Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 268
________________ मोम् महन अनेकान्त परमागमस्य बीज निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमपनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष १८ किरण-६ वोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६२, वि० सं० २०२२ 5 फरी सन् १९६६ अर्हत-स्तवन रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहात्, अस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधढेषोऽपि संभाव्यते। तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जातः क्षयः कर्मणामानन्दादिगुरणाश्रयस्तु नियतं सोऽहंन्सदा पातु वः ॥१॥ -मुनि पचनन्दि अर्थ-जिस परहंत परमेष्ठी के परिग्रह पी राग पिशाच से रहित हो जाने के कारण किसी भी इन्द्रिय विषय में राग नहीं है, त्रिशूल प्रादि प्रायुधों में रहित होने के कारण उक्त प्ररहन परमेष्ठी के विद्वानों के द्वारा द्वेष की भी संभावना नहीं की जा सकती है । इसीलिए राग-द्वेष से रहित हो जाने के कारण उनके ममता भाव पाविर्भूत हुया है, और इस समताभाव के प्रकट हो जाने में उनके आत्मावबोध हा । उस प्रान्मावबोध से उनके कर्मों का वियोग हुआ है । प्रतएव कमों के क्षय से जी अर्हन् परमेष्ठी अनन्त सुख प्रादि गुणों के प्राथय को प्राप्त हुए हैं। वे अर्हत् परमेष्ठी सदा प्राप लोगों की रक्षा करे ॥१॥

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