Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 256
________________ वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएं २३३ करने वाला] विश्व वेदस [विश्व तत्त्वो का ज्ञाता] मोक्ष तथ्य ही स्पष्ट नहीं होता कि वृषभदेव का ही अपर नाम नेता ऋत्विज [धर्म स्थापक], होता, हय, यज्ञ, सत्य, अग्निदेव रहा, अपितु यह भी सिद्ध है कि उपास्यदेव के यशबल इन्यादि । वैदिक ध्याख्याकारों ने भी लौकिक अर्थ में प्रयुक्त 'अग्नि' शब्द संस्कृत का न होकर अग्नि भ्रान्तियों का निग्रह करने के लिए स्थल-स्थल पर इस का लोक व्यवहृत प्राकृत अथवा अपभ्रंश रूप है जो प्रार्यमत का समर्थन करते हुए लिखा है कि अग्निदेव वही है गण के भारत प्रागमन में पूर्व ही प्रादि ब्रह्मा वृषभ के जिमकी उपासना मरुद्गण रुद्र संज्ञा से करते है* | लिए प्रयुक्त होता पा रहा था, यही कारण है कि ब्राह्मण रुद्र, शर्व, पशुपति, उग्र, प्रशनि, भव, महादेव, ईशान, ऋषियों को पभ की अग्नि मंजा 'अग्नि' अर्थमूलक करने कुमार---रुद्र के ये नौ नाम अग्निदेव के ही विशेषण है२। के लिए तत्सम्बन्धी थुनियों को आधार बनाकर उसकी अग्निदेव ही सूर्य है३ । परम विष्णु ही देवों [पार्दगण] व्युत्पत्ति 'प्रग्र' शब्द में करनी पड़ी। अन्यथा संस्कृत की अग्नि है४ । इम मत की सर्वाधिक पुष्टि अथर्ववेद के भाषा की दृष्टि से अग्र एवं अग्नि शब्द में अत्यन्त ऋषभ सूक्त मे होती है, जिसमें ऋषभ भगवान की अनेक पार्थक्य है। विशेषणो द्वारा स्तुति करते हुए उन्हें जात-वेदम् [अग्नि] वैदिक अनुमतियों से मिद्ध होता कि अग्नि मंजा विशेषण से भी विशिष्ट किया गया है । से वृषभ की उपासना करने वाले अधिकाश वे क्षत्रिय-जन उपर्यतः विशेषणों तथा ममस्त प्राचीन श्रुतयों के थे, जो पंचजन के नाम से प्रसिद्ध थे७ । इनमे यदु, तुर्वसा, आधार पर स्तुत्य अनि शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए पुरु, ब्रह्म , अनु नाम की क्षत्रिय जातियाँ मम्मिलित थीं, ब्राह्मण ऋपियों ने यह व्यक्त किया है कि उपास्य देवो ये लोग ऋग्वैदिक काल में कुरुक्षेत्र, पचाल, मस्यदेश के अग्र में उत्पन्न होने के कारण वह अग्नि अथवा अग्नि और सुराष्ट्र देश में बसे थे। जब पार्यगण सप्तसिन्धु देश संज्ञा से प्रगिढ हप६ । इन लेखों के प्रकाश में केवन यह में से होते हुए कुरुभमि में ग्राबाद हए और यहाँ परजन क्षत्रियों की धार्मिक संस्कृति के सम्पर्क में पाये तो उससे १. 'ऋग्वेद' ११, ११२, अथर्ववेद ६, ४, ३ ऋग्वेद १, प्रभावित होकर इन्होंने भी उनके प्राराध्य देव वपन को १८६१ अग्नि' संज्ञा से अपना पाराध्य देव बना लिया, यह ऐति* 'यो वै रुद्रः सोऽणिनः'-शतपथ ब्राह्मण ५, २, ४, हासिक तथा कश्यप गोत्री मरीचि पुत्र ऋपि ने अग्निदेव १३ । की स्तुति करते हुए ऋग्वेद १-६ मे 'देवा अग्निं धारयन् २. (अ) 'तान्येतानि अष्टौ रुद्रः शर्वः पशुपति उग्र. , द्रविणोदाम' शब्दों द्वारा स्वय व्यक्त किया है। अशनिः भवः महादेवः ईपान: अग्निरूपाणि कुमारी इस मूक्त के नौ मत्र हैं। इनमे से पहले सात मन्त्रों नवम्' वही ६. १, ३, १८ ।। के अन्त मे पिवर ने उक्त शब्दो को पुन:पुनः दोहराया (मा) एतानि व तेपामग्नीना नामानि यद् भवपति. है। इसका अर्थ है कि-देवा (अपने को देव सज्ञा से भुवनपतिर्भूतानां पतिः, वही १, ३, ३, १६ । अभिवादन करने वाले प्रायंगण ने) द्रविणो दा (धनश्वयं ३. 'अग्निवर्वार्थ.' वही २, ५, १,४। ४. 'अग्निदेवानाम् भवो को विष्णु परम्' को तस्य ब्राह्मग ७,१। (इ) वारवेल के शिलालेम्व (ईसा पूर्व द्वितीय ५. अथर्व ४,३। शताब्दी) में भी ऋपजिन का उल्लेख अग्ग जिन ६. (अ) सयदस्य सर्वस्याप्रमस्मज्यत तस्मादग्निरग्नि के रूप मे हुमा है (नन्द राजनीतान प्रगजिनस)। वै तमग्निरित्याचक्षते परोक्षय-शतपथ ब्राह्मण ६, (ई) 'प्रजापतिः देवतानः सृज्यमान अगिनमेव देवानां १, १, ११॥ प्रथम ममृजत' तैनिगेय ब्राह्मण २१, ६, ४ । (मा) 'यद्वा एनमेतदने देवानां अजनयत् तस्मादग्नि (उ) 'भगिनर्व सर्वाद्यम् ।' ताण्डव ब्राह्मण ५, ६३ । राप्रतवै नामतदद्यदगिरिति' वही २,२,४,२। ७. 'जना यदगिन मजयन्त पञ्च'- ऋग्वेद १०, ४५, ६ ।

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