Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 298
________________ भगवान पानाच २७१ २. भारहेवासे बाणारसीए नयरीए प्राससेणस्स रणो तो नहीं होती कि वे उन पाठों का मशोधन कर सकें। वामाए देवीए। -कल्पसूत्र ६-१५० अन्य एक संग्रह में उक्त तीनों स्थलों पर 'मश्वसेन' नाम ३. प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने त्रिषष्ठि शलाका का ही उल्लेख मिलता है। पुरुष चरित्र में पार्श्वनाथ के माता-पिता का नाम दामा जब बनारसमें भगवान पार्श्वनाथ का जन्म हुमा, उनका देवी और अश्वसेन दिया है। उक्त नामों में से हयसेन या अश्वसेन नाम का समर्थन गोत्र काश्यप था। उस समय देश की स्थिति बड़ी ही हिन्दू पुराणों और बौद्ध जातकों से भी नहीं होता। प्रतः विषम और डामाडोल हो रही थी। श्रमण मस्कृति के साथ वैदिक संस्कृति का प्रचार बंगाल मौर विहार में यह नाम इतिहास सम्मत नहीं है बौद्ध जातकों में बनारस होने लगा था। लगभग उसी समय में 'शनपय ब्राह्मण' के गजामों के नाम मिलते है। जिनमे ब्रह्मदत्त के सिवाय छह राजामों के नाम निम्न प्रकार हैं-उम्गसेन, धनंजय, की रचना पूर्ण हो रही थी। ऐसे विषम ममय में भगवान महासीलव, मंयम, विस्ससेन और उदयभद्द । विष्णु पाश्र्वनाथ ने बनारम में अवतार लिया। वे जन्म से ही पुराण और वायुपराग में ब्रह्मदत्त के उत्तराधिकारी मनि-श्रुत और अवधि तीन ज्ञान मंयुक्त थे। उनके शरीर का नील वर्ण अत्यन्त शोभनीक था। धीरे-धीरे भगवान योगसेन, विश्वकसेन और झल्लाट नाम का उल्लेख मिलता है। जातकों का विस्ससेन और पुराणों के विश्वक का शरीर वृद्धि को प्राप्त होता गया। माता-पिता ने अनेक वार उनसे विवाह का प्रस्नात्र किया, कि तु उन्होंने सेन संभवतः एक ही है। काशी के इतिहास में डा. उसे हम कर टाल दिया। प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने मोतीचन्द जी ने उक्त नामों का उल्लेख किया है। 'त्रिषष्ठि शना का पुरुषचरित्र' के वे पर्व के तीसरे सर्ग रही पार्श्वनाथ पूजा में प्रयुक्त विश्वसेन नाम के के २१०वें पद्य के निम्न चरण में-'भोग्य कर्म क्षपयिआधार की बात, सो उसका प्राधार ऊपर बतलाया जा तुमुद्राह प्रभावतीम्" उल्लिखित वाक्य द्वारा पार्श्वनाथ को चुका है किन्तु वह पूजा जिन संग्रहों में छपी है उसके विवाहित मूचित किया है। जब कि उसी चरित के वामपाठों में एक रूपता नहीं है। कलकत्ता अमरतल्ला स्ट्रीट पूज्य चरित में महावीर को छोड़ कर शेष चार तीर्थकरों से प्रकाशित 'श्री जिन स्तोत्र पूजादि संग्रह में पृ० ५६७ को-मल्लि, नेमि, पार्श्व और वासुपूज्य को अविवाहित पर प० कमलकुमार जी शास्त्री कलकत्ता के सम्पादकत्व सूचित किया है१। हेमचन्द्राचायंका पाश्वनाथको एक जगह में प्रकाशित बखतावर मल की पार्श्वनाथ पूजा में पाव. विवाहित और दूसरी जगह अविवाहित लिखना किसी नाथ के पिता का नाम एक स्थान पर अश्वसेन और दो भूल का परिणाम जान पड़ता है। अन्यथा एक ही अन्य स्थानों पर विश्वसेन छपा है । जो विचारणीय है। में ऐमा विरुद्ध कथन नहीं होना चाहिए। पाश्वनाथ को 'वर स्वर्ग प्राणत को विहाय सुमात वामा सुत गये। विवाहित बतलाना स्थानानाग नथा गमवायांग के मूत्र अश्वसेन के पारस जिनेश्वर चरण जिनके सुर नाये।' १६ की मान्यता के विरुद्ध है, आवश्यक नियुक्ति की xxxx मान्यता के भी विरुद्ध है । दिगम्बर परम्परा मे पाश्र्वनाथ हैं विश्वसेन के नंद भले गुण गावत है तुमरे हरषाए।' को अविविवाहित ही माना गया है। पंच तीर्थंकरों को बाल ब्रह्मचारी माना है जैमा कि प्रावश्यक नियंक्ति में 'तहां विश्वसेन नरेन्द्र बार, करें सुख वाम सुदे पटनार।' .. भारतीय ज्ञान पीठ काशी प्रकाशित से 'ज्ञानपीठ पूजा- १. (क) मल्लिनेमिः पावं इति भाविनोऽपि त्रयो जिन. । जलि के पृष्ठ ३७१ पर भी ऊपर लिखे अनुसार पाठ प्रकृतोडाह साम्राज्याः प्रजिष्यति मुक्तये ॥१०३ मंद्रित है । जबकि तीनों स्थलों पर एक जैसा पाठ चाहिए श्रीवीरश्चरमश्चाहनीषद् भोग्येन कर्मणा । था। ऐसी स्थिति में पाठक जन किस पाठ को ठीक कृतोद्वाहोऽकृत राज्य प्रजिष्यति सेत्स्यति ।।१०४, समझे, यह विचारणीय है। सर्व साधारण में इतनी बुद्धि त्रि० ५० ५० ५०।

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