Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 297
________________ २७० अनेकान्त हयसेण नाम मिलते हैं । जब कि बनारस के राजामों के ३. विश्वसेन नृपतेर्मनः प्रियाम-पार्श्वनाथ चरित ६-६५ नामों में प्रस्ससेण या अश्वसेन हयसेण नाम नहीं मिलता। ४. ततोऽनत्य सकाशीश विश्वसेन तुजो भवत् । हिन्दू पुराण ग्रन्थों में भी अश्वसेन नाम नहीं उपलब्ध बोडशान्यवया. प्राप्तो वनं श्वभावुपेत्यतम् ॥ नहीं होता। यहाँ उस पर कुछ विचार किया जाता है: -त्रिषष्ठि स्मृतिशास्त्र २३ पृ० १४३ __ "श्री पंडित कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने जैन ५. "काशी विषये वाराणसी पुम्यो विश्वसेन महाराजस्य साहित्य इतिहास की पूर्वपीठिकाके पृष्ठ १६५ में लिखा है- ब्राह्मीदेव्याश्च सनः पञ्चकल्याणाधिपतिः पार्श्वनाथ कि जैन साहित्य में पार्श्वनाथ के पिता का नाम अश्वसेन नाम"। या परससेण बतलाया है। यह नाम न तो हिन्दू पुराणों योगि. पंडिताचार्य-पार्वाभ्युदय काव्य टीका कथा वातारः। में मिलता है और न जातकों में किन्तु गत शताब्दी में ६. तपति विश्वसेनास्योप्यभविश्व गुणकभः। रची गई पार्श्वनाथ पूजा में पार्श्वनाथ के पिता का नाम काश्यपाल्य सुगोत्रस्य इक्ष्वाकु वंशरवांशुमान् ।। विश्वसेन दिया है, यथा-तहां विश्वसेन नरेन्द्र उदार।' -सकलकीति पार्श्वपुराण १०-३६ । हम नही कह सकते कि कवि के इस उल्लेख का क्या ७. बमोष्टो विश्वसेनः शतमखचितः काशिवाराणसीशः। माधार है।" प्राप्तेज्यो मेरु शृंगे मरकतमणिरुपवनायो जिनेन्द्रः।। मालूम होता है कि पंडित जी ने अपने ग्रन्थो का -पार्श्वनाथ स्तवन श्रुतसागर सूरि भने० वर्ष १२ कि. ८ अवलोकन नहीं कर पाया, या उत्तरपुराण प्रादि के १.यसेण वम्मिलाहि जाबोहि बाणारसीए पास मिलो। उल्लेखों पर उनकी दृष्टि नहीं गई। अन्यथा उन्हें उसके -तिलो० प० ४-५०८ गा०। प्राधार का ठीक पता चल जाता। यदि उक्त वाक्य कवि २. तहां बसह हेम मन्दिर सुषाम, बखतावरमल ने स्वयं दिया है, तो उसका प्राधार पौरा बाणारसि गरि मनोहिराम । णिक साहित्य है। पर उनका वाक्य अश्वसेन है जिसका धवल हर धवल अवलिय विहाइ, उक्त पूजा में दो बार उल्लेख है। दिगम्बर साहित्य में सुरसरि सेविय हर मुत्तिणाइ। विश्वसेन और अश्वसेन या अस्ससेन दोनों ही नाम हयसेणु तत्त्व राणउ सुमंति, मिलते हैं ! यति वृषभ की तिलोयपण्णत्ती में और अपभ्रंश जसु जेण निहिउ दिग्बयह बंति ।। भाषा के ग्रन्थों में 'हयसेरण' नाम मिलता है, जो अश्वसेन देवचन्द्र, (पासणाहचरिउ १-११ पत्र ५) का ही पर्यायवाची है। हां, श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में प्रस्ससेण ३. वाराणसी विशाखा च पायो वर्माषवो प्रियः । या पाससेन और अश्वसेन नाम उपलब्ध होता है। अश्वसेनश्च ते राजन विशंतु मनसोपतिः ॥ दिगम्बरीय विद्वान् गुणभद्राचार्य, वादिराज, पुष्पदन्त रविषेण पद्मचरित २०-५६ । पंडित पाशाधर, पाश्र्वाभ्युदय के टीकाकार, योगिराट पंडिताचार्य भ० सक्लकौति और श्रुतसागर सूरि ने पार्श्वनाथ ४. अश्वसेन नृपः पाश्वः। (हरिवंश पु० ६०-२०४) के पिता का नाम विश्वमेन ही प्रकट किया है ५. अस्ससेणु णामें तहिणरवरू। (रइधू पा० पु०१-१० १. वाराणस्यामभूद्विश्वसेनः काश्यपगोत्रजः । ६. अश्वसेन भपनि बडभाग, राज कर तहां प्रतुल सुहाग। ब्राहास्य देवी सम्प्राप्तं वसुधारादि पूजनम् ॥ __ काशिपगोत्र जगत परशंस, वंश इक्ष्वाकु विमल सरहंस ॥ -उत्तर पुगण ७५ पृ० ४३४ । भूधरदास पावपुराण । २. कासी देसि यरिवाणारसि, श्वेताम्बरीय ग्रन्धकारों मे आससेण, अस्ससेण या हि धवल हरहिं पहमेल्लइ ससि । अश्वसेन नाम मिलता है। यथापत्ता-तहि अस्थि गरिंदु विस्ससेणु गुण मंडिउ । १. वाणारसी विसाहा पासो धम्मीय प्राससेणो य । बंभा देवीए भयलयाहि अवडिउ । अहिछत्सा वाहिरमो तुहमंगल कारयाणि सया ॥ -महापुराण ६४ सं० १२ । --पउमचरिउ २०-४६ ।

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