Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 304
________________ वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएं २७७ हमारे ऊपर ऐसी कृपा करो कि हम कभी नष्ट न हों।" पृथ्वी पौर प्राकाश को यद्यपि मायण ने केशी का अर्थ इसी मूक्त के अन्य मन्त्र में कहा है१- "हे मरुतो, तुम्हारी मूर्य किया है, परन्तु केशी का शाब्दिक अर्थ जटाधारी जो निर्मल मौषधि है, उस प्रौपधि को हमारे पिता मनु होता है और इस मूक्त के तीसरे तथा वाद के मंत्रों में (स्वयं ऋषभनाथ) ने चुना था, वही सुखकर और भय केशी की तुलना उन मुनियों से की गई है जो अपनी विनाशक औषधि हम चाहते है।' विशुद्ध प्रात्मतत्त्व ज्ञान प्रागोपासना द्वारा वायु की गति को रोक लेते है और ही यह पौषधि है, जिसे प्राप्त कर रुद्र भक्त मंमार जयी मौनवृत्ति से उन्मत्तवत् (परमानन्द माहित्य) वायुभाव और सुखी होने की कामना करता है। प्रस्तुत मूक्त के (अशरीरी वृत्ति) को प्राप्त होते हैं और मांसारिक तृतीय मन्त्र में उसकी जीवन-माधना देग्विए । वह प्रार्थना मर्त्यजनों को जिनका केवल पार्थिव शरीर ही दिग्वलाई करता है। देता है। 'हे बज सहनन रुद्र तुम उत्पन्न हुए समस्त पदार्थों में अथर्ववेद में भी मद्र का व्याधि-विनाश के लिए मर्वाधिक मुशोभित हो, सर्वधेष्ठ हो और ममस्त बलशा- आह्वान किया गया है ।१० नुछ मन्त्रों में रुद्र 'महयाक्ष' लियो में सर्वोत्तम बलशाली हो। तुम मुझे पापो से मुक्त भी कहा गया है ।११ इमी वेद के पन्द्रहवे मण्डल में रुद्र करो और ऐसी कृपा करो, जिसमे मैं क्लेशों तथा अाक्रमणों का मान्य के गा। उल्लेख किया गया है और मूक्त के से युद्ध करता हुमा विजयी रहे।' प्रारम्भ में ही कहा गया है कि 'मात्य महादेव बन गया, एक मूक्त में रुद्र का सोम के साथ याह्वान किया वात्य ईशान बन गया है ।१२ नथा यह भी लिखा है कि गया है३ । और अन्यत्र सोम को वृषभ की उपाधि दी "व्रात्य ने अपने पर्यटन में प्रजापति को शिक्षा और गई है४ । रुद्र को अनेक बार अग्नि कहा गया है५ । और प्रेरणा दी ।१३ एक स्थल पर उन्हें "मेधापति" की उपाधि से विभूपित सायण ने ब्रान्य की व्याख्या करते हए लिखा हैकिया गया है । एक स्थान पर "वहाँ" के रूप म भा कंचिद्विद्वनमं महाधिकारं पुण्यशील विश्वमामान्यं कर्म उल्लेख किया गया है, जिसका सायण ने अर्थ किया है - पराह्मणविद्विष्ट वात्यमनुलक्ष्यवचनमिति मन्तव्यम्' अर्थात् "अर्थात् जो पृथ्वी तथा माकाश में परिवृद्ध हैं। वहाँ उस व्रात्य से मन्तव्य है जो विद्वानों में उत्तम, ऋग्वेद के उत्तर भाग के एक मूक्त में कहा गया है महाधिकारी पण्यशील और विवपूज्य है और जिसमे ने केशो के माथ विषपान किया। इसी सूक्त के कर्मकाण्डी ब्राह्मण विद्वंप करते है। प्रथम मंत्र में कहा गया है कि केशी इम विप (जीवन इस प्रकार व्रतधारी एव मयमी होने के कारण ही स्रोत-जल) को उसी प्रकार धारण करता है, जिम प्रकार इन्हें व्रात्य नहीं कहा जाना था, अपिनु गतपथ ब्राह्मण के एक उल्लेख से प्रतीत होता है कि वृत्र (अर्थात् ज्ञान, १. या यो भेषजः मरुतः शुचीनि या शान्त मा वृषगों या । द्वारा सब ओर से घेर कर रहने वाला मर्वज) को अपना मयोमु । यानि मनुवणीता पिता नश्ताशं च योश्च इष्टदेव मानने के कारण भी यह जन प्रात्य के नाम से रुद्रस्य वश्मि-वही २, ३३, १३ २. थेष्ठो जातस्य रुद्रः थियांसि नवस्तमम्तवमा वज्रवाहो ८. ऋग्वेद : १, १७२, १; ', ६४, नधा , ५, ३३, पषिणः पारमहंस. स्वस्ति विश्वा अभीति ग्पमो ५,६१, ४ भादि युयोधि । वही २, ३३, ३ ६. ऋग्वेद : १०, १३६, २-३ ३. ऋग्वेद . ६, ७४ १०. अथर्ववेद : ६, ४, ३, ६, ५७, १, १६. १०,६ ४. वही : ६,७,३ ११. वही : ११, २, ७ ५. वही : २, १६, ३, २, ५ १२. वही : १५, १, ४, ५ ६. वही : १, ४३, ४ १३. व्रात्य प्रासी दीपमान एव म प्रजापति ममैश्वत, ७. वही : १,११४,६ अथर्ववेद १५, १

Loading...

Page Navigation
1 ... 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318