Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 286
________________ डा.कोबी पौरबासी-बबन-कल्प २५६ : इतर ग्रन्थों में:-'वासी चन्दन' का प्रयोग पागमेतर के परिपाक से बासीचन्दनतुल्यता की स्थिति विशवयोग साहित्य में भी विपुल रूप से उपलब्ध होता है। बालों को बताई है।५ उसकी वृत्ति में गंभीर विजयगणी १. हेमचनाचार्य का योगशास्त्र ने निम्न व्याख्या दी हैमहायशस्क साहित्यकार प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'समत्व- 'वासीचन्दनतुल्यता:-वासी-कुठारिका, तथा शरीरसाधना' की उच्च स्थिति की व्याख्या करते हुए लिखा है- स्य च्छेदनं तथा चन्दने-नार्चनं, तयो विषये तुल्यता "गोशीर्षचन्ताले बासोच्छवे . बाहयोः। शोकहर्षाभावात्सादृश्यं स्यात्-रागद्वेषयोरवकाशभावाअभिन्ना चित्तवृत्तिश्चेत् तदा साम्यमनुत्तरम् ॥" दित्यर्थः ।'६ । हाथों पर गोशीर्ष चन्दन के लेप किये जाने पर और 'वासी-कुठारिका से शरीर का छेदन तथा चन्दन से वसूले से काटे जाने पर यदि चित्तवृत्ति समान रहे, तो अर्चन; दोनों विषयों में तुल्यता-शोक मौर हर्ष के प्रभाव वह उत्कृष्ट समता है।" से यह सादृश्य होता है या राग और द्वेष के अवकाश के हेमचद्राचार्य के इस प्रयोग से प्रस्तुत सूक्त के प्रभाव से।' वास्तविक अर्थ को प्रसंदिग्ध रूप से जाना जा सकता है। टीकाकार वासी को यहाँ कुठारिका कहते हैं, जिसका (२) 'पावश्यक नियुक्ति हारिभद्रीय वृत्ति' भद्रबाहु अर्थ 'छोटी कुल्हाड़ी' होता। वह 'बसूले' के समान ही स्वामी द्वारा रचित 'पावश्यक नियुक्ति३ की हारिभद्रीय होती है। यहाँ प्रस्तुत सूक्त का भावार्थ स्पष्ट रूप से बृत्ति में 'वासीचन्दन तुल्यता' की व्याख्या इस प्रकार की समझाया गया है।। गई है-"वासीचन्दनकल्प उपकार्यपकारिणो मध्यस्थः ४. सुभाषित पथ:-संस्कृत वाङ्मय के सुभाषितों उक्तं च-'जो चंदणेरण बाहुं प्रालिपइ वासिणा व तच्छेई। के संग्रह-व 'सुभापित-रत्न-भांडागार' में कुछ एक ऐसे संथुणइ जो व निदइ महरिभिणो तत्य समभावो ।।"४ श्लोक उपलब्ध होते हैं, जो वासीचन्दन को सूक्ति पर "उपकारी और अपकारी में मध्यस्थ जो चन्दन से कुछ प्रकाश डालते है। रविगुप्त द्वारा रचित एक सुभाबाहु का लिंपन करता है या वसूले से बाहु को काटता है, षित इस प्रकार हैजो स्तुति करता है अथवा निंदा करता है, वहां महपिका 'सुजनो न याति विकृति, परहितनिरतो विनाशकालेऽपि । समभाव होता है।" छेवेऽपि चन्दनतः सुरमयति मुखं कुठारस्य ॥७ इस प्रकार हरिभद्रमूरि ने भी इसी अर्थ को मान्यता परहित में निरत सज्जन विनाशकाल में भी विकृति (निजस्वभाव में परिवर्तन) को प्राप्त नहीं होते, छंदे पशोपविजयजी का अध्यात्मसार 'अध्यात्मसार' के रचयिता यशोविजयगणी ने समता ५. समतापरिपाके स्याद् विषयग्रहतून्यता । १. योगशास्त्रप्रकाश, प्राचार्य हेमचन्द्र, प्र. जैनधर्म यया विशदयोगनां वासीचन्दनतुल्यता ।। प्रशारक सभा, भावनगर, १६१५, ४१५४-२ -प्रध्यात्मसार, प्र. जैनधर्मप्रसारक सभा, २. तुलना कीजिये-Yogasastra of Hemchandra भावनगर, १६१५, ३॥३७ Ed. S. Tr. into German by E. Windish . प्राध्यात्मसार पर गम्भीरविजयगणी कृत टीका, in z. D. M. G., Vol. XXVIII. P. 185. (रचनाकाल सं० १९५३), प्र. जैनधर्म प्रसारक bf. Ch. IV-V.54-2. ३. वासीचन्इणकप्पो जो मरणे जीविए य समसणो। सभा, भावनगर, ईस्वी १९१५, पृ०७०। देहे य प्रयडिबडो काउसग्गो हवा तस्स ॥ ७. सुभाषितरत्नभांडागार, संप० काशीनाथ पाहुरंग -मावश्यक नियुक्ति, गा० १५४८ परब, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १८३१, तृतीय ४. मावश्यक नियुक्ति हारिभद्रीय वृत्ति, पृ०७६६ संस्करण, पृ०७१ श्लोक ६३

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