Book Title: Anekant 1948 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1+ 0 मनकान्त आषाढ़, संवत् २००५:: जुलाई, सन् १९४८ वर्ष8 किरण ७ प्रधान सम्पादक जुगलकिशोर मुख्तार दो प्रश्न अन्तर्हित हल-सहित पठन क्योंकर हो ? प्रथम तो 'पठनं कठिनं प्रभो! सुलभ पाठक-पुस्तक जो न हो। हृदय-चिन्तित, देह सरोग हो, पठन क्योंकर हो तुम ही कहो ? क्यों न निराश हो ? प्रबल धैर्य नहीं जिस पास हो, हृदयमें न विवेक-निवास हो । न श्रम हो, नहिं शक्ति-विकास हो, नमतमें वह क्यों न निराश हो ? सञ्चालक-व्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशो -ootopoo सह सम्पादक मुनि कान्तिसागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीय संस्थापक-प्रवर्तक वीरसेवामन्दिर, सरसावा -युगवीर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ विषय-सूची लेख नाम १ निष्ठुर कवि और विधाताकी भूल (कविता)-[कवि भूधरदास २ जीरापल्ली-पार्श्वनाथ-स्तोत्र-[सम्पादक ३ समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने (युक्त्यनुशासन)-[सम्पादक ४ स्मरण शक्ति बढ़ानेका अचूक उपाय-वसन्तलाल वर्मा ५ जीवका स्वभाव-[श्रीजुगलकिशोर काराजी ६ कर्म और उसका कार्य-[पं० फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री ..... ७ जैन पुरातन अवशेष (विहङ्गावलोकन)-[स० मुनिकान्तिसागर ८ वैशाली (एक समस्या)-[स० मुनिकान्तिसागर.......... ह दान-विचार-[श्रीक्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी १० मुरारमें वीरशासन-जयन्तीका महत्वपूर्ण उत्सव-[पं० दरबारीलाल ११ भाषण-[श्रीक्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी १२ सम्पादकीय-[अयोध्याप्रसाद गोयलीय : : मुनिकान्तिसागर १३ पाकिस्तानी पत्र-[गुलामहुसैन कसरा मिनहास । २६६ २६६ २७५ २८१ वीरसेवामन्दिरको दस हजारका प्रशंसनीय दान श्रीमान् बाबू नन्दलालजी सरावगी सुपुत्र सेठ ता० २८ जुलाई सन् १९४८ को आप वीरसेवामन्दिरके रामजीवनजी सरावगी कलकत्ताके शुम नामसे अने- दर्शनार्थ सरसावा तशरीफ लाये थे-तीन दिन ठहरे कान्तके पाठक भले प्रकार परिचित हैं। आप कल- थे। वीरसेवामन्दिर और उसकी लायब्रेरीको पहली कत्ताके सुप्रसिद्ध बाबू छोटेलालजी जैनके छोटे भाई ही बार देखकर आपने अपनी बड़ी प्रसन्नता व्यक्त हैं और अच्छे दानशील हैं। आप चुपचाप अनेक की और जब आपके सामने वे ग्रन्थ आए जो वीरमार्गोंसे अनेक प्रकारका दान किया करते हैं। वीर- सेवामन्दिर-द्वारा तय्यार किये गये हैं और प्रकाशनकी सेवामन्दिर और उनके कार्योंके प्रति आपका बड़ा प्रेम बाट जोह रहे हैं तब आपने बड़ी उदारताके साथ है और आप उसे कितनी ही सहायता भेजते तथा उनके शीघ्र प्रकाशनार्थ दस हजार रुपयेकी रकम पुत्र-पत्नी श्रादिकी ओरसे भिजवाते रहे हैं। हालमें प्रदान की। इस उदार और प्रशंसनीय दानके लिये आप वीरशासन-जयन्तीके उत्सवपर अपनी पत्नी आपको जितना भी धन्यवाद दिया जाय वह सब श्रीमती कमलाबाईजी और लघुपुत्र चिरञ्जीव निर्मल- थोड़ा है। इसके लिये यह संस्था आपकी चिरऋणी कुमार-सहित मुरार (ग्वालियर) पधारे थे । वहाँसे रहेगी। मुझे साथ लेकर श्रीमहावीरजोकी यात्रा करते हुए जुगलकिशोर मुख्तार For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षिक मूल्य ५) ANANTENANANADHANENEWANA NAGOT ANANTANANAHOO CONNE वर्ष ९ किरण ७ 555 विश्व तत्त्व-प्रकाशक सुन ॐ अहम का | नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । | परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जिला सहारनपुर आषाढ़ शुक्ल, वीरनिर्वाण - संवत् २४७४, विक्रम संवत् २००५ वस्तु तत्त्व-संघद्योतक 555555555555 5555555555555555 निष्ठुर कवि और विधाताकी मूल ( १ ) राग- उदै जग अंध भयो, सहजै सब लोगन लाज गमाई । सीख बिना नर सीखत हैं, विषयादिक सेवनकी सुघराई ।। तापर और र सूनकी - ( २ ) हे विधि ! भूल भई तुमतें, समुझे न कहां कस्तूरि बनाई ! दीन कुरङ्गके तनमें, तृन दंत धरै करुना नहिं आई !! क्यों न रची तिन जीभनि जे रस-काव्य करें परको साधु - अनुग्रह दुर्जन- दंड, दुहूं सघते विसरी रस- काव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई ! अंखियानमें, डारत हैं रज राम - दुहाई !! For Personal & Private Use Only CJC)C(C(JCC). एक किरणका मूल्य 11) जौलाई १९४८ 66666 दुखदाई ! चतुराई !! — कवि भूधरदास ककककककक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीरापल्ली - पार्श्वनाथ - स्तोत्र [यह वही कानपुरके बड़े मन्दिरसे प्राप्त हुआ स्तोत्र है, जिसकी सूचना अक्तूबर सन् १९४७ की अनेकान्त किरण १२में, 'रावण पार्श्वनाथ स्तोत्र' को देते हुए, की गई थी और जो प्रभाचन्द्र शिष्य पद्मनन्दीकी कृति होनेसे पूर्वानुमान के अनुसार श्राजसे कोई ५५० वर्ष पहलेका बना हुआ होना चाहिये । इस स्तोत्रका सम्बन्ध उन श्रीपार्श्वनाथसे है जो जीरापल्ली स्थित देवालयके मूलनायक थे और जिनके कारण वह स्थान सुशोभित था— अतिशय क्षेत्र बना हुआ था । मालूम नहीं यह जीरापल्ली स्थान कहाँपर है और वहाँपर अब भी उक्त देवालय पूर्ववत् स्थित है या नहीं, इसकी खोज होनी चाहिये । - सम्पादक ] · ( रथोद्धता ) नमस्त्रिदश- मौलि-सन्मणि- स्फार - रश्मि - विकचांहि-पङ्कजम् । पार्श्वनाथमखिलाऽर्थ - सिद्धये तोष्टुवीमि भव-ताप- शान्तये ॥१॥ वाग्मयेन महता महीयसा तावकेन जिननाथ जन्मिनाम् । आन्तरं यदि तमः प्रसृत्वरं नाशमेति तदिदं किमद्भुतम् ||२|| काम - चण्डिम- भिदेलिम प्रभं कः क्षमोऽत्र तव रूपमीडितुम् । वासवोऽपि यदि सेक्षणेच्छया चक्षुषां किल सहस्रतामितः ||३|| दर्शनाद्यदपहंसि कल्मषं केयमीश भवतोऽधिका स्तुतिः । ध्वान्त[ मस्त ]मरुणोदयादिदं याचिचेदिह किमद्भुतं सताम् ||४|| नाथ तत्र भवतः प्रभावतो यो गुणौघ गणनां चिति । पूर्वमब्धि-पयसोऽञ्जलि-व्रजैः स प्रमाणममतिस्तनोत्वलम् ||५|| दुस्तरेऽत्र भव-सागरे सतां कर्म- चण्डिम-भरान्निमज्जताम् । प्रास्फुरीति न कराऽवलम्बने त्वत्परो जिनवरोऽपि भूले ||६|| त्वत्पदाम्बुज-युगाऽऽश्रयादिदं पुष्यमेति जगतोऽवतां सताम् । स्पृश्यतामपि न चाऽन्यशीर्षगं तव ( त्वत् ) समोऽत्र तवको निगद्यते ॥७॥ नाशयन्ति `करि-सिंह- शूकर- व्याघ्र- चौर-निकरोरगादयः ॥ कदाचिदपि नो मनोगृहे पार्श्वनाथजिन यस्य शुभसे ||८|| (शालिनी) जीरापल्ली-मण्डनं पार्श्वनाथं नत्वा स्तौति भव्य-भावेन भव्यः । यस्तं नूनं ढौकते नो वियोगः कान्तोद्भूतश्चाऽप्यनिष्टश्च (स्य ) योगः || || ( वसन्ततिलका) श्रीमत्प्रभेन्दु- चरणाऽम्बुज- युग्म - भृङ्गश्चारित्र-निर्मल मतिर्मुनिपद्मनन्दी । पार्श्वप्रभोर्विनय-निर्भर - चित्तवृत्तिर्भक्तथा स्तवं रचितवान्मुनिपद्मनन्दी ||१०|| इति श्रीपद्मनन्दि - विरचितं जीरापल्ली-पार्श्वनाथ - स्तोत्रं समाप्तम् । For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने युक्त्यनुशासन विधिर्निषेधोऽनभिलाप्यता च त्रिरेकशस्त्रिद्विश एक एव । यो विकल्पास्तव सप्तधाऽमी स्याच्छब्दनेयाः सकलेऽर्थभेदे ||४५ || 'विधि, निषेध और अनभिलाप्यता – स्यादस्त्येव, स्यान्नास्त्येव, स्यादवक्तव्यमेव-ये एक-एक करके (पदके) तीन मूल विकल्प हैं। इनके विपक्षभूत धर्मकी संधि-संयोजनारूपसे द्विसंयोगज विकल्प तीनस्यादस्ति-नास्त्येव, स्यादस्त्यवक्तव्यमेव, स्यान्नास्त्यवक्तव्यमेव होते हैं और त्रिसंयोज विकल्प एकस्यादस्ति-नास्त्यवक्तव्यमेव - ही होता है । इस तरह से सात विकल्प हे वीर जिन ! सम्पूर्ण अर्थभेदमें - अशेष जीवादितत्त्वार्थ- पर्यायोंमें, न कि किसी एक पर्यायमें— आपके यहाँ (आपके शासन में) घटित होते हैं, दूसरों के यहाँ नहीं - क्योंकि “प्रतिपर्यायं सप्तभङ्गी" यह श्रापके शासनका वचन है, दूसरे सर्वथा एकान्तवादियों के शासनमें वह बनता ही नहीं। और ये सब विकल्प 'स्यात्' शब्द के द्वारा नेय हैं—नेतृत्वको प्राप्त हैं— अर्थात् एक विकल्प के साथ स्यात् शब्दका प्रयोग होनेसे शेष छहों विकल्प उसके द्वारा गृहीत होते हैं, उनके पुनः प्रयोगकी जरूरत नहीं रहती; क्योंकि स्यात्पदके साथमें रहनेसे उनके अर्थविषयमें विवादका अभाव होता है । जहाँ कहीं विवाद हो वहाँ उनके क्रमशः प्रयोगमें भी कोई दोष नहीं है; क्योंकि एक प्रतिपाद्य के भी सप्त प्रकारकी विप्रतिपत्तियोंका सद्भाव होता हैउतने ही संशय उत्पन्न होते हैं उतनी ही जिज्ञासाओंकी उत्पत्ति होती है और उतने ही प्रश्नवचनों (सवालों) की प्रवृत्ति होती है । और प्रश्नके वशसे एक वस्तुमें रूपसे विधि-निषेधकी जो कल्पना है उसीका नाम 'सप्तभङ्गी' है । अतः नाना प्रतिपाद्यजनोंकी तरह एक प्रतिपाद्यजनके लिये भी प्रतिपादन करने वालोंका सप्त विकल्पात्मक वचन विरुद्ध नहीं ठहरता है ।' स्यादित्यपि स्याद्गुण- मुख्य- कल्पैकान्तो यथोपाधि-विशेष-वीक्ष्यः । तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपं द्विधा भवार्थ-व्यवहारवत्त्वात् ||४६|| C ''स्यात्' (शब्द) भी गुण और मुख्य स्वभावोंके द्वारा कल्पित किये हुए एकान्तोंको लिये हुए होता हैनयोंके आदेश । अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकी प्रधानता से अस्तित्व - एकान्त मुख्य है । शेष नास्तित्वादि- एकान्त गौण हैं; क्योंकि प्रधानभावसे वे विवक्षित नहीं होते और न उनका निराकरण ही किया जाता है। इसके सिवाय, ऐसा अस्तित्व गधेके सींगकी तरह असम्भव है जो नास्तित्वादि धर्मोकी अपेक्षा नहीं रखता । 'स्यात्' शब्द प्रधान तथा गौणरूपसे ही उनका द्योतन करता है - जिस पद अथवा धर्मके साथ वह प्रयुक्त होता है उसे प्रधान और शेष पदान्तरों अथवा धर्मोको गौण बतलाता है, यह उसकी शक्ति है । व्यवहारनयके आदेश ( प्राधान्य) से नास्तित्वादिएकान्त मुख्य हैं और अस्तित्व - एकान्त गौण है; क्योंकि प्रधानरूपसे वह तब विवक्षित नहीं होता और न उसका निराकरण ही किया जाता है, अस्तित्वका सर्वथा निराकरण करनेपर नास्तित्वादि धर्म बनते भी नहीं; जैसे कछवेके रोम । नास्तित्वादि धर्मोके द्वारा अपेक्षमान जो वस्तुका अस्तित्व धर्म है वह 'स्यात् ' शब्दके द्वारा द्योतन किया जाता है। इस तरह 'स्यात् ' नामका निपातं प्रधान और गौणरूपसे जो कल्पना करता है वह शुद्ध (सापेक्ष ) नय के आदेशरूप सम्यक् For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ एकान्तसे करता है, अन्यथा नहीं— क्योंकि वह यथोपाधि - विशेषणानुसार — विशेषका - धर्म -भेद अथवा धर्मान्तरका — योतक होता है, जिसका वस्तुमें सद्भाव पाया जाता है। अनेकान्त '(यहाँपर किसीको यह शङ्का नहीं करनी चाहिये कि जीवादि तत्त्व भी तब प्रधान तथा गौणरूप एकान्त को प्राप्त होजाता है; क्योंकि) तत्त्व तो अनेकान्त है'अनेकान्तात्मक है - और वह अनेकान्त भी अनेकान्त रूप है, एकान्तरूप नहीं; एकान्त तो उसे. नयकी अपेक्षा कहा जाता है-, प्रमाणकी अपेक्षा से नहीं; क्योंकि प्रमाण सकलरूप होता है - विकलरूप नहीं, विकलरूप तत्त्वका एकदेश कहलाता है, जो कि नयका विषय है और इसीसे सकलरूप तत्त्व प्रमाणका विषय है । कहा भी है- 'सकलादेशः प्रमाणाधीन: विकलादेशो नयाधीनः ।' 'और वह तत्त्व दो प्रकारसे व्यवस्थित है— एक भवार्थवान् होनेसे—द्रव्यरूप, जिसे सद्द्रव्य तथा विधि भी कहते हैं; और दूसरा व्यवहारवान् होनेसेपर्यायरूप, जिसे असद्द्रव्य, गुण तथा प्रतिषेध भी कहते हैं । इनसे भिन्न उसका दूसरा कोई प्रकार नहीं है, जो कुछ है वह सब इन्हीं दो भेदोंके अन्तर्भूत है ।' न द्रव्य - पर्याय - पृथग्-व्यवस्था यात्म्यमेकाऽर्पणया विरुद्धम् । धर्मी च धर्मश्च मिथस्त्रिधेमौ न सर्वथा तेऽभिमतौ विरुद्धौ ॥४७॥ 'सर्वथा द्रव्यकी (द्रव्यमेव' इस द्रव्यमात्रात्मक एकान्तकी) कोई व्यवस्था नहीं बनती – क्योंकि सम्पूर्ण पर्यायोंसे रहित द्रव्यमात्रतत्त्व प्रमाणका विषय नहीं है - प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे वह सिद्ध नहीं थवा जाना नहीं जासकता; न सर्वथा पर्यायकी ( पर्यायएव – एक मात्र पर्याय ही — इस एकान्त सिद्धान्त की कोई व्यवस्था बनती है- क्योंकि द्रव्यकी एकान्तकी तरह द्रव्यसे रहित पर्यायमात्रतत्त्व भी किसी प्रमाणका विषय नहीं है; और न सर्वथा पृथग्भूत—– परस्परनिरपेक्ष - द्रव्य - पर्याय (दोनों) की [ वर्ष ही कोई व्यवस्था बनती है— क्योंकि उसमें भी प्रमा णाभावकी दृष्टिसे कोई विशेष नहीं है, वह भी सकलप्रमाणोंके अगोचर है ।' ' (द्रव्यमात्रकी, पर्यायमात्रकी तथा पृथग्भूत द्रव्यपर्यायमात्रकी व्यवस्था न बन सकनेसे ) यदि सर्वथा द्वात्मक एक तत्त्व माना जाय तो यह सर्वथा द्वैयात्म्य एककी अर्पणा के साथ विरुद्ध पड़ता है - सर्वथा एकत्वंके साथ द्वयात्मकता बनती ही नहीं— क्योंकि जो द्रव्यकी प्रतीतिका हेतु है और जो पर्यायकी प्रतीतिका निमित्त है वे दोनों यदि परस्परमें भिन्नात्मा है, तो कैसे तदात्मक एक तत्त्व व्यवस्थित होता है ? नहीं होता; क्योंकि अभिन्ना भिन्नात्माओंके साथ एकत्वका विरोध है । जब वे दोनों आत्माएँ एक अभिन्न हैं तब भी एक ही अवस्थित होता है, क्योंकि सर्वथा एकसे अभिन्न उन दोनोंके एकत्वकी सिद्धि होती है, न द्वैयात्म्य (द्वयात्मकता) की, जो कि एकत्वके विरुद्ध है। कौन ऐसा अमूढ (समझदार) है जो प्रमाणको अङ्गीकार करता हुआ सर्वथा एक वस्तुके दो भिन्न आत्माओं की अर्पणा - विवक्षा करे ? - मूढके सिवाय दूसरा कोई भी नहीं कर सकता । अतः द्वयात्मक तत्त्व सर्वथा एकार्पण के — एक तत्त्वकी मान्यताके-साथ विरुद्ध ही है, ऐसा मानना चाहिये ।' (तब विरुद्ध तत्त्व कैसे सिद्ध होवे ? इसका समाधान करते हुए आचार्य महोदय बतलाते हैं--) ( किन्तु हे वीर जिन !) आपके मत में — स्याद्वाद - शासनमें-- ये धर्मी (द्रव्य) और धर्म (पर्याय) दोनों असर्वथारूपसे तीन प्रकार - भिन्न, अभिन्न तथा भिन्नाऽभिन्न- माने गये हैं और (इसलिये सर्वथा विरुद्ध नहीं हैं । —क्योंकि सर्वथारूपसे तीन प्रकार माने जानेपर भी ये प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरुद्ध ठहरते हैं और विरुद्धरूपमें आपको अभिमत नहीं हैं । अतः स्यात्पदात्मक वाक्य न तो धर्ममात्रका प्रतिपादन करता है न धर्मीमात्रका, न धर्म-धर्मी दोनोंको सर्वथा अभिन्न प्रतिपादन करता है, न सर्वथा भिन्न और न सर्वथा भिन्नाऽभिन्न । क्योंकि ये सब प्रतीतिके विरुद्ध हैं । और इससे द्रव्य एकान्तकी, पर्याय-एकान्तकी तथा For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] परस्परनिरपेक्ष पृथग्भूत द्रव्य-पर्याय-एकान्तकी व्यवस्था न बन सकनेका समर्थन होता है । द्रव्यादिके सर्वथा एकान्त में युक्त्यनुशासन घटित ही नहीं होता।' (तब युक्त्यनुशासन क्या वस्तु है, उसे अगली कारिकामें स्पष्ट करके बतलाते हैं -) essaमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते । प्रतिक्षणं स्थित्युदय - व्ययात्मतत्त्व- व्यवस्थ सदिहाऽर्थरूपम् ||४८|| 'प्रत्यक्ष और आगमसे अविरोधरूप - अबाधित विषयस्वरूप —अर्थका जो अर्थसे प्ररूपण है - अन्यथा - नुपपत्येकलक्षण साधनरूप अर्थसे साध्यरूप अर्थका प्रतिपादन है— उसे युक्तयनुशासन - युक्तिवचन-कहते हैं और वही (हे वीर भगवान् !) आपको अभिमत है ।' ' (यहाँ आपके मतानुसार युक्तयनुशासनका एक उदाहरण दिया जाता है और वह यह है कि) अर्थका रूप प्रतिक्षण (प्रत्येक समय) स्थिति (ध्रौव्य), उदय (उत्पाद) और व्यय (नाश) रूप तत्त्वव्यवस्थाको लिये हुए है; क्योंकि वह सत् है ।' समन्तभद्र-भारती के कुछ नमूने (इस युक्तयनुशासनमें जो पक्ष है वह प्रत्यक्षविरुद्ध नहीं है; क्योंकि अर्थका धौव्योत्पादव्ययात्मक रूप जिस प्रकार बाह्य घटादिक पदार्थोंमें अनुभव किया जाता है उसी तरह आत्मादि आभ्यन्तर पदार्थों में भी उसका साक्षात् अनुभव होता है । उत्पादमात्र तथा व्ययमात्रकी तरह स्थितिमात्रका - सर्वथा धौव्यका — सर्वत्र अथवा कहीं भी साक्षात्कार नहीं होता। और अर्थके इस धौव्योत्पादव्ययात्मक रूपका अनुभव बाधक प्रमाणका अभाव सुनिश्चित होनेसे अनुपपन्न नहीं है - उपपन्न है; क्योंकि कालान्तर में धौव्योत्पादव्ययका दर्शन होनेसे उसकी प्रतीति सिद्ध होती हैं, श्रन्यथा खर- विषाणादिकी तरह एकबार भी उसका योग नहीं बनता । अतः प्रत्यक्ष विरोध नहीं है । आगम-विरोध भी इस युक्तयनुशासनके साथ घटित नहीं हो सकता; क्योंकि 'उत्पादव्यय- ध्रौव्य-युक्तं सत्' २४६ यह परमागमवचन प्रसिद्ध है— सर्वथा एकान्तरूप आगम दृष्ट (प्रत्यक्ष ) तथा इष्ट (अनुमान) के विरुद्ध अर्थका अभिधायी होनेसे ठग पुरुषके वचन की तरह प्रसिद्ध अथवा प्रमाण नहीं है । और इसलिये पक्ष निर्दोष है । इसी तरह सत्रूप साधन भी असिद्धादि दोषोंसे रहित है । अतः 'अर्थका रूप प्रतिक्षण - व्योत्पादव्ययात्मक है सत् होनेसे,' यह युक्तयनुशासनका उदाहरण समीचीन है ।) (इस तरह तो यह फलित हुआ कि एक ही वस्तु -स्वभावको प्राप्त है जो कि विरुद्ध है । तब उसकी सिद्धि कैसे होती है उसे स्पष्ट करके बतलाते हैं -) नानात्मतामप्रजहत्तदेकमेकात्मतामप्रहच्च नाना । अङ्गाङ्गिभावात्तव वस्तु तद्यत् क्रमेण वाग्वाच्यमनन्तरूपम् ||४९|| ' (हे वीर जिन !) आपके शासनमें जो (जीवादि) वस्तु एक है ( सत्वरूप एकत्व - प्रत्यभिज्ञानका विषय होनेसे वह (समीचीन नाना ज्ञानका विषय होनेसे) नानात्मता (अनेकरूपता) का त्याग न करती हुई ही वस्तुतत्त्वको प्राप्त होती है- जो नानात्मताका त्याग करती है वह वस्तु ही नहीं; जैसे दूसरोंके द्वारा परिकल्पित ब्रह्माद्वैत आदि । ( इसी तरह ) जो वस्तु (अबाधित नानाज्ञानका विषय होनेसे ) नानात्मक प्रसिद्ध है वह एकात्मताको न छोड़ती हुई ही आपके मतमें वस्तुत्वरूपसे अभिमत है— अन्यथा उसके वस्तुत्व नहीं बनता; जैसे कि दूसरोंके द्वारा अभिमत निरन्वय नानाक्षणरूप वस्तु | अतः - जीवादिपदार्थ समूह परस्पर एक-दूसरेका त्याग न करनेसे एक-अनेक स्वभावरूप है; क्योंकि वस्तुत्वकी अन्यथा उपपत्ति बनती ही नहीं यह युक्तयनुशासन है । (इस प्रकारकी वस्तु वचनके द्वारा कैसे कही जा सकती है ? ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिए; क्योंकि) वस्तु जो अनन्तरूप है वह अङ्ग अङ्गीभाव के कारण गुण-मुख्यकी विवक्षाको लेकर - क्रमसे वचनगोचर For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 용 है — युगपत् नहीं, युगपत् (एक साथ) एक रूपसे और अनेकरूपसे वस्तु वचनके द्वारा कही ही नहीं जाती; - क्योंकि वैसी वाणीका असंभव है - वचनमें वैसी शक्ति ही नहीं है । और इस तरह क्रमसे प्रवर्तमान वचन वस्तुरूप — सत्य — होता है उसके असत्यत्वका 'प्रसङ्ग नहीं आता; क्योंकि उसकी अपने नानात्व और एकत्वविषयमें अङ्ग अङ्गीभावसे प्रवृत्ति होती है; जैसे 'स्यादेकमेव वस्तु' इस वचनके द्वारा प्रधानभावसे एकत्व वाच्य है और गौणरूपसे अनेकत्व; 'स्यादनेकमेव वस्तु' इस वचनके द्वारा प्रधामभावसे अनेकत्व और गौरूपसे एकत्व वाच्य है, इस तरह एकत्व और अनेकत्वके वचनके कैसे असत्यता होसकती है ? अनेकान्त [ वर्ष 1 नहीं होसकती है । प्रत्युत इसके, सर्वथा एकत्वके वचनद्वारा अनेकत्वका निराकरण होता है और अनेकत्वका निराकरण होनेपर उसके अविनाभावी एकत्वके भी निराकरणका प्रसङ्ग उपस्थित होनेसे असत्यत्वकी परिप्राप्ति अभीष्ट ठहरती है; क्योंकि वैसी उपलब्धि नहीं है । और सर्वथा अनेकत्वके वचनद्वारा एकत्वका निराकरण होता है और एकत्वका निराकरण होनेपर उसके अविनाभावी अनेकत्वके भी निराकरणका प्रसङ्ग उपस्थित होनेसे सत्यत्वका विरोध होता है । और इसलिये अनन्त धर्मरूप वस्तु है उसे ङ्गश्रङ्गी (अप्रधान प्रधान) भावके कारण क्रमसे त्राग्वाच्य (वचनगोचर) समझना चाहिये ।' स्मरण शक्ति बढ़ानेका एक अचूक उपाय ni यदि तुम विचारके पक्षीको, वह जब और जहाँ प्रकट हो, पिंजड़े में बन्द न करोगे तो वह सम्भवतः सदाके लिये तुम्हारे पाससे चला जायगा, कुछ भी हो उसे लिख डालो, उसे फौरन लिखो, बादमें तुम उन इसमेंसे नौको खारिज कर सकते हो । लेकिन अगर तुम उन दसमेंसे एक भी बचाकर रख लोगे तो उससे तुम लाभ उठाओगे । इस लिये जब कभी तुम्हारे सामने नया विचार आये या नई बात दिमाग में पैदा हो, अथवा तुम कोई नई खोज करो तो उसे कागजपर लिख डालो । मस्तिष्कके विषयमें यह न समझना चाहिये कि वह किसी बातको ढूँढने में पुस्तकालयका काम करेगा, अथवा अपने कामके लिये हमें जिन तथ्योंकी आवश्यकता पड़ती है उनका वह गोदाम है । मस्तिष्कका कार्यक्षेत्र बहुत ऊँचा है - रचना, समन्वय, संघटन, प्रेरणा देना और निर्णय करना ये उसके श्र ेष्ठ कार्योंमेंसे है । यह काम उससे लीजिए । कागज और