Book Title: Anekant 1948 07 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jugalkishor Mukhtar View full book textPage 6
________________ २४८ एकान्तसे करता है, अन्यथा नहीं— क्योंकि वह यथोपाधि - विशेषणानुसार — विशेषका - धर्म -भेद अथवा धर्मान्तरका — योतक होता है, जिसका वस्तुमें सद्भाव पाया जाता है। अनेकान्त '(यहाँपर किसीको यह शङ्का नहीं करनी चाहिये कि जीवादि तत्त्व भी तब प्रधान तथा गौणरूप एकान्त को प्राप्त होजाता है; क्योंकि) तत्त्व तो अनेकान्त है'अनेकान्तात्मक है - और वह अनेकान्त भी अनेकान्त रूप है, एकान्तरूप नहीं; एकान्त तो उसे. नयकी अपेक्षा कहा जाता है-, प्रमाणकी अपेक्षा से नहीं; क्योंकि प्रमाण सकलरूप होता है - विकलरूप नहीं, विकलरूप तत्त्वका एकदेश कहलाता है, जो कि नयका विषय है और इसीसे सकलरूप तत्त्व प्रमाणका विषय है । कहा भी है- 'सकलादेशः प्रमाणाधीन: विकलादेशो नयाधीनः ।' 'और वह तत्त्व दो प्रकारसे व्यवस्थित है— एक भवार्थवान् होनेसे—द्रव्यरूप, जिसे सद्द्रव्य तथा विधि भी कहते हैं; और दूसरा व्यवहारवान् होनेसेपर्यायरूप, जिसे असद्द्रव्य, गुण तथा प्रतिषेध भी कहते हैं । इनसे भिन्न उसका दूसरा कोई प्रकार नहीं है, जो कुछ है वह सब इन्हीं दो भेदोंके अन्तर्भूत है ।' न द्रव्य - पर्याय - पृथग्-व्यवस्था यात्म्यमेकाऽर्पणया विरुद्धम् । धर्मी च धर्मश्च मिथस्त्रिधेमौ न सर्वथा तेऽभिमतौ विरुद्धौ ॥४७॥ 'सर्वथा द्रव्यकी (द्रव्यमेव' इस द्रव्यमात्रात्मक एकान्तकी) कोई व्यवस्था नहीं बनती – क्योंकि सम्पूर्ण पर्यायोंसे रहित द्रव्यमात्रतत्त्व प्रमाणका विषय नहीं है - प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे वह सिद्ध नहीं थवा जाना नहीं जासकता; न सर्वथा पर्यायकी ( पर्यायएव – एक मात्र पर्याय ही — इस एकान्त सिद्धान्त की कोई व्यवस्था बनती है- क्योंकि द्रव्यकी एकान्तकी तरह द्रव्यसे रहित पर्यायमात्रतत्त्व भी किसी प्रमाणका विषय नहीं है; और न सर्वथा पृथग्भूत—– परस्परनिरपेक्ष - द्रव्य - पर्याय (दोनों) की Jain Education International [ वर्ष ही कोई व्यवस्था बनती है— क्योंकि उसमें भी प्रमा णाभावकी दृष्टिसे कोई विशेष नहीं है, वह भी सकलप्रमाणोंके अगोचर है ।' ' (द्रव्यमात्रकी, पर्यायमात्रकी तथा पृथग्भूत द्रव्यपर्यायमात्रकी व्यवस्था न बन सकनेसे ) यदि सर्वथा द्वात्मक एक तत्त्व माना जाय तो यह सर्वथा द्वैयात्म्य एककी अर्पणा के साथ विरुद्ध पड़ता है - सर्वथा एकत्वंके साथ द्वयात्मकता बनती ही नहीं— क्योंकि जो द्रव्यकी प्रतीतिका हेतु है और जो पर्यायकी प्रतीतिका निमित्त है वे दोनों यदि परस्परमें भिन्नात्मा है, तो कैसे तदात्मक एक तत्त्व व्यवस्थित होता है ? नहीं होता; क्योंकि अभिन्ना भिन्नात्माओंके साथ एकत्वका विरोध है । जब वे दोनों आत्माएँ एक अभिन्न हैं तब भी एक ही अवस्थित होता है, क्योंकि सर्वथा एकसे अभिन्न उन दोनोंके एकत्वकी सिद्धि होती है, न द्वैयात्म्य (द्वयात्मकता) की, जो कि एकत्वके विरुद्ध है। कौन ऐसा अमूढ (समझदार) है जो प्रमाणको अङ्गीकार करता हुआ सर्वथा एक वस्तुके दो भिन्न आत्माओं की अर्पणा - विवक्षा करे ? - मूढके सिवाय दूसरा कोई भी नहीं कर सकता । अतः द्वयात्मक तत्त्व सर्वथा एकार्पण के — एक तत्त्वकी मान्यताके-साथ विरुद्ध ही है, ऐसा मानना चाहिये ।' (तब विरुद्ध तत्त्व कैसे सिद्ध होवे ? इसका समाधान करते हुए आचार्य महोदय बतलाते हैं--) ( किन्तु हे वीर जिन !) आपके मत में — स्याद्वाद - शासनमें-- ये धर्मी (द्रव्य) और धर्म (पर्याय) दोनों असर्वथारूपसे तीन प्रकार - भिन्न, अभिन्न तथा भिन्नाऽभिन्न- माने गये हैं और (इसलिये सर्वथा विरुद्ध नहीं हैं । —क्योंकि सर्वथारूपसे तीन प्रकार माने जानेपर भी ये प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरुद्ध ठहरते हैं और विरुद्धरूपमें आपको अभिमत नहीं हैं । अतः स्यात्पदात्मक वाक्य न तो धर्ममात्रका प्रतिपादन करता है न धर्मीमात्रका, न धर्म-धर्मी दोनोंको सर्वथा अभिन्न प्रतिपादन करता है, न सर्वथा भिन्न और न सर्वथा भिन्नाऽभिन्न । क्योंकि ये सब प्रतीतिके विरुद्ध हैं । और इससे द्रव्य एकान्तकी, पर्याय-एकान्तकी तथा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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