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यशस्तिलक में वर्णित वर्ण व्यवस्था और समाज गठन
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१२-दिवाकीति (४०३, ४३१) : नाई या चाण्डाल । नव उपकरणों के नाम यशस्तिलक में पाए है ।५५
सोमदेव ने लिखा है कि दिवाकीति को सेनापति बना१. लगुड-लाठी या डण्डा । देने के कारण कलिंग में अनंग नामक राजा माग गया २. गल-मछलो मारने का लोहे का कांटा । था४६ | मनुस्मृति में चाण्डाल अथवा नीच जाति के लिए
३. जाल-मछली पकड़ने का जाल । दिवाकीर्ति शब्द पाया है५०। नैषधकार ने नाई के अर्थ
४. तरी-नाव। में इसका प्रयोय किया है५१ । यशस्तिलक के सम्कृत
५. तपं-घास का बना घोड़ा। टीकाकार श्रुतदेव ने भी दिवाकोति का अर्थ नाई तथा
६. तुवरतरंग-तूबी पर बनाया गया फलक या चाण्डाल दोनों किये है५२ । नाई के लिए नापित शब्द भी
पटिया। प्राता है । (२४५ उत्त०)
७. तरण्ड-फलक या तैरने वाला पटिया।
८. वेडिका-छोटी नाव या डोंगी। १३-मास्तरक (४०३) : शय्यापालक ।
६. उडुप-परिहार नौका । १४-संवाहक (४०३)-र दबाने वाला।
१६-चर्मकार (१२५) : चमार या चमड़े का व्यापार दिवाकीति, पास्तरक और संवाहक ये तीनों अलग करने वाला। अलग राज परिचारक होते थे। सोमदेव ने तीनों का एक चर्मकार के साथ उसके एक उपकरण दृति का भी ही प्रसंग में उल्लेख किया है। सम्भवतया दिवाकीति का उल्लेल है५६ । दति का अर्थ श्रुतदेव ने चर्मप्रसेविका मुख्य कार्य बाल बनाना, पास्तरक का मुख्य कार्य बिस्तर, किया है५७ । दृति का मर्थ प्राय. चमडे का पानी भरने गद्दो आदि ठीक करना तथा संवाहक का मुख्य कार्य पैर वाला थैला या मसक किया जाता है५८ । लगता है दृति दबाना, तेल मालिश करना आदि होता था। कौटिल्य ने कच्चे चमड़े को पकाने के लिए थैला बनाकर तथा उसमे प्रास्तरक तथा सवाहक दोनों का उल्लेख किया है ५३ । पानी और अन्य पकाने वाली सामग्री भरकर टांगे गये धनवान् परिवारों में भी ये परिचारक रखे जाते होगे। चमड़े को कहते थे। इसमें से टपटप पानी झरता रहता चारुदत्त के सवाहक ने अपने स्वामी के धनहीन हो जाने है। देहातों में चमड़ा पकाने की यही प्रक्रिया है । सोमदेव पर स्वयमेव काम छोड़ दिया था ।५४
के उल्लेख से भी लगभग इसी स्वरूप का बोध होता १५-धीवर-(२१६, ३३५ उत्त०) मछली पकड़ने है५६ । मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क स्मृति के उल्लेग्वों से भी वाले।
इसका समर्थन होता ।६० धीवर के लिए कैवतं शब्द (२१६, उत्त०) भी पाया १७-नट या शलष (२२८, उत्त०, २६१) है। इनका मुख्य धन्धा मछली पकड़ना था। कैवतों के
___इसका मुख्य पेशा तरह-तरह के चित्ताकर्षक वेप ४६. कलिंगेष्वनंगो नाम दिवाकीत सेनाधिपत्येन-वधमपाप, ५५. कैवर्ताः-लगुडगलजालव्यग्रपाणयस्तरीतुवरतरंग
०४३१ तरण्डवेडिकोड्डपमंपन्नपरिकगः, पृ० २१६, उत्त. ५०. मनुस्मति २८५
५६. चर्मकारदृतिद्युतिम् पृ० १२५ । ५१. दिनमिवदिवाकोतिस्तीक्षे.क्षरे सवितु.करे:, नपध, ५७. दृतिश्चमप्रसेविकः, वही, स.टी.
१९५५ ८८. प्राप्टे-सस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी । ५२. दिवाकीत पितस्य, पृ० ४३१, सं० टी० ५६. यो कशोऽभूत्पुरा मध्यो वलित्रयविगजित.
दिवाकीनि नापितस्य चाण्डालस्य वा, ४०३, मं टी. सोऽद्य द्रवद्रसो पत्ते चर्मकारदृतिद्युतिम् पृ० १२५ ५३. अर्थशास्त्र भाग १, अध्याय १२।।
६०. इद्रियाणां तु सर्वेषां योकं क्षरतिन्द्रियम् । ५४. संवाहक :-चालित्ताव शेशे च तस्सि जदोवजीवी तेनास्य क्षरति प्रज्ञा दृतेपादादिवेदकम् ॥ मनुस्मृति म्हि शंवुत्ते । -मृच्छकटिक, अंक २
NEE, याज्ञवल्क ३२६