पेंसिल खरीद कर तथ्योंके लिख डालनेमें उनका इस्तेमाल करना, मनमें बेकार बातोंको इकट्ठा करनेकी अपेक्षा बहुत अधिक सस्ता है । यह एक विज्ञान सम्मत दृष्टिकोण है जिसे गत कुछ वर्षोंसे मनोवैज्ञानिक एकमत से स्वीकार " करने लगे हैं । - वसन्तलाल वर्मा For Personal & Private Use Only +++HDXXCIDI Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवका स्वभाव (लेखक – श्रीजुगल किशोर जैन, कागजी ). [ पाठक, देहलीकी ला० धूमीमल धर्मदासजी कागजीकी प्रसिद्ध फर्मसे अवगत होंगे। श्रीजुगलकिशोरजी जैन इसी फर्मके मालिक हैं। कितने ही वर्षोंसे मुझे आपके निकट सम्पर्क में आनेका अवसर मिला है। एकबार तो वीरसेवामन्दिर के अनेक प्रकाशनोंको छुपानेके लिये कई महीने तक मुख्तारसाहब और मैं आपके घरपर ही ठहरे। हमने निकटसे देखा कि श्राप बहुत शान्त परिणामी, भद्र, धार्मिक और तत्त्वजिज्ञासु हैं । श्राप घण्टों तत्व चर्चामें सब काम-काज छोड़कर रस लेते हैं। हाल में आप विदेशोंकी यात्रा करके लौटे हैं । वहाँ आपने अपनी संस्कृति, अपने चारित्र और ज्ञानका कितने ही लोगों पर श्राश्चर्यजनक प्रभाव डाला । श्रापके हृदय में यही बलवती भावना घर किये हुए है कि देश और विदेशमें जैनधर्मका प्रसार हो— उसके सिद्धान्तोंको दुनिया जाने और जानकर उनका श्राचरणकर सुख-शान्ति प्राप्त करे । प्रस्तुत लेख श्रापकी पहली रचना है । पाठक, देखेंगे कि वे अपने प्रथम प्रयत्नमें कितने सफल हुए हैं और जैनधर्मके दृष्टिकोण से जीवका स्वभांव समझाने में समर्थहो सके हैं। समाजको आपसे अच्छी आशाएँ हैं । —कोठिया ] जैन धर्म प्रत्येक जीवको अनादिकालसे स्वतन्त्र, अनादि और अकृत्रिम बतलाता है। इसमें जीवका लक्षण इस प्रकार कहा गया है- जो जीवे सोज । अर्थात् जो ज्ञान - दर्शन गुणसे सहित है । अनांदिकालसे यह जीव इस संसार में मौजूद है और अनन्तकाल तक रहेगा-न इसको किसीने पैदा किया है और न इसका कोई विनाश कर सकता है। द्रव्यकी अपेक्षासे समस्त जीव नित्य और समान हैं— समान गुणवाले हैं। अनादिकालसे क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, हास्य, रति, अरति, शोक, भय ग्लानि, वेद आदि पुद्गलविकारोंके वशीभूत हुए वे नाना प्रकारके शरीरोंको धारण कर संसार में घूम रहे हैं। मिध्यादर्शन (भ्रान्त दृष्टि) से संसार के पदामें सुख समझकर को प्राप्त करनेके लिये अनेक प्रकारकी चेष्टाएँ करते रहते हैं और उन पदार्थों को ही सदा अपनाते रहते हैं। मिध्यादर्शनके ही कारण हर एक प्राणी अपनी रुचिके अनुसार पदार्थोंमें राग व द्वेष करता है। एक ही पदार्थ किसीको इष्ट मालूम होता है तो वही पदार्थ दूसरेको अनिष्ट । एक पदार्थ एकको लाभदायक ज्ञात होता है तो दूसरेको वह हानिकारक प्रतीत होता है । हर जीव अपने-अपने संकल्प-विकल्प में पड़ा हुआ किसीसे राग और किसीसे द्वेष करता हुआ शारीरिक व मानसिक दुःखोंको भोगता रहता है। एक शरीरको प्राप्त करता हुआ उसको छोड़कर अन्य नवीन शरीरको ग्रहण करता है । प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। और सुख प्राप्त करनेका उपाय भी करता है । परन्तु प्रत्येक दिन व प्रत्येक समय उसे यही चिन्ता लगी रहती है कि मेरा कार्य पूर्ण कब और कैसे होगा ? मुझे मेरी इच्छित वस्तु कब और कैसे मिलेगी ? इस तरह विकल्प-जालोंमें पड़ा हुआ उसकी प्राप्तिके लिये अनुधावन करता है और कोशिशें करता है । यह हम सब देखते ही हैं कि मनुष्य इस संसार में प्रति-दिन नई-नई खोजें करता जाता है और आराम सुख व शान्तिके उपाय उनमें पाता-सा प्रतीत होता है, परन्तु होता क्या है कि वह उन्हें प्राप्त करके भी For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ अनेकान्त वास्तविक सुख-शान्ति प्राप्त नहीं करता - केवल क्षणिक -सी शान्तिको पाकर फिरसे उन्हीं उलझनोंमें फँस जाता है, पर सच्ची शान्तिका हल वहाँ नहीं पाता । संसारमें असंख्य पदार्थ दिखाई देते हैं । प्रत्येकमें अनगिनत गुण हैं । प्रति-समय उनकी पर्यायें पलटती जाती हैं - किसी पदार्थ में भी स्थिरता नहीं पाई जाती । कोई पैदा होता है तो कोई नाश होता है । यह सब परिवर्तन क्या है ? क्या आपने कभी सोचा है ? यह सब संसारचक्र है । जिस प्रकार २, ३, ४, ५ आदि शब्दों के मेल से नाना प्रकारके पदवाक्यादि बन जाते हैं उसी प्रकार २, ३, ४ आदि वस्तुओंके मेलसे नाना प्रकारके भौतिक पदार्थ नये-नये रूपमें सामने आते रहते हैं। यह संसारका चक्कर है और वह इसी प्रकार सदा चलता रहेगा। मनुष्य अपनी अपूर्ण अवस्थामें कभी भी किसी पदार्थ के पूर्ण गुणोंको जान नहीं सकेगी - उसका पूरा ज्ञान कभी नहीं होसकेगा । और इस लिये उसे सदा असंतोष और दुख बना रहेगा । कोई भी प्राणी यह नहीं कहता कि "मैं अब संसारकी सम्पत्ति व प्रभुता प्राप्त कर चुका हूँ और यह सदा मेरे पास इसी तरहसे स्थिर बनी रहेगी और मैं सदा सुख भोगता रहूँगा ।" प्रत्येक प्राणी अधिक से अधिक धनादिककी इच्छा करता है । साधु भी होजाते हैं उनमें भी अधिकांश अपनी सेवा कराकर धन आदिका ही आशीर्वाद देते हैं। इससे पता चलता है कि वे साधु होकर भी धनादिकमें ही सुखकी स्थापना करते हैं— उन्हें वास्तविक विवेक-बुद्धि जागृत नहीं [ वर्ष ह हुई । आत्मा के स्वरूपको उन्होंने नहीं जाना । उनकी दृष्टि सांसारिक भोगों में ही लगी रही। - स्वर्ग में जाकर अनेक प्रकारके सांसारिक भोगों में रमण करने या नरकमें निवास करके नाना प्रकार की यातनाओंको सहने या मनुष्य-भव प्राप्त करके - कला-कौशल तथा प्रभुताको पानेपर भी श्रात्माको अपने असली स्वरूपकी पहचान नहीं हुई— आत्मा बन्धनमें पड़ा ही रहा । परतन्त्र तो रहा ही। कितने ही प्राणी यह समझते हैं कि धर्मस्थानोंमें जानेसे और देवोंकी भक्ति - उपासना करनेसे आत्माका असली स्वरूप मालूम होजायगा और इसके लिये वे वहाँ जाते हैं और रागी, द्वेषी नाना प्रकारके देवीदेवताओंकी मान्यताएँ करते हैं। परन्तु उनसे भी उन्हें 'आत्माका असली स्वरूप मालूम नहीं हो पाता । वास्तवमें तथ्य यह है कि आत्मामें राग-द्वेषकी कल्पनाका अभाव होजाना ही आत्माकी असली शांति है और वही आत्माका वास्तविक निज स्वभाव हैराग और द्वेषका सर्वथा अभाव अर्थात् प्रशम-गुणयथाख्यातचारित्रादि आत्मा (जीव ) की असली सम्पत्ति है । संसारदशामें वह पुद्रलकमोंसे ढकी हुई है- अपने विवेक, संयम, तपः साधना आदि निज प्रयत्नों से उन पुद्रलकर्मोंके अलग होजानेपर वह प्रकट होजाती है। यह आत्मस्वभाव ही हम सबके लिये उपादेय है और इस दिशा में ही संसारी जीवोंके प्रयत्न श्रेयस्कर एवं दुखमोचक हैं। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म और उसका कार्य (लेखक-५० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री) कर्मकी मर्यादा . पर ग्लानि होती है । धन-सम्पत्तिको देखकर लोभ कर्मका मोटा काम जीवको संसारमै रोक रखना है। होता है और लोभवश उसके अर्जन करने, छीन लेने ॥ परावर्तन संसारका दूसरा नाम है। द्रव्य, क्षेत्र, या चुरा लेनेकी भावना होती है। ठोकर लगनेपर काल, भव और भावके भेदसे वह पाँच प्रकारका है। दुःख होता है और मालाका संयोग होनेपर सुख । कर्मके कारण ही जीव इन पाँच प्रकारके परावर्तनोंमें इस लिये यह कहा जा सकता है कि केवल कर्म ही घूमता फिरता है। चौरासी लाख योनियाँ और उनमें आत्माकी विविध परिणतिके होनेमें निमित्त नहीं हैं रहते हुए जीवकी जो विविध अवस्थाएँ होती हैं उनका किन्तु अन्य सामग्री भी उसका निमित्त है अतः कर्ममुख्य कारण कर्म है। स्वामी समन्तभद्र आप्तमीमांसा का स्थान बाह्य सामग्रीको मिलना चाहिये। में कर्मके कार्यका निर्देश करते हुए लिखते हैं- परन्तु विचार करनेपर यह युक्त प्रतीत नहीं होता; ___'कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः' क्योंकि अन्तरङ्गमें वैसी योग्यताके अभावमें बाह्य 'जीवकी काम-क्रोध-प्रतिरूप विविध अवस्था अपने सामग्री कुछ मा नहा कर सकता है। जिस यागाक अपने कर्मके अनुरूप होती हैं।' " राग-भाव नष्ट होगया है उसके सामने प्रबल रागकी बात यह है कि मुक्त दशामें जीवकी प्रतिसमय, सामग्री उपस्थित होनेपर भी राग पैदा नहीं होता। जो स्वाभाविक परिणति होती है उसका अलग अलग इससे मालूम पड़ता है कि अन्तरङ्गमें योग्यताके बिना निमित्तंकारण नहीं है, नहीं तो उसमें एकरूपता नहीं बाह्य सामग्रीका कोई मूल्य नहीं है। यद्यपि कमके बन सकती। किन्तु संसारदशामें वह परिणति प्रति- विषयमें भी ऐसा ही कहा जा सकता है पर कर्म और समय जुदी जुदी होती रहती है इसलिये उसके जदे बाह्य सामग्री इनमें मौलिक अन्तर है। जुदे निमित्तकारण माने गये हैं। ये निमित्त संस्कार कर्म वैसी योग्यताका सूचक है पर बाह्य सामग्रीरूपमें आत्मासे सम्बद्ध होते रहते हैं और तदनुकूल का वैसी योग्यतासे कोई सम्बन्ध नहीं । कभी वैसी परिणतिके पैदा करने में सहायता प्रदान करते हैं। योग्यताके सद्भावमें भी बाह्य सामग्री नहीं मिलती जीवकी अशुद्धता और शुद्धता इन निमित्तोंके सद्भाव और कभी उसके अभावमें भी बाह्य सामग्रीका संयोग और असद्भावपर आधारित है। जब तक इन निमित्तों- देखा जाता है। किन्तु कर्मके विषय में ऐसी बात नहीं का एकक्षेत्रावगाहसंश्लेशरूप सम्बन्ध रहता है तब है। उसका सम्बन्ध तभी तक आत्मासे रहता है जबतक अशुद्धता बनी रहती है और इनका सम्बन्ध तक उसमें तदनुकूल योग्यता पाई जाती है। अतः छूटते ही जीव शुद्ध दशाको प्राप्त होजाता है। जैन कर्मका स्थान बाह्य सामग्री नहीं ले सकती। फिर भी दर्शनमें इन्हीं निमित्तोंको 'कर्म' शब्दसे पुकारा गया है। अन्तरङ्गमें योग्यताके रहते हुए बाह्य सामग्रीके मिलने• ऐसा भी होता है कि जिस समय जैसी बाह्य , पर न्यूनाधिक प्रमाणमें कार्य तो होता ही है इस लिये सामग्री मिलती है उस समय उसके अनुकूल अशुद्ध निमित्तोंकी परिगणनामें बाह्य सामग्रीकी भी गिनती आत्माकी परिणति होती है। सुन्दर सुस्वरूप स्त्रीके होजाती है। पर यह परम्परानिमित्त है इसलिये इसकी मिलनेपर राग होता है। जुगुप्साकी सामग्री मिलने- परिगणना नोकर्मके स्थानमें की गई है। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ अनेकान्त इतने विवेचनसे कर्मी कार्य-मर्यादाका पता लग जाता है। कर्मके निमित्तसे जीवकी विविध प्रकारकी वस्था होती है और जीव में ऐसी योग्यता आती है जिससे वह योगद्वारा यथायोग्य शरीरं, वचन, मन और श्वासोच्छवास योग्य पुगलोंको ग्रहणकर उन्हें अपनी योग्यतानुसार परिणामाता है । कर्मकी कार्य-मर्यादा यद्यपि उक्त प्रकारकी है तथापि अधिकतर विद्वानोंका विचार है कि बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति भी कर्मसे होती है । इन विचारोंकी पुष्टिमें वे मोक्षमार्गप्रकाशके निम्न उल्लेखोंको उपस्थित करते हैं—'तहां वेदनीय करि तौ शरीर विषै वा शरीर नाना प्रकार सुख दुःखनिको कारण पर द्रव्य का संयोग जुरै है ।' -पृष्ठ ३५ । उसीसे दूसरा प्रमाण वे यों देते हैं'बहुरि कर्म विषै वेदनीयके उदय करि शरीर विषै बाह्य सुख दुःखका कारण निपजे है । शरीर विषै आरोग्यपनौ, रोगीपनौ, शक्तिवानपनौ, दुर्बलपनौ अर क्षुधा तृषा रोग खेद पीड़ा इत्यादि सुख दुःखनिके कारण हो हैं । बहुरि बाह्य विषै सुहावना ऋतु पावनादिक वा इष्ट स्त्री पुत्रादिक वा मित्रधनादिक "सुख दुःखके कारक हो हैं ।' – पृष्ठ ५६ । इन विचारोंकी परम्परा यहीं तक नहीं जाती है किन्तु इससे पूर्ववर्ती बहुतसे लेखकोंने भी ऐसे ही विचार प्रकट किये हैं। पुराणों में पुण्य और पापकी महिमा इसी आधार से गाई गई है। अमितगतिके सुभाषितरत्नसन्दोह में देवनिरूपण नामका एक अधिकार है । उसमें भी ऐसा ही बतलाया है । वहाँ लिखा है कि पापी जीव समुद्रमें प्रवेश करनेपर भी रत्न नहीं. पाता किन्तु पुण्यात्मा जीव तटपर बैठे ही उन्हें प्राप्त कर लेता है । यथा'जलधिगतोऽपि न कश्चित्कश्चित्तगोऽपि रत्नमुपयाति । किन्तु विचार करनेपर उक्त कथन • युक्त प्रतीत नहीं होता | खुलासा इस प्रकार है कर्मके दो भेद हैं— जीवविपाकी और पुदल विपाकी जो जीवकी विविध अवस्था और परिणामोंके होनेमें निमित्त होते हैं वे जीवविपाकी कर्म कहलाते हैं । और [ वर्ष ह जिनसे विविध प्रकारके शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वासकी प्राप्ति होती है वे पुढलविपाकी कर्म कहलाते हैं। इन दोनों प्रकारके कर्मोंमें ऐसा एक भी कर्म नहीं बतलाया है जिसका काम बाह्य सामग्रीका प्राप्त कराना हो । सातावेदनीय और असातावेदनीय ये स्वयं जीवविपाकी हैं। राजवार्त्तिकमें इनके कार्यका निर्देश करते हुए लिखा है'यस्योदयादेवादिगतिषु शरीरमानस सुखप्राप्तिस्तत्सद्वेद्यम्, यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसद्वेद्यम् ।' — पृ० ३०४ । वार्त्तिकोंकी व्याख्या करते हुए वहाँ लिखा है'अनेक प्रकारकी देवादि गतियों में जिस कर्मके उदयसे जीवोंके प्राप्त हुए द्रव्य के सम्बन्धकी अपेक्षा शारीरिक और मानसिक नाना प्रकारका सुखरूप परिणाम होता है वह साता वेदनीय है । तथा नाना प्रकारकी नरकादि गतियोंमें जिस कमके फलस्वरूप जन्म, जरा, मरण, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, व्याधि, वध और बन्धनादि से उत्पन्न हुआ विविध प्रकारका मानसिक और कायिक दुःसह दुःख होता है वह असाता वेदनीय है । ' सर्वार्थसिद्धिमें जो सातावेदनीय और असातावेंदनीय स्वरूपका निर्देश किया है। उससे भी उक्त कथंनकी पुष्टि होती है । श्वेताम्बर कार्मिक ग्रन्थोंमें भी इन कर्मोंका यही अर्थ किया है। ऐसी हालत में इन कर्मोंको अनुकूल व प्रतिकूल बाह्य सामग्री के संयोगवियोग में निमित्त मानना उचित नहीं है । वास्तवमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति