Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 276
________________ स. कोबी और पासी-बबन-कल्प २४० भगवान् महावीर की साम्य-योग की साधना का वर्णन जन भागमों तथा अन्य माघारभूत ग्रन्थों, टीकामों, करते हुए वहां बताया गया है-"से गं भगवं...."वासो- मनुवादों और शब्दकोषों के माधार पर डा. जेकोबी चन्दणसमाणकप्पे समतिण-मणिलेढुकंचणे समदुक्खसु द्वारा की गई व्याख्या की यथार्थता की समीक्षा करना प्रस्तुत निबंध का उद्देश्य है। डा. जेकोबी ने इन पंक्तियों का अनुवाद करते हुए जम्ब-दीप-प्राप्ति सूत्र:लिया है जैन भागमों के छठे उपांग४ 'जम्बू-नीप-प्रशस्ति"The venerable one......was indifferent सूत्र के मूल पाठ में ही इस उक्ति की स्पष्ट व्याख्या the smellor ORDURE andolandata to उपलब्ध हो जाती है प्रथम तीर्थंकार भगवान् ऋषभनाथ straw and jewels, dirt and gold, pleasure and and के साधनाक्रम पर प्रकाश डालते हुए वहां बताया Ar pain......." गया है :HTET मा "जप्पभिई प णं उसमे परहा कोमलिये मंडे भवित्ता गन्ध के प्रति, तण और मणियों के प्रनि, धूल और स्वर्ण प्रागाराम्रो प्रणगारियं पम्वइए सप्पभिई व गं उसमे के प्रति, सुख और दुख के प्रति उदासीन थे....." परहा कोमलिये "णिम्ममे णिरहंकारे, लहभुग प्रगंथे डा. कोबी ने यहां पर भी 'वासी' का अर्थ विष्ठा 'वासीतच्छणे प्रदुद्रु, चंदणाणुलेवणे परते लेटुंमि कवणंमि (या दुर्गन्धपूर्ण पदार्थ) ही किया है। 'वासीचन्दनसमाण- असमे"""विहरह।"५ कप्पा' का अर्थ वे "विष्ठा की दुर्गन्ध प्रौर चन्दन की पूर्व उद्धृत 'उत्तराध्ययन मूत्र' व 'कल्पमूत्र' के 'वासीसुगन्धि में समभाव वाले" करते हैं। चंदणकप्पो व 'वासीचंदणसमाणकप्पो की तुलना प्रस्तुत मंकडॉनेल का शब्दकोष : पाठ 'वासीतच्छणे अदृ8' 'चंदणाणुलेवणे अग्न्ने' के साथ करने से स्पष्ट हो जाता है कि जो बात वहां संक्षेप में सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् आर्थर ऐंथनी२ मैकडॉनल बताई गई है. वह यहाँ विस्तारपूर्वक और स्पष्टता से भी 'वासी' शब्द के यथार्थ अर्थ के विषय में संदिग्ध है, कही गई है। उक्त पाठ का अनुवाद अपने पाप में स्पष्ट ऐमा प्रतीत होता है। प्रस्तुत विषय के अनुसंधान के और सरल है. फिर भी टीकाकार के शब्दों में वह पौर मन्दर्भ में मैंने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित अधिक गम्य बन जाता है। प्रमिद्ध वृत्तिकार शान्तिऔर मैकडॉनल द्वारा रचित संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोप को चन्द्र, वाचकेन्द्र६ इमकी वृत्ति में लिखने है:-"वास्यादेखा। पाश्चर्य के साथ मैंने वहाँ पाया, 'वासी' शब्द का मूत्रधारशस्त्रविशेषण यन्तक्षणोन्वच उत्वननं तत्राद्विष्ट: अर्थ दिया ही नहीं गया है। वहाँ केवल इतना ही उप अद्वेषवान् चन्दनानुलेपनेऽरक्त:-परागवान् ।"७ इम लब्ध होता है-'वासी Vasi, L. V. Vasi" इसके मामने का रथान बिना अर्थ के ही रिक्त छोड़ दिया गया ४. कुछ एक इमे पांचवा उपांग भी मानते हैं। है। सहज ही यह अनुमान लगता है; कोपकार या तो ५. जम्बू-दीप-प्रज्ञप्ति मूत्र, वक्षम्कार २, मूत्र ३१ इस शब्द से अनभिज्ञ है अथवा वे इसके सही अर्थ के बारे ६. वि० सं० १६६० में 'जम्बूद्वीप प्राप्ति मूत्र' पर में सदिग्ध है। 'प्रमेयरत्नमञ्जूषा" नामक वृत्ति लिखी। द्रष्टव्य, हरि दामोदर वेलनकर, जिनरत्नकोप, भांडारकर 1. S.B.E. Vol. XXII. P. 262. प्रोरियंटल रिसर्च इन्स्टीटपट पूना, १९४, २. पाथर ऐंयनी मैकडॉनेल, एम.ए., पी. एच-डी. पृ० १३१। संस्कृत साहित्य के उच्चकोटि के ज्ञाता और विश्रुत ७. जम्बदीप प्रज्ञप्ति मत्र सटीक, शेठ देवचन्द लालभाई कोषकार हैं। उनकी कई प्रसिद्ध पुस्तकें हैं । पुस्तकोढार फंड, सुरत, १९२०, बक्षस्कार २, सूत्र ३१ की वृत्ति। .

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