Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 311
________________ २८॥ अनेकान्त जन प्रतिमानों पर वदे लेखों को पढ़ने की एक विद्वत्ता प्राप्त करना और उस प्राधार पर बडे-बडे पृथक विद्या होती है। बाबूजी उसमें पारंगत थे। अपने ग्रंथों का निर्माण करना प्रसाधारण बात नहीं है। प्रसायुवाकाल में, व्यापार करते हुए भी उन्होंने, कलकत्ता के धारण है विद्वानों का बनाना। ऐसे विद्वान जो लक्ष्य तक मन्दिरों में स्थित जन प्रतिमानों के लेखों को पढ़ा था। पहुँचने के मार्ग में भटक रहे है। जिन्हें थोड़े सहारे की उसी समय उनकी एक पुस्तक 'जैन-प्रतिमा लेख मग्रह' जरूरत है । ऐसा सहाग जो साहम बंधादे-डगमगाते प्रकाशित हुई थी। आज भी अनुसन्धान के क्षेत्र में वह कदमों को मजबूती दे। इसमें स्वार्थ से अधिक परार्थ एक मौलिक ग्रन्थ है। शोध-खोज में लगे लोग उसका मुख्य होता है। जो पगर्थ-प्रधान होते हैं, वे ही ऐसा मूल्य प्रौक पाते हैं। बाबूजी ने वीर-सेवा-मन्दिर के पं० कार्य कर सकते हैं। बाबूजी के पाम अनेक युवा विद्वान परमानन्द शास्त्री को प्रादेश दिया था कि वे दिल्ली के पाते ही रहते थे प्रत्येक किसी-न-किसी समस्या से जैन मन्दिरों के मूत्ति-लेख संकलित करे और उनका प्रीडित । यहाँ उन्हें समाधान मिलता था और प्रोत्साहन । नियमित प्रकाशन अनेकांत के अंकों में हो । यह कार्य एक बाबूजी कल्पवृक्ष थे। उस पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों वर्ष तक चला भी। बाबूजी जिस किसी भी जानकार रहती थीं। वहाँ लक्ष्मी तो मिलती ही थी, सरस्वतीव्यक्ति को देखते, उससे मूत्ति-लेख संकलन की बात साधना का मार्ग भी प्रशस्त होता था। विगत 'पोरिकहते थे । बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन इति- यण्टल इण्टरनेशल-कान्स' के अवसर पर कलकत्ता हास और संस्कृति विभाग के अध्यक्ष डा. माल्टेकर विश्वविद्यालय के एक बंगाली विद्वान वीर-सेवा-मन्दिर मे मत्ति-लेखों को भारतीय इतिहास और सस्कृति का प्रामा- ठहरे थे। उन्होंने कहा कि बाबु छोटेलाल जी के दिये णिक अध्याय मानते थे। यदि आज भारत के जैन पुरा- धन और ग्रंथ-प्रबन्ध से ही मैं अपने मार्ग पर बढ़ सका तारिवक स्थानों के मूत्ति-लेख-संकलन का काय सम्पन्न हैं। वह एक प्रतिभाशाली यूवक थे। उन्होंने कान्फ्रेंस में, हो सके तो जन संस्कृति का एक अनूठा ग्रन्थ रचा जा 'नाघयोगी सम्प्रदाय' पर एक शोध-पत्र अंग्रेजी भाषा में सकता है। उससे भारतीय संस्कृति के नये परिच्छेद परिच्छेद पढ़ा था। वह शोध-पत्र ख्याति-प्राप्त बना। विदेशी का प्रकाश में पायेंगे। क्या कोई जन संस्था इस उत्तरदायित्व विद्वानों ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की। बाबूजी की दृष्टि को सहन करेगी । यदि ऐसा हो सके तो वह दिवगत अन्तभै दिनी थी । वे एक नजर में ही प्रत्येक व्यक्ति को बाबूजी के प्रति सही श्रद्धांजलि होगी। ठीक-ठीक जान लेते थे। उन्होने जितने युवकों को प्रश्रय दिया वे सब मंयमी, प्रतिभावान् पौर महत्त्वाकांक्षी थे। बाबू छोटेलाल जी की बिब्लियोग्राफी की वैज्ञानिक जानकारी थी। उनके पास गुफाओं, मन्दिरों, चैत्यों, बाबूजी एक संस्था थे। उन्होंने न-जाने कितनी मत्तियो, शिलालेखों और भित्तिचित्रों के शतश फोटो सस्थानों को जन्म दिया, कितनों को बनाया, कितनों को थे। उदयगिरि-खण्डगिरि की गुफागों में तो वे एकाधिक सहायता दी। उनकी बुद्धि रचनात्मक थी। जिस कार्य बार गये और वहाँ के प्रत्येक भाग का फोटो लिया, चप्पे- को हाथ में लेने, योजना-पूर्वक पूरा करते । वीर-सेवाचप्पे को देखा और अपनी कसौटी पर कसकर विश्लेषण मन्दिर को सरसावा से दिल्ली लाना और उसकी एक किया। एक बार इन चित्रों को मुझे दिखाते हुए उन्होंने मालीशान बिल्डिग खड़ी करना बाबूजी के ही बलबूते जैसी मार्मिक, सधी हुई व्याख्या की थी, वह तद्विषयक की बात थी । उसमें एक शानदार पुस्तकालय का प्रायोविद्वत्ता के बिना कोई नहीं कर सकता। इन गुफाओं पर, जन, महत्त्वपूर्ण प्रकाशन और शोध-पत्र का संचालन प्रादि वे कतिपय सकलनों का सम्पादन कर रहे थे। अब भी कार्य भी बाबूजी की ही देन हैं। जिसके कारण वीर-सेवाउनके घर पर सब सामग्री होगी। कोई मनस्वी जुटकर मन्दिर समूचे भारत में ख्याति प्राप्त कर उठा था। इस काम को सम्पन्न कर डाले, तो पुरातत्त्व जगत का प्रकरमात् एक दुखद घटना घटी, जिससे बाबूजी के मर्म उपकार होगा। पर प्राधात पहुंचा और उनका कोमल हृदय टूट गया ।

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