अपने-अपने कारणोंसे होती है । इसकी प्राप्तिका कारण कोई कर्म नहीं है । ऊपर मोक्षमार्ग प्रकाशकके जिस मतकी चर्चा की. इसके सिवा दो मत और मिलते हैं। जिनमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति कारणोंका निर्देश किया गया है । इनमेंसे पहला मत तो पूर्वोक्त मतसे ही मिलता जुलता है। दूसरा मत कुछ भिन्न है । आगे इन दोनों आधारसे चर्चा कर लेना इष्ट है (१) षट्खण्डागम चूलिका अनुयोगद्वार में प्रकृतियोंका नाम-निर्देश करते हुए सूत्र १८ की टीकामें वीरसेन स्वामीने इन कर्मोंकी विस्तृत चर्चा की है। For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] . - कर्म और उसका कार्य .. २५५ वहाँ सर्व प्रथम उन्होंने साता और असाता वेदनीय आदि कर्मके क्षय व क्षयोपशमका ही फल है। का वही स्वरूप दिया है जो सर्वार्थसिद्धि आदिमें बाह्य सामग्री इन कारणोंसे न प्राप्त होकर अपनेबतलाया गया है। किन्तु शङ्का-समाधानके प्रसङ्गसे अपने कारणोंसे ही प्राप्त होती है। उद्योग करना, उन्होंने सातावेदनीयको जीवविपाकी और पदलविपाकी व्यवसाय करना, मजदूरी करना, व्यापारके साधन उभयरूप सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। जुटाना, राजा महाराजा या सेठ साहुकारकी चाटु___इस प्रकरणके वाचनेसे ज्ञान होता है कि वीरसेन कारी करना, उनसे दोस्ती जोड़ना, अर्जित धनकी स्वामीका यह मत था कि सातावेदनीय और असाता- रक्षा करना, उसे व्याजपर लगाना, प्राप्त धनको विविध वेदनीयका काम सुख-दुखको उत्पन्न करना तथा इनकी व्यवसायोंमें लगाना, खेती-बाड़ी करना, झाँसा सामग्रीको जुटाना दोनों हैं। देकर ठगी करना, जेब काटना, चोरी करना, जुआ • (२) तत्त्वार्थसूत्र अध्याय २, सूत्र ४ की सर्वार्थ- खेलना, भीख मांगना, धर्मादयको संचित कर पचा सिद्धि टीकामें बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिके कारणोंका जाना आदि बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिके साधन हैं। इन निर्देश करते हुए लाभादिको उसका कारण बतलाया व अन्य कारणोंसे बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति होती है उक्त है । किन्तु सिद्धोंमें अतिप्रसङ्ग देनेपर लाभादिके कारणोंसे नहीं। साथ शरीरनामकर्म आदिकी अपेक्षा और लगा दी शङ्का-इन सब बातोंके या इनमेंसे किसी एकके है। ये दो ऐसे मत हैं जिनमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिका करनेपर भी हानि देखी जाती है सो इसका क्या क्या कारण है इसका स्पष्ट निर्देश किया है। आधुनिक कारण है ? . विद्वान भी इनके आधारसे दोनों प्रकारके उत्तर देते समाधान-प्रयत्नकी कमी या बाह्य परिस्थिति हुए पाये जाते हैं। कोई तो वेदनीयको बाह्य सामग्रीकी या दोनों। निमित्त बतलाते हैं। और कोई लाभान्तरीय शङ्का-कदचित व्यवसाय आदि नहीं करनेपर आदिके क्षय व क्षयोपशमको। इन विद्वानोंके ये मत भी धनप्राप्ति देखी जाती है, सो इसका क्या कारण है ? उक्त प्रमाणोंके बलसे भले ही बने हों किन्तु इतने समाधान-यहाँ यह देखना है कि वह प्राप्ति मात्रसे इनकी पुष्टि नहीं की जासकती; क्योंकि उक्त कैसे हुई है ? क्या किसीके देनेसे हुई है या कहीं पड़ा • कथन मूल कर्मव्यवस्थाके प्रतिकूल पड़ता है। हुआ धन मिलनेसे हुई है ? यदि किसीके देनेसे हुई - .. यदि थोड़ा बहुत इन मतोंको प्रश्रय दिया जा है तो इसमें जिसे मिला है उसके विद्या आदि गुण सकता है तो उपचारसे ही दिया जासकता है। वीरसेन कारण हैं या देनेवालेकी स्वार्थसिद्धि, प्रेम आदि ग स्वामीने तो स्वर्ग, भोग-भूमि और नरकमें सुख-दुखकी कारण हैं। यदि कहीं पड़ा हुआ धन मिलनेसे हुई है निमित्तभूत सामग्रीके साथ वहाँ उत्पन्न होनेवाले तो ऐसी धनप्राप्ति पुण्योदयका फल कैसे कही जा जीवोंके साता और असाताके उदयका सम्बन्ध देख सकती है । यह तो चोरी है। अतः चोरीके भाव कर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि बाह्य इस धनप्राप्तिमें कारण हुए न कि साताका उदय । सामग्री साता और असाताका फल है। तथा पूज्य- शङ्का-दो आदमी एक साथ एक-सा व्यवसाय पाद स्वामीने संसारी जीवमें बाह्य सामग्रीमें लाभादि- करते है फिर क्या कारण है कि एकको लाभ होता है रूप परिणाम लाभान्तराय आदिके क्षयोपशमका फल और दूसरेको हानि ? जानकर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि . समाधान व्यापार करनेमें अपनी अपनी लाभान्तराय आदिके क्षय व क्षयोपशमसे बाह्य सामग्री योग्यता और उस समयकी परिस्थिति आदि इसका ' की प्राप्ति होती है। तत्त्वतः बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति न कारण है, पाप-पुण्य नहीं । संयुक्त व्यापारमें एकको तो साता-असाताका ही फल है और न लाभान्तराय लाभ हो तो कदाचित् हानि-लाभ For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ... अनेकान्त [ वर्ष । पाप-पुण्यका फल माना भी जाय, पर ऐसा होता पाप-पुण्यका फल नहीं है। जिस प्रकार बाह्य सामग्री नहीं; अतः हानि-लाभको पाप-पुण्यका फल मानना अपने-अपने कारणोंसे प्राप्त होती है उसी प्रकार किसी भी हालतमें उचित नहीं है। सरोगता और नीरोगता भी अपने-अपने कारणोंसे - शङ्का-यदि बाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य- प्राप्त होती है। इसे पाप-पुण्यका फल मानना किसी पाप कर्मका फल नहीं है तो फिर एक गरीब और भी हालतमें उचित नहीं है। दूसरा श्रीमान् क्यों है ? ___ शङ्का-सरोगता और नीरोगताके क्या कारण हैं ? समाधान—एकका गरीब दूसरेका श्रीमान होना . समाधान-अस्वास्थ्यकर आहार, विहार व यह व्यवस्थाका फल है पुण्य-पापका नहीं । जिन देशों सङ्गति करना आदि सरोगताके कारण हैं और स्वामें पूँजीवादी व्यवस्था है और व्यक्तिको सम्पत्ति जोड़ने स्थ्यवर्धक आहार, विहार व सङ्गति करना आदि की पूरी छूट है वहाँ अपनी अपनी योग्यता व साधनों नीरोगताके कारण हैं। के अनुसार लोग उसका संचय करते हैं और इसी इस प्रकार कर्मकी कार्य-मर्यादाका विचार करने व्यवस्थाके अनुसार गरीब और अमीर इन वर्गोंकी पर यह स्पष्ट होजाता है कि कर्म बाह्य सम्पत्तिके संयोग सृष्टि हुआ करती है। गरीबी और अमीरी इनको वियोगका कारण नहीं है । उसको तो मर्यादा उतनी ही पाप-पुण्यका फल मानना किसी भी हालत में उचित है जिसका निर्देश हम पहले कर आये हैं। हाँ जीवके नहीं है। रूसने बहुत कुछ अंशोंमें इस व्यवस्थाको विविध भाव कर्मके निमित्तसे होते हैं। और वे कहींतोड़ दिया है इस लिये वहाँ इस प्रकारका भेद नहीं कहीं बाह्य सम्पत्तिके अर्जन आदिमें कारण पड़ते हैं, दिखाई देता है फिर भी वहाँ पुण्य और पाप तो हैं ही। इतनी बात अवश्य है। सचमुचमें पुण्य और पाप तो वह है जो इन बाह्य नैयायिक दर्शन व्यवस्थाओंसे परे है और वह है आध्यात्मिक । जैन । कर्मशास्त्र ऐसे ही पुण्य-पापका