Book Title: Anekant 1948 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 37
________________ किरण ७ ] भाषण विरोधियों द्वारा निन्दित न होती। और वे स्वयं इनके स्थानमें अधिकारी बननेकी चेष्टा न करते ? आज यह परिग्रह-पिशाच न होता तो हम उच्च हैं. आप नीच हैं, यह भेद न होता । यह पिशाच तो यहाँ तक अपना प्रभाव प्राणियोंपर ग़ालिब किये है जो सम्प्रदायवादों धर्म को निजी मान लिया है। और उस धर्मकी सोमा बाँध दी है । तत्व-दृष्टिसे धर्म तो आत्माकी पर - गतिविशेषका नाम है, उसे हमारा धर्म है यह कहना क्या न्याय है ? जो धर्म चतुर्गतिके प्राणियों में विकसित होता है उसे इने-गिने मनुष्यों में मानना क्या न्याय है ? परिग्रह-पिशाचकी यह महिमा है जो इस कूपका जल तीन वर्णोंके लिये है, इसमें यदि शूद्रोंके घड़े पड़ गये तब पेय होगया ! टट्टी में होकर नल आजानेसे जल पेय बना रहता है ! अस्तु, इस परिग्रह पापसे ही संसारके सर्व पाप होते हैं। श्रीवीर प्रभुने तिल-तुषमात्र परिग्रह न रखके पूर्ण अहिंसा - व्रतकी रक्षा कर प्राणियोंको बता दिया कि यदि कल्याण करनेकी अभिलाषा है तब दैगम्बर-पदको अङ्गीकार करो । यही उपाय संसार-बन्धनसे छूटनेका है । यदि संसारमें सुख-शान्तिका साम्राज्य चाहते हो तब मेरे स्मरणसे सुख-शान्ति न होगी, और न स्वयं तुम सुखी होगे; किन्तु जैसे मैंने कार्य किये हैं वही करो । जैसे मैंने बाल्यावस्थासे ही ब्रह्मचर्य व्रत पाला वैसे ही तुम भी पालन करो तुम लोगोंको उचित है कि यदि मेरे अन्तरङ्गसे भक्त और अनुरागी हो तो मेरा अनुकरण करो । यदि उस ब्रह्मचर्यव्रत के पालने में असमर्थ हो तब बाल्यावस्था व्यतीत होनेपर जैसा गृहस्थधर्ममें इसका विधान है उस रीति से इसे पालन करो । अनन्तर जब युवावस्था व्यतीत होजावे तब परिग्रहको त्याग अपरिग्रही बननेकी चेष्टा करो, इसी कीचड़ में मत फँसे रहो । द्रव्यको न्यायपूर्वक अर्जन करो, अन्यायसे मत उपार्जन करो, मर्यादाको त्याग स्वेच्छाचारी मत बनो, दान करते समय विवेकको मत खो दो, मन्दिर बनाओ, पञ्चकल्याणक उत्सव करो, निषेध नहीं, परन्तु जहाँपर इनकी आवश्यकता है। वीरशासनके प्रचारार्थ प्राचीन साहित्यके उद्धार Jain Education International की महती आवश्यकता है। उस ओर समाजकी दृष्टि नहीं । पूजन तो देव - शास्त्र-गुरु तीनोंकी करते हो परन्तु शास्त्रोंकी रक्षाका कोई उपाय नहीं । सहस्रों शास्त्र जीर्ण-शीर्ण होगये और होरहे हैं, इसकी ओर समाजका लक्ष्य नहीं । मेरी समझमें एक पुरानी संस्था (वीर - सेवा - मन्दिर) मुख्तार साहबकी है । परन्तु द्रव्यकी त्रुटि के कारण आज कोई महान ग्रन्थका प्रकाशन मुख्तार साहब न कर सके । न्यायदीपिका, अनित्यपञ्चाशत् समाधिशतक आदि छोटे-छोटे ग्रन्थ प्रकाशमें ला सके । समाजको उचित है जो इस संस्था को अजर-अमर करदे । होना तो असम्भव है क्योंकि हम लोगों को उसका स्वाद नहीं आया । अगर स्वाद आया होता, तब, एक आदमी इसे पूर्ण कर देता । कलकत्तामें सुनते हैं इसके उद्धारके लिये चार लाख रुपया हुआ था, परन्तु उसका कुछ भी सदुपयोग नहीं हुआ । उस कमेटी के प्रमुख श्री बाबू छोटेलालजीको इस ओर अवश्य ही ध्यान देना चाहिये और इस पुनीत कार्यको शीघ्र ही प्रारम्भ करना चाहिए। मेरा तो स्वयं मुख्तार साहबसे यह कहना है जो आपके पास हैं उसे अपनी अवस्थामें व्यय कर अपने द्वारा सम्पादित लक्षणावली आदि जो ग्रन्थ हैं, प्रकाशित कर जाइये । परलोक बाद क्या आप देखने आयेंगे कि हमारी संस्थामें क्या होरहा है ? इस अवस्थासे मुक्ति तो होना नहीं, स्वर्गवासी देव होगे, सो वे इस काल में श्रते नहीं । समाज में गुणग्राही पुरुषोंकी विरलता है । सम्भव है वे इसपर दृष्टिपात करें । महावीर स्वामीका तो यही आदेश है कि प्रभावना करो । आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥ २७६ अथवा For Personal & Private Use Only अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । निजशासन महात्म्यप्रकाशः स्यात् प्रभावना ॥ केवल बैड बाजे बजानेसे प्रभावना नहीं होती । दूसरे, समाजके सामने पुरातत्त्वकी खोज कर मनुष्योंके हृदयों में धर्मकी प्रभावना जमा देना उत्तम कार्य है । www.jainelibrary.org

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