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श्रीवीर - शासन - जयन्ती - महोत्सव के अध्यक्ष श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्यका
पूज्य
भाषणा
महानुभाव ! क्षुल्लकजी और ब्रह्मचारीगण, जैन-धर्ममर्मज्ञ विद्वद्वर पण्डितगण, जैनधर्म- इतिहासवेत्ता मुख्तारसाहब, उपस्थित समस्त सज्जनवृन्द एवं महिला समाज,
प्याज
'मैं श्रीवीरशासनजयन्ती - महोत्सवका सभा पति चुना गया हूँ यह सर्वथा अनुचित है क्योंकि वीरशासनं-जयन्ती उत्सवका भार वही वहन कर सकता है जो ज्ञानवान होकर वीतराग हो। जो वीतराग नहीं वह साक्षात् मोक्ष मार्गका साधन नहीं दिखा सकता। जो आंशिक वीतराग हो और पदार्थके प्रदर्शन करनेमें अक्षम हो वह भी उनके शासनको दिखाने में समर्थ नहीं हो सकता । अतः इस पदके योग्य यहां कौन है, मेरी बुद्धिमें नहीं आता । परन्तु एक बल हमें है और संभव है उससे इस. भारका कुछ दिग्दर्शन कराने में, मैं समर्थ हो सकूँ ऐसी संभावना है। प्रत्यक्ष देखता हूं जो वीरके नाम संस्कार से संगमरमर की मूर्तिकी अर्चा M होरही है तथा वीरके नामसे राजग्रहका विपुलाचल पर्वत लाखों मनुष्यों द्वारा पूजा जारहा है । वीरप्रभुने ariपर तपस्या ही तो की थी ? वीरप्रभुका जिस स्थान परनिर्वाण हुआ वह क्षेत्र आजतक पूजित हो रहा है । वीर चरित्र जिस पुस्तकमें लिखा जाता है वह पुस्तक भी उदक- चंदनादि असे अर्चित होती है। मैंने भी उस वीर प्रभुको अपने हृदयारविन्दमें स्थापित कर रखा है । अतः मुझसे यदि आजका कार्य निर्वाह होजावे तब इसमें आश्चर्य की कौनसी बात है ? आज - के दिन मुझे श्रीमहावीर भगवान के शासनको दिखाना है | जिसके द्वारा हितकी बात दिखाई जावे और अहित का निवारण किया जावे उसीका नाम शासन है । श्री गुणभद्रस्वामीने आत्मानुशासनमें लिखा है:
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दुःखाद्विभेषि नितरामभिवांछसि सुखमतोप्यहमात्मन् । दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥
आत्मन् ! तू दुखसे भय करता है और सुखकी कक्षा करता है, अतः मैं तुझे जो अभिमत है अर्थात् जो दुःखको हरण करने वाली और सुखको करने वाली शिक्षा है उसीको कहूँगा । कहनेका तात्पर्यं यह है कि शिक्षा वही है जो सुखको देवे और दुःखका विनाश करे । भाषामें कविवर श्री दौलतरामजीने भी लिखा है
जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त सुख चाहें दुःख तें भयवन्त । तातें दुःखहारि सुखकार कहें सीख गुरु करुणा धार ॥
अर्थात् इस दुःखमय संसार में जिस उपदेशके द्वारा यह आत्मा दुःखसे छूट जावे और निराकुलतारूप सुखको प्राप्त कर लेवे वही उपदेश जीवका हितकर है। श्रीवीरप्रभुने पहले तो आत्मीय प्रवृति द्वारा बिना ही शब्दोच्चारण के वह शिक्षा दी जिसे यदि यह जीव पालन करे तो अनायास अलौकिक सुखका पात्र हो सकता है । श्रीवीरप्रभुने बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्य - व्रतको स्वीकार किया था और दार - परिग्रह से सर्वथा मुक्त रहे थे ।
संसार-वृद्धिका मूल कारण स्त्रीका समागम है । स्त्री-समागम होते ही पाँचों इन्द्रियोंके विषय स्वयमेवं पुष्ट होने लगते । प्रथम तो उसके रूपको देखकर निरन्तर देखनेकी अभिलाषा रहती है, वह सुन्दर रूपवाली निरन्तर बनी रहे. इसके लिये अनेक प्रकार के उपटन, तैल आदि पदार्थोंके संग्रहमें व्यस्त रहता है । उसका शरीर पसेव आदिसे दुर्गन्धित न होजाय, अतः 'निरन्तर चन्दन, तैल, इत्र आदि बहुमूल्य वस्तुका संग्रह कर उस पुतलीकी सम्हालमें संलम
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