निर्देश करता है। ... यद्यपि स्थिति ऐसी है तो भी नैयायिक कार्यमात्र शङ्का-यदि बाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य के प्रति कर्मको कारण मानते हैं। वे कमको जीवनिष्ठ पापका फल नहीं है तो सिद्ध जीवोंको इसकी प्राप्ति मानते हैं। उनका मत है कि चेननगत जितनी विषमक्यों नहीं होती? ताएँ हैं उनका कारण कर्म तो है ही। साथ ही वह समाधान-बाह्य सामग्रीका सद्भाव जहाँ है वहीं जहावड़ी अचेतनगत सब प्रकारकी विषमताओंका और उनके उसकी प्राप्ति सम्भव है। यों तो इसकी प्राप्ति जड न्यूनाधिक संयोगोंका भी जनक है। उनके मतसे चेतन दोनोंको होती है। क्योंकि तिजोड़ी में भी धन जगतमें द्वथणुक आदि जितने भ कार्य होते हैं वे किसी रक्खा रहता है, इसलिये उसे भी धनकी प्राप्ति कही न किसीके उपभोगके योग्य होनेसे उनका कर्ता जासकती है। किन्तु जडके रागादि भाव नहीं होता कम ही है। और चेतनके होता है इसलिये वही उसमें ममकार ___नैयायिकोंने तीन प्रकारके कारण माने हैं-समऔर अहङ्कार भाव करता है। वायिकारण, असमवायिकारण और निमित्तकारण । ___ शङ्का-यदि बाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य- जिस द्रव्यमें कार्य पैदा होता है वह द्रव्य उस कार्यके पापका फल नहीं है तो न सही पर सरोगता और प्रति समवायिकारण है । संयोग असमवायि कारण नीरोगता यह तो पाप-पुण्यका फल मानना ही है। तथा अन्य सहकारी सामग्री निमित्त है। इनकी पड़ता है ? सहायताके बिना किसी भी कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। समाधान-सरोगता और नीरोगता यह पाप- ईश्वर और कर्म कार्यमात्रके प्रति साधारण कारण पुण्यके उदयका निमित्त भले ही होजाय पर स्वयं यह क्यों हैं, इसका खुलासा उन्होंने इस प्रकार किया है For Personal & Private Use Only www ainelibrary.org Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] कि जितने कार्य होते हैं वे सब चेतनाधिष्ठित ही होते हैं. इस लिये ईश्वर सबका साधारण कारण है । कर्म और उसका कार्य इसपर यह प्रश्न होता है कि जब सबका कर्ता ईश्वर है तब फिर उसने सबको एक-सा क्यों नहीं बनाया ? वह सबको एक-से सुख एक-से भोग और एक-सी बुद्धि दे सकता था । स्वर्ग- मोक्षका अधिकारी भी सबको एक-सा बना सकता था । दुखी, दरिद्र और निकृष्ट योनिवाले प्राणियोंकी उसे रचना ही नहीं करनी थी । उसने ऐसा क्यों नहीं किया ? जगतमें तो विषमता ही विषमता दिखलाई देती है । इसका अनुभव सभीको होता है क्या जीवधारी और क्या जड जितने भी पदार्थ हैं उन सबकी आकृति, स्वभाव और जाति जुदा-जुदी है। एकका मेल दूसरेसे नहीं खाता । मनुष्य को ही लीजिये । एक मनुष्यसे दूसरे मनुष्यमें बड़ा अन्तर है । एक सुखी है तो दूसरा दुखी । एकके पास सम्पत्तिका विपुल भण्डार है तो दूसरा दाने-दानेका भटकता फिरता है। एक सातिशय बुद्धिवाला है तो दूसरा निरा मूर्ख । मात्स्यन्यायका तो सर्वत्र ही बोल - बाला है। बड़ी मछली छोटी मछलीको निगल जाना "चाहती है । यह भेद यहीं तक सीमित नहीं है, धम और धर्मायतनोंमें भी इस भेदने अड्डा जमा लिया है। यदि ईश्वरने मनुष्यको बनाया है और वह मन्दिरोंमें बैठा है तो उस तक उसके सब पुत्रोंको क्यों नहीं जाने दिया जाता है। क्या उन दलालोंका, जो दूसरेको मन्दिर में जानेसे रोकते हैं, उसीने निर्माण किया है ? ऐसा क्यों है ? जब ईश्वरने ही इस जगतको बनाया है और वह करुणामय तथा सर्व शक्तिमान् है तब फिर उसने जगतकी ऐसी विषम रचना क्यों की? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर नैयायिकोंने कर्मको स्वीकार करके दिया है। वे जगतकी इस विषमताका कारण कर्म मानते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर जगतका कर्ता है तो सही पर उसने इसकी रचना प्राणियों के कर्मानुसार की है। इसमें उसका रत्तीभर मी दोष नहीं है। जीव जैसा कर्म करता है उसीके अनुसार उसे योनि और भोग मिलते हैं । यदि अच्छे धर्म करता है तो अच्छी योनि और अच्छे भोग मिलते हैं और बुरे कर्म करता है तो बुरी योनि और बुरे भोग मिलते हैं । इसीसे कविवर तुलसीदासजीने अपने रामचरितमानसमें कहा है करम प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥ २५७ • इसके पूर्वार्ध द्वारा ईश्वरवादका समर्थन करनेपर जो प्रश्न उठ खड़ा होता है, तुलसीदासजी ने उस प्रश्नका इस छन्दके उत्तरार्ध द्वारा समर्थन करनेar प्रयत्न किया है । नैयायिक जन्यमात्रके प्रति कर्मको साधारण कारण मानते हैं । उनके मतमें जीवात्मा व्यापक है इस लिये जहाँ भी उसके उपभोगके योग्य कार्यकी सृष्टि होती है वहाँ उसके कर्मका संयोग होकर ही वैसा होता है । अमेरिकामें बनने वाली जिन मोटरों तथा उनके उपभोक्ताओंके कर्मानुसार ही निर्मित होते हैं। अन्य पदार्थों का भारतीयों द्वारा उपभोग होता है वे इसीसे वे अपने उपभोक्ताओं के पास खिंचे चले आते । उपभोग योग्य वस्तुओं का विभागीकरण इसी हिसाबसे होता है। जिसके पास विपुल सम्पत्ति है अपने कर्मानुसार है। कर्म बटवारेमें कभी भी पक्ष - वह उसके कर्मानुसार है और जो निर्धन है वह भी स्वामी और सेवकका भेद मानवकृत नहीं है । अपनेपात नहीं होने देता । गरीब और अमीरका भेद तथा अपने कर्मानुसार हो ये भेद होते हैं। जो जन्मसे ब्राह्मण है वह ब्राह्मण ही बना रहता है और जो शूद्र है वह शूद्र ही बना रहता है। उसके कर्म ही ऐसे हैं जिससे जो जाति प्राप्त होती है जीवन भर वही बनी रहती है । कर्मवाद स्वीकार करने में यह नैयायिकोंकी युक्ति है । वैशेषिकोंकी युक्ति भी इससे मिलती जुलती है । वे भी नैयायिकोंके समान चेतन और अचेतनत सब प्रकारकी विषमताका साधारण कारण कर्म मानते हैं । यद्यपि इन्होंने प्रारम्भ में ईश्वरवादपर जोर नहीं दिया पर परवर्तीकालमें इन्होंने भी उसका अस्तित्व स्वीकार कर लिया है । For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ अनेकान्त जैन दर्शनका मन्तव्य किन्तु जैन दर्शनमें बतलाये गये कर्मवादसे इस मतका समर्थन नहीं होता । वहाँ कर्मवादकी प्राणप्रतिष्ठा मुख्यतया आध्यात्मिक आधारोंपर की गई है। [ वर्ष ह जाना, रोजगारमें नफा-नुकसानका होना, दूसरोंद्वारा अपमान या सम्मानका किया जाना, अकस्मात् मकान का गिर पड़ना, फसलका नष्ट हो जाना, ऋतुका अनुकूल प्रतिकूल होना, अकाल या सुकालका पड़ना, रास्ता चलते-चलते अपघातका होना, किसीके ऊपर बिजलीका गिरना, अनुकूल प्रतिकूल विविध प्रकारके संयोगों व वियोगों का होना आदि ऐसे कार्य हैं जिनका कारण कर्म नहीं है । भ्रमसे इन्हें कर्मोंका कार्य समझा जाता है । पुत्रकी प्राप्ति होनेपर भ्रमवश मनुष्य उसे अपने शुभ कर्मका कार्य समझता है और उसके मर जानेपर भ्रमवश उसे अपने अशुभ कर्मका कार्य समझता है । पर क्या पिताके शुभोदयसे पुत्रकी उत्पत्ति और पिताके अशुभोदयसे पुत्रकी