति । (४२) द्विज विश्वनाथ [ज्ञात-काल-बम्बई के ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन में, एक गुटका है उसमें [३६] श्री नागेन्द्र कीर्ति [स. १९२५-५०] ये द्विज विश्वनाथ की एक रचना है उसमें १३ छप्पय छन्द लातूर गादी के प्राज के भ० विशालकीर्ति के गुरु भाग है, पर उसका नाम कुछ नही है । उसमें गिरनार, शत्रुजय, मिक विशालकीर्ति के शिष्य थे। भ० विशालकीर्ति ने मगसीमण्डन पाश्वनाथ, अन्तरिक्ष, चम्पापुरी, पावापुरी, शिरपुर में प्रतिष्ठादि महोत्सव किये हैं, तब नागेन्द्रकीर्ति हस्तिनापुर, पैठन-मुनिसुव्रत, कुण्डलगिरि, पाली-शान्तिने इस पद की रचना की थी। देखो जिन, गोपाचल [ग्वालियर और तुंगीगिरि के छप्पय 'पावडतो मनि देव जिनपति, है। (जैन साहित्य और इतिहास पृ० ४३५) श्रीपुरांत, स्वामीनाथ, मात तात, तो मनांत, करी सनाथ, पाल जिनपति ॥१॥ आवडतो ऐसे अनेक साहित्यिक प्राचीन उल्लेख हैं जो अप्रका..'पद्मासनी शोभे मनोहर, अंतरिक्ष, तो प्रत्यक्ष, ध्यानदक्ष, शित है, या हमारे नजर में नहीं पाये हों। प्राशा है सर्वसाक्षी, मार्ग मोक्ष, दावि मजप्रति ॥३। पावडतो। पाठकगण उन्हें मेरे पाम भेजें, या सूचित करें। इस ५० [४०] 'देव इन्द्र' ये अगर श्रीपर के पौली मंदिर माल में भी भगवानदास कन्हैयालाल आदि जैसे की अनेक में पपावती की स्थापना करने वाले भ० देवेन्द्रकीति हो कृतियाँ प्रसिद्ध है। अन्त में एक अज्ञात काकी प्रभाती तो इनका स. १८७६ से १९४१ है और ये बलात्कारगण लिम्बकर इसे पूरा करता हूँ। कारंजा शाखा के भ० पद्मनंदी के पट्टशिष्य है। 'उठा उटा गकाल झाली, अरिहताची वेल झाली। अभंग-'अन्तरिक्ष हो राया, तुझे पाय चित्तती ॥धृ॥ मूर्य बिंब उगवल, यात्रा जाऊ शिरपुराला ।। .."माझी या जीवासी, हेचि पै भूषण, अंगोल करू पवलीत, गध उगालू केशरांत । तुझे पायौं पेण, अन्तरिक्ष ।।२।। टिकी पार्श्वनाथ देऊ, सदा अन्तरिक्षां ध्याऊँ। ..'पद्मावती देवी, झली से प्रसन्न, स्थानीय जन-पाठ से] तुझे व्रत करून, अन्तरिक्ष ॥४॥ ... देव इन्द्र म्हणे, तुझे पदी लक्ष, १. जब की वे दिसम्बर १९६३ के अनेकान्त मे लिखते पावला प्रत्यक्ष, अन्तरिक्ष ॥७॥ हैं कि, एल [ईल] राजा का समय इ० सं०६१४. (४१) लक्ष्मण (सं. १६७६)-ये काष्ठा संघ के २२ के इन्द्रराज [त०] के समकालीन ठहरता है। भ.चद्रकीति के शिष्य थे। इन्होने भी श्री अन्तरिक्ष आदि । लेकिन वह समय इन्द्रराज [चतुर्थ] इ० स० पावनाष इस क्षेत्र की स्थापना विषय में एक गीत रचा १७४.८२ के समकालीन ही निश्चित होता है ।

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