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मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति
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में सदैव जलन होती है, चाहे वह ईश्वर के प्रति हो रसाः"२ पर्थात् अन्तरात्मा की अनुभूति को रस कहते प्रथवा संसार के, क्योंकि दोनों में महदन्तर है। सासारिक हैं। सिद्धावस्था में अन्तरात्मा अनुभूत से ऊपर उठ कर अनुरक्ति दुःव की प्रतीक है और ईश्वगनुरक्ति दिव्य प्रानन्द का पूज ही हो जाती है, मतः अनुभति की पावसुख को जन्म देती है। पहली मे जलन है, तो दूसरी में श्यकता ही नहीं रहती। जैनाचार्य वाग्भट्ट ने अपने शीतलता, पहली मे अपावनता है, तो दूसरी में पवित्रता 'वाग्भट्रालंकार' में रस का निरूपण करते हुए लिखा है,
और पहली में पुनः पुनः भ्रमण की बात है, तो दूसरी में "विभावग्नुभावश्च, सात्त्विकर्व्यभिचारिमिः । पारोप्यमाण मुक्त हो जाने की भूमिका।
उत्कर्ष स्थायीभाव. स्मतो रसः"३ अर्थात् विभाव, अनुभाव, जैनाचार्य शान्ति के परम समर्थक थे। उन्होंने एक सात्त्विक और व्यभिचारियों के द्वारा उत्कर्ष को प्राप्त मत से, गग-पों से विमुख होकर वीतरागी पथ पर हा स्थायी भाव ही रस कहलाता है। सिद्धावस्था में बढने को ही शान्ति कहा है। उसे प्राप्त करने के दो विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी प्रादि भावो के प्रभाव उपाय है-तत्त्व-चिन्तन और वीतरागियों की भक्ति में रस नहीं बन पाता। वीनराग में किया गया अनुराग साधारण राग की कोटि जैन प्राचार्यों ने भी अन्य साहित्य-शास्त्रियों की भांति में नहीं आता। जनों ने शान्तभाव की चार अवस्थाएं ही 'शन' को शन्त रम का स्थायीजाव माना है। प्रा० स्वीकार की है-प्रथम अवस्था वह है जब मन की प्रवृत्ति, प्रजिनमेन ने 'प्रनकार चिन्तामणि' में 'शम' को विशद दुम्बरूपान्तक ममार मे हट कर आत्म-शोधन की ओर
करने हए लिखा है, "विगगत्वादिना निर्विकार मनस्त्वं मुड़ती है। यह व्यापक और महत्त्वपूर्ण दशा है। दूसरी
शम", अर्थात विरक्ति मादि के द्वारा मन का निर्विकारी अवस्था में उम प्रमाद का परिष्कार किया जाता है, जिसके
होना गम है४ । यद्यपि प्राचार्य मम्मट ने 'निर' को कारण मंमार के दुख-मय मताते है तीसरी अवस्था वह शान्तरम' का स्थायीभाव माना है, किन्तु उन्होंने "तत्त्वहै जबकि विषय-वामनामों का पूर्ण प्रभाव होने पर निर्मल
ज्ञान जन्यनिवेदस्यैव शमरूपत्वात्" लिखकर निर्वेद को प्रात्मा नी अनुभूति होती है। चौथी अवस्था के बल ज्ञान
शम रूप ही स्वीकार किया है५ । प्राचार्य विश्वनाथ ने क उत्पन्न होने पर पूर्ण प्रात्मानुभूति को कहते है। ये
भूत का कहत है। 4 'शम' और 'निर्वेद' में भिन्नता मानी है और उन्होंने पहले चारो अवस्थाये प्राचार्य विश्वनाथ के द्वारा कही गई युक्त, की स्थायी भाव में तथा दूसरे की संचारी भाव मे गणना वियुक्त और युक्त-वियुक्त दशानों के समान मानी जा
को है। जैनाचार्यों ने वैगग्योत्पत्ति के दो कारण माने सकती है। इनमें स्थित 'शम' भाव ही रसता को प्राप्त
है-तत्त्वज्ञान, इष्ट वियोग-अनिष्ट सयोग । इसमे पहले होता है।
से उत्पन्न हया वैगम्य स्थायीभाव है और दूसरा सचारी। जनाचार्यों ने 'मुक्ति दशा' में 'रसता' को कार
इस भाँति उनका अभिमत भी प्राचार्य मम्मट से मिलतानही किया है, यद्यपि बहां विगजित पूर्ण शान्ति को माना
जुलता है। इसके माथ-साथ उन्होंने मम्मट तथा विश्वनाथ है। अर्थात् सर्वज्ञ या ग्रहन्त जब तक हम गंमार में है, तभी तक उनकी 'शानि' शान्नग्म कहलाती है, मिद्ध या २. अमिधान राजेन्द्रकोश, 'रस' शब्द । मक्त होने पर नहीं। अभिधान राजेन्द्र कोश में रम की ३. देग्विा प्राचार्य वाग्भटकृत वाग्भटानकार । परिभाषा लिखी है, "रस्यन्तेऽन्तरात्मानुभूयन्ते इति ४. अजितगेनाचार्य, अलंकार चिन्तामणि । १. युक्त वियुक्तदशायामवस्थितो यः शमः स एव यनः। ५. प्राचार्य मम्मट, काव्यप्रकाश चौखम्बा संस्कृतमाला,
रमतामेति तदस्मिन्सचार्यादे. स्थिातच न विरुद्धा। सख्या ५६, १९२७ ई०, चनुथं उल्लास, पृ० १६४ । प्राचार्य विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, शालिग्राम शास्त्री ६. प्राचार्य विश्वनाथ साहित्यदर्पण, शालिग्राम शास्त्री की हिन्दी व्याख्या सहित, लखनऊ, द्वितीयावृत्ति, की व्याख्या सहित, लखनऊ, ३३२४५-२४६, वि० सं० १६६१, ३१२५०, पृ० १६८ ।