मृत्यु सम्भव है ? कभी नहीं। सच तो यह है कि ये इष्ट संयोग या इष्ट वियोग आदि जितने भी कार्य हैं वे अच्छे बुरे कर्मों के कार्य नहीं । निमित्त और बात है और कार्य और बात । निमित्तको कार्य कहना 'उचित नहीं है । ईश्वरको तो जैनदर्शन मानता ही नहीं । वह निमित्तको स्वीकार करके भी कार्यके आध्यात्मिक विश्लेषणपर अधिक जोर देता है। नैयायिक-वैशेषिकों ने कार्यकारणभावकी जो रेखा खींची है वह उसे मान्य नहीं । उसका मत है कि पर्यायक्रमसे उत्पन्न होना, नष्ट होना और ध्रुव रहना यह प्रत्येक वस्तुका स्वभाव है । जितने प्रकार के पदार्थ हैं उन सबमें यह क्रम चालू है । किसी वस्तुमें भी इसका व्यतिक्रम नहीं देखा जाता । अनादिकालसे यह क्रम चालू है और अनन्तकाल तक चालू रहेगा । इसके मत से जिस कालमें वस्तुकी जैसी योग्यता होती है उसीके अनुसार कार्य होता है । जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव जिस कार्य के अनुकूल होता है वह उसका निमित्त कहा जाता है। कार्य अपने उपादानसे होता है किन्तु कार्यनिष्पत्ति के समय अन्य वस्तुकी अनुकूलता ही निमित्तताकी प्रयोजक है । निमित्त उपकारी कहा जा सकता है कर्ता नहीं । इसलिये ईश्वरको स्वीकार करके कार्यमात्रके प्रति उसको निमित्त मानना उचित नहीं है। इसीसे जैनदर्शनने जगतको अकृत्रिम और अनादि बतलाया है। उक्त कारणसे वह यावत् कार्यों में बुद्धिमान्की आवश्यकता स्वीकार नहीं करता । घटादि कार्योंमें यदि बुद्धिमान् निमित्त देखा भी जाता है तो इससे सर्वत्र बुद्धिमान‌को निमित्त मानना उचित नहीं है ऐसा इसका मत है। 1 यद्यपि जैनदर्शन कर्मको मानता है तो भी वह यावत् कार्योंके प्रति उसे निमित्त नहीं मानता। वह जीवकी विविध अवस्थाएँ, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, वचन और मन इन्हींके प्रति कर्मको निमित्त कारण मानता है । उसके मतसे अन्य कार्य अपने अपने कारणोंसे होते हैं कर्म उनका कारण नहीं है । उदाहरणार्थ- पुत्रका प्राप्त होना, उसका मर गोम्मटसार कर्मकाण्डमें एक नोकर्म प्रकरण आया है। उससे भी उक्त कथनकी ही पुष्टि होती है । वहाँ मूल और उत्तर कर्मों के नो कर्म बतलाते हुए इष्ट अन्न-पान आदिको साता वेदनीयका, अनिष्ट अन्नपान आदिको असातावेदनीयका, विदूषक या बहुरूपियाको हास्य कर्मका, सुपुत्रको रतिकर्मका, इष्टवियोग और श्रनिष्ट-संयोगको अरति कर्मका, पुत्रमरणको शोककर्मका, सिंह आदिको भयकर्मका और ग्लानिकर पदार्थोंको जुगुप्सा कर्मका नोकर्म द्रव्यकर्म बतलाया है । गोम्मटसार कर्मकाण्डका यह कथन तभी बनता है जब धन-सम्पत्ति और दरिद्रता आदिको शुभ और अशुभ कर्मोंके उदयमें निमित्त माना जाता है। कम अवान्तर भेद करके उनके जो नाम और जातियाँ गिनाई गई हैं उनको देखनेसे भी ज्ञात होता है कि बाह्य सामग्रियोंकी अनुकूलता और प्रतिकूलता में कर्म कारण नहीं है। बाह्य सामग्रियोंकी अनुकूलता और प्रतिकूलता या तो प्रयत्नपूर्वक होती है या सहज For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] . कर्म और उसका कार्य २५० ही होती है। पहले साता वेदनीयका उदय होता है इस बुराईको दूर करना है और तब जाकर इष्ट सामग्रीकी प्राप्ति होती है ऐसा नहीं है किन्तु इष्ट सामग्रीका निमित्त पाकर साता यद्यपि जैन कर्मवादकी शिक्षाओं द्वारा जनताको यह बतलाया गया कि जन्मसे न कोई छूत होता है वेदनीयका उदय होता है ऐसा है। और न अछूत । यह भेद मनुष्यकृत है। एकके पास रेलगाड़ीसे सफर करनेपर या किसी मेलामें हमें अधिक पूँजीका होना और दूसरेके पास एक दमड़ी कितने ही प्रकारके आदमियोंका समागम होता है। का न होना, एकका मोटरोंमें घूमना और दूसरेका कोई हँसता हुआ मिलता है तो कोई रोता हुआ। भीख माँगते हुए डोलना यह भी कर्मका फल नहीं है, इनसे हमें सुख भी होता है और दुख भी। तो क्या क्योंकि यदि अधिक पूँजीको पुण्यका फल और पूँजी . ये हमारे शुभाशुभ कर्मोंके कारण रेलगाड़ीमें सफर के न होनेको पापका फल माना जाता है तो अल्पकरने या मेला ठेला देखने आये हैं ? कभी नहीं। संतोषी और साधु दोनों ही पापी ठहरेंगे। किन्तु इन . जैसे हम अपने कामसे सफर कर रहे हैं बसे वे भी शिक्षाओंका जनता और साहित्यपर स्थायी असर अपने अपने कामसे सफर कर रहे हैं। हमारे और नहीं हुआ। उनके संयोग-वियोगमें न हमारा कर्म कारण है और न अन्य लेखकोंने तो नैयायिकोंके कवादका उनका ही कर्म कारण है। यह संयोग या वियोग या तो प्रयत्नपूर्वक होता है या काकतालीयन्यायसे समर्थन किया ही, किन्तु उत्तरकालवी जैन लेखकोंने सहज होता है । इसमें किसीका कर्म कारण नहीं है। - - जो कथासाहित्य लिखा है उससे भी प्रायः नैयायिक फिर भी यह अच्छे बुरे कर्मके उदयमें सहायक होता कर्मवादका ही समर्थन होता है। वे जैन कर्मवादके रहता है। आध्यात्मिक रहस्यको एक प्रकारसे भूलते ही गये और. उनके ऊपर नैयायिक कमवादका गहरा रंग नैयायिक दर्शनकी आलोचना चढ़ता गया । अन्य लेखकों द्वारा लिखे गये कथा साहित्यको पढ़ जाइये और जैन लेखकों द्वारा लिखे ___ इस व्यवस्थाको भ्यानमें रख कर नैयायिकोंके · गये कथा-साहित्यको पढ़ जाइये । पुण्य-पापके वर्णन कर्मवादकी आलोचना करनेपर उसमें हमें अनेक दोष करनेमें दोनोंने कमाल किया है। दोनों ही एक दृष्टिदिखाई देते हैं। वास्तवमें देखा जाय तो आजकी कोणसे विचार करते हैं । अन्य लेखकोंके समान सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था और एकतन्त्रके जैन लेखक भी बाह्य आधारको लेकर चलते हैं। वे प्रति नैयायिकोंका कर्मवाद ओर ईश्वरवादही उत्तरदायी जैन मान्यताके अनुसार कर्मों के वर्गीकरण और उनके है। इसीने भारतवर्षको चालू व्यवस्थाका मुलाम बनाना अवान्तर भेदोंको सर्वथा भूलते गये। जैन दर्शनमें सिखाया। जातीयताका पहाड़- लाद दिया। परिग्रह- यद्यपि कर्मोके पुण्य - कर्म और पाप कर्म ऐसे भेद वादियोंको परिग्रहके अधिकाधिक संग्रह करनेमें मदद मिलते हैं पर इससे बाह्य सम्पत्तिका अभाव पाप दी। गरीबीको कर्मका दुर्विपाक बताकर सिर न कर्मका फल है और सम्पत्ति पुण्य कर्मका फल है यह उठाने दिया । छूत-अछूत और स्वामी-सेवक-भाव नहीं सिद्ध होता । गरीब होकर भी मनुष्य सुखी देखा पैदा किया । ईश्वर और कर्मके नामपर यह सब हमसे जाता है और सम्पत्तिवाला होकर भी वह दुखी देखा कराया गया। धर्मने भी इसमें मदद की। विचारा जाता है। पुण्य और पापकी व्याप्ति सुख और दुखसे कर्म तो बदनाम हुआ ही धर्मको भी बदनाम होना की जा सकती है, अमीरी गरीबीसे नहीं। इसीसे जैन पड़ा। यह रोग भारतवर्ष में ही न रहा । भारतवर्षके दर्शनमें सातावेदनीय और असाता वेदनीयका फल बाहर भी फैल गया। सुख दुख बतलाया है, अमीरी गरीबी नहीं। किन्तु For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. २६० . अनेकान्त [ वर्ष ६ जैन साहित्यमें यह दोष बराