Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 220
________________ मध्यकालीन न हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति संसार से । भक्त जन दोनों के लिए याचना करते रहे हैं । जिनेन्द्र की मनुकम्पा से उन्हें दोनों की प्राप्ति भी हुई है। इस दिशा में जैन मंत्रों का महत्वपूर्ण योग रहा है। जैनों का प्राचीन मंत्र 'मो परिहन्ता' मन्त्र है। इसमें पच परमेष्ठी को नमस्कार किया गया है। पूरा मंत्र है " णमो अरिहन्ताणं, णमो सिद्धाण, णमो मायरियाणं, णमो उबज्झायाणं, मावा, णमो लोएसभ्वसाहूणं ।" इसका अर्थ है-महंतों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, प्राचार्योको नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक के सर्व माधुओं को नमस्कार हो। जैन माचायों ने इस मन्त्र मे पूर्व शक्ति स्वीकार की है । भद्रबाहु स्वामी ने अपने 'उवसग्गहर स्तोत्र' में लिखा है, "तुह सम्मत्तं लद्धं चितामणिकप्प पायमहिए। पावति विषेणं जीवा अजरामर ठाण ॥" इसका तात्पर्य है कि पचनमस्कार मन्त्र से चिंतामणि और कल्पवृक्ष से भी अधिक महत्वशाली सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, जिसके कारण जीव को मोक्ष मिलता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द का विश्वास है, "अरुडा, सिद्धायरिया उसापा साहु पंचपरमेट्ठि । एदे पंचणमोयारा भवे भवे मम मुह दिंतुर ॥" अर्थात् ग्रहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु मुझे भव भव में सुख देवे प्राचार्य पूज्यपाद का कथन है कि यह 'पंच नमस्कार' का मन्त्र सब पापो को नष्ट करनेवाला है और जीवों का कल्याण करने में सबसे ऊपर है। मुनि वादिराज ने 'एकीभाव स्तोत्र' में निखा है, "जब पापाचारी कुत्ता भी नमोकार मन्त्र को मुनकर देव हो गया, तब यह निश्चित है कि उस मन्त्र का जाप करने से यह जीव इन्द्र की लक्ष्मी को पा सकता है ४ ।" ५. 1 कः संदेहो यदुपलभते वासव श्री प्रभुस्य जपजाप्यैर्मणिभिरमलत्वन्नमस्कारचक्र ॥ " एकीभावस्तोत्र, काव्यमाला सप्तमगुच्छक, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई १२ लोक, पृ० १६ । "एतमेव महान्य समाराध्येह योगिनः । त्रिलोक्याऽपि महीयतेऽधिगताः परम पदम् ।। कृत्वा पापमहम्याणि हत्वा जन्तु शतानि च । श्रम मन्त्र समाराध्य तियं त्रोऽपि दिवं गता. ॥" जिन प्रभरि 'पंचपरमेष्ठिनमस्कारकल्प', विविधतीर्थक, मुनि जिन विजयादित शान्तिनिकेतन, १९३४ ई० प्रथम भाग, ५-६ लोक, पृ० १०८ । "स्तम्भ दुगमन प्रति प्रयनतो मोहस्य सम्मोहन, पायान्यचनमस्क्रियाक्षरमयी मागधना देवता ॥" धर्मध्यानदीपक, मागीलाल हुकुमचन्द्र पाण्डया संपादित, कलकत्ता, 'नमस्कारमन्त्र' तीसरा इलोक १०२ । 7. “The original doctrine was contained in the fourteen Purvas "old texta", which Mahavira himself had taught to his Ganadharaa." Dr. Jagdish Chandra Jain, Life in ancient India as depicted in the Jain canons, New Book Company Ltd., Bombay, 1917, P. 32. ६. १. जनस्तोत्रसन्दोह भाग २ मुनि चतुरविजय सम्पादन, अहमदाबाद [वि० सं० १९९२ उपसगाहर स्तोष, चौथी गाथा, पृ० ११ । २. 'पचगुरुभक्ति', 'दशभक्तिः, शोलापुर, १६२१ ई० सातवी गाथा, पृ० ३५८ ३. "एष पंचनमस्कारः सर्वपाप प्रणाशनः । मंगलानां च सर्वेषां प्रथमं मंगलं भवेत् ॥" देखिए वही सात लोक, पृ० ३५३ । . ४. 'प्रापद्देवं तव नुतिपर्द र्जीव केनोपदिष्टः १९७ पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यं । श्री जिनप्रभसूरि ने 'विविध तीर्थकल्प' के 'पंच-परमेष्ठि नमस्कार कल्प' में स्वीकार किया है, "इस मन्त्र की प्राराधना करनेवाले योगीजन, त्रिलोक के उत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं । यहाँ तक ही नहीं, किन्तु सहस्रों पापों का सम्पादन करनेवाले तिर्यञ्च भी इस मन्त्र की भक्ति से स्वर्ग में पहुँच जाते हैं५ ।" जैनाचार्यों ने 'णमोकार मंत्र' की शक्ति को देवता कहा है। उसमें माध्यात्मिक माथि भौतिक भौद प्राधिदैविक तीनों ही प्रकार की शक्तियाँ सन्निहित है वह मोहके दुर्गमन को रोकने में पूर्ण रूप से समर्थ है। जैन परम्परा में यह मन्त्र धनादि निधन माना जाता है । वैसे भगवान महावीर से पहले 'चौदह पूर्वो का अध्ययन अध्यापन प्रचलित था । भगवान ने अपने गणधरों को इनकी विद्या प्रदान की थी। उनमें ।

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