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किरण ७ ]
कि जितने कार्य होते हैं वे सब चेतनाधिष्ठित ही होते हैं. इस लिये ईश्वर सबका साधारण कारण है ।
कर्म और उसका कार्य
इसपर यह प्रश्न होता है कि जब सबका कर्ता ईश्वर है तब फिर उसने सबको एक-सा क्यों नहीं बनाया ? वह सबको एक-से सुख एक-से भोग और एक-सी बुद्धि दे सकता था । स्वर्ग- मोक्षका अधिकारी भी सबको एक-सा बना सकता था । दुखी, दरिद्र और निकृष्ट योनिवाले प्राणियोंकी उसे रचना ही नहीं करनी थी । उसने ऐसा क्यों नहीं किया ? जगतमें तो विषमता ही विषमता दिखलाई देती है । इसका अनुभव सभीको होता है क्या जीवधारी और क्या जड जितने भी पदार्थ हैं उन सबकी आकृति, स्वभाव और जाति जुदा-जुदी है। एकका मेल दूसरेसे नहीं खाता । मनुष्य को ही लीजिये । एक मनुष्यसे दूसरे मनुष्यमें बड़ा अन्तर है । एक सुखी है तो दूसरा दुखी । एकके पास सम्पत्तिका विपुल भण्डार है तो दूसरा दाने-दानेका भटकता फिरता है। एक सातिशय बुद्धिवाला है तो दूसरा निरा मूर्ख । मात्स्यन्यायका तो सर्वत्र ही बोल - बाला है। बड़ी मछली छोटी मछलीको निगल जाना "चाहती है । यह भेद यहीं तक सीमित नहीं है, धम और धर्मायतनोंमें भी इस भेदने अड्डा जमा लिया है। यदि ईश्वरने मनुष्यको बनाया है और वह मन्दिरोंमें बैठा है तो उस तक उसके सब पुत्रोंको क्यों नहीं जाने दिया जाता है। क्या उन दलालोंका, जो दूसरेको मन्दिर में जानेसे रोकते हैं, उसीने निर्माण किया है ? ऐसा क्यों है ? जब ईश्वरने ही इस जगतको बनाया है और वह करुणामय तथा सर्व शक्तिमान् है तब फिर उसने जगतकी ऐसी विषम रचना क्यों की? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर नैयायिकोंने कर्मको स्वीकार करके दिया है। वे जगतकी इस विषमताका कारण कर्म मानते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर जगतका कर्ता है तो सही पर उसने इसकी रचना प्राणियों के कर्मानुसार की है। इसमें उसका रत्तीभर मी दोष नहीं है। जीव जैसा कर्म करता है उसीके अनुसार उसे योनि और भोग मिलते हैं । यदि अच्छे धर्म करता है तो अच्छी योनि और अच्छे भोग
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मिलते हैं और बुरे कर्म करता है तो बुरी योनि और बुरे भोग मिलते हैं । इसीसे कविवर तुलसीदासजीने अपने रामचरितमानसमें कहा है
करम प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥
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• इसके पूर्वार्ध द्वारा ईश्वरवादका समर्थन करनेपर जो प्रश्न उठ खड़ा होता है, तुलसीदासजी ने उस प्रश्नका इस छन्दके उत्तरार्ध द्वारा समर्थन करनेar प्रयत्न किया है ।
नैयायिक जन्यमात्रके प्रति कर्मको साधारण कारण मानते हैं । उनके मतमें जीवात्मा व्यापक है इस लिये जहाँ भी उसके उपभोगके योग्य कार्यकी सृष्टि होती है वहाँ उसके कर्मका संयोग होकर ही वैसा होता है । अमेरिकामें बनने वाली जिन मोटरों तथा उनके उपभोक्ताओंके कर्मानुसार ही निर्मित होते हैं। अन्य पदार्थों का भारतीयों द्वारा उपभोग होता है वे इसीसे वे अपने उपभोक्ताओं के पास खिंचे चले आते
। उपभोग योग्य वस्तुओं का विभागीकरण इसी हिसाबसे होता है। जिसके पास विपुल सम्पत्ति है अपने कर्मानुसार है। कर्म बटवारेमें कभी भी पक्ष - वह उसके कर्मानुसार है और जो निर्धन है वह भी स्वामी और सेवकका भेद मानवकृत नहीं है । अपनेपात नहीं होने देता । गरीब और अमीरका भेद तथा अपने कर्मानुसार हो ये भेद होते हैं।
जो जन्मसे ब्राह्मण है वह ब्राह्मण ही बना रहता है और जो शूद्र है वह शूद्र ही बना रहता है। उसके कर्म ही ऐसे हैं जिससे जो जाति प्राप्त होती है जीवन भर वही बनी रहती है ।
कर्मवाद स्वीकार करने में यह नैयायिकोंकी युक्ति है । वैशेषिकोंकी युक्ति भी इससे मिलती जुलती है । वे भी नैयायिकोंके समान चेतन और अचेतनत सब प्रकारकी विषमताका साधारण कारण कर्म मानते हैं । यद्यपि इन्होंने प्रारम्भ में ईश्वरवादपर जोर नहीं दिया पर परवर्तीकालमें इन्होंने भी उसका अस्तित्व स्वीकार कर लिया है ।
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