Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 258
________________ वृषभदेव तवा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएं २१५ परम्परा में ज्येष्ठ गणघर के नाम से प्रसिद्ध हैं, जैन बतलाई गई याशिक प्रक्रिया के अनुसार प्रज (जौ]४, परम्परा के अनुसार यह भगवान् वृषभदेव के पुत्र वृषभसेन प्रक्षत (चावल), तथा घृत-इनका प्रयोग पाहुति के थे। भगवान् ने इन्हें ही समस्त विद्यामों में प्रधान ब्रह्म- के लिए किया जाता था और पूजा के समय भगवान विद्या देकर लोक में अपना उत्तराधिकारी बनाया वृषभ का सानिध्य बनाये रखने के लिए 'वषट्' शब्द का था। और उनके पर्थ पाहुति देते समय उन द्वारा घोषित इनके द्वारा तथा अन्य अथर्वनों [गणधरों) द्वारा स्वात्म-महिमा को ध्यान में रखने के लिए 'स्वाहा' शब्द प्रतिपादित अनेक तान्त्रिक विधानों तथा वृषभ के हिरण्य- का प्रयोग आवश्यक था, क्योंकि वषट्' उच्चारण द्वारा गर्भ, जातवेदस् जन्य, उग्र तपस्या, सर्वशता देशना, सिद्ध भौतिक अग्नि की स्थापना करते हुए उपासक जन वास्तव लोक प्राप्ति सम्बन्धी अनेक रहस्य पूर्ण वार्तामों तथा में वृषभ भगवान की ही स्थापना करते है। और 'स्वाहा' यति वात्यश्रमणों को प्राध्यात्मिक चर्चा का संकलन चौथे शब्द द्वारा भौतिक अग्नि में प्राहुति देते हुए भी अपनी वेद में हुमा है । प्रतः इसकी प्रसिद्धि प्रथर्ववेद के नाम से प्रात्म-महिमा को ही जागत करते हैं। वषट् शब्द का उच्चारण किए बिना अग्नि की आसना भौतिक अग्नि अथर्वन द्वाग प्रतिपादित प्रक्रिया के अनुसार अग्नि की ही उपासना है। में हव्य द्रव्य की आहुति देकर सर्व प्रथम वृषभ की पूजा वृषभ के विविध रूप और इतिवत्त उनके ज्येष्ठ पुत्र तथा भारत के मादि चक्रवर्ती भरत जैन परम्परा के अनुमार भगवान ऋपभदेव अपने पूर्व महाराज, जो मनु के नाम से भी प्रसिद्ध थे, ने की थी। जन्म में सर्वार्थमिद्धि विमान में एक महान ऋद्धिधारी देव इसके पश्चात् उनका अनुकरण करते हुए समस्त प्रजाजन थे। प्रायु के अन्त में उन्होंने वहां से चय कर प्रयोध्याभगवान् वपभदेव के प्रतीक रूप में अग्नि की पूजा में नरेश नाभिराय की गनी मरुदेवी के गर्भ में अवतरण प्रवृत्त हुए। किया। इनके गर्भ में आने के छह माह पूर्व से ही नाभि राय का भवन कुबेर के द्वाग हिरण्य की दृष्टि से भरपूर उक्त प्रक्रिया के अनुसार यह पुजा प्रातः, मध्याह्न कर दिया गया, अत: जन्म लेने के पश्चात् यह हिरण्यगर्भ और सायं तीनों काल होती थी। अथर्ववेद अनड्वान के नाम से प्रसिद्ध हुए । गर्भावतार के ममय भगवान की सूक्त में इस पूजा का फल बतलाते हुए कहा है कि जो माता ने स्वप्न में एक मुन्दर बैल को अपने मुख में प्रवेश इस प्रकार प्रतिदिन तीनों समय भगवान् वृपभ की पूजा करते देखा था। अन. इनका नाम वृषभ रक्ग्वा गया। करते है वे उन्हीं के समान अविनाशी अमर पद के अधि जन्म से ही यह मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञानों से कारी हो जाते है३ । विशिष्ट थे। अतः इनकी जातवेदम् नाम से प्रमिद्धि हई। प्राचीन अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि प्रथर्वन द्वारा बिना किसी गुरु की शिक्षा के ही अनेक विद्यानों के ज्ञाता थे, इन्होंने जन्म-मृत्यु में अभिव्याप्त ममार में स्वयं सत्, १. [अ] ब्रह्मा देवाना प्रथमः मम्बभूव विश्वस्य कर्ता अन, धर्म एवं मोक्षमार्ग का माक्षात्कार किया था। प्रतः भुवनस्य गोप्ता । स ब्रह्म विद्यां मर्व विद्या प्रतिष्ठाम- वह स्वयंभू तथा सुकृत नामों में प्रसिद्ध हप। भोग युग वाय ज्येष्ठ पुत्राय प्राह ||-मुण्डकोपनिषद् १,१ की समाप्ति पर इन्होंने ही प्रजा को कृषि, पशुपालन [पा] 'स्थति तनमाह गातं विदद ' ऋग्वेद १,६६,४. तथा विविध शिल्प-उद्योगों की शिक्षा प्रदान की थी। प्रतः २. ] 'मन्हवा अग्रे यज्ञे ने तदनकृत्येमा प्रजायजन्त'- यह विधाता, विश्वकर्मा एवं प्रजापति नामो से विख्यात १ ० हए। ये ही अपनी अन्त:प्रेरणा में संमार-शरीर तथा [प्रा] जिनसेन कृत प्रादिपुराण पर्व ४७,३२२,३५१. ४. "अजयंष्टके"-जिनमेन कृत हरिवंशपुराण ३. अथर्ववेद ४, ११, १२ २७, ३८, १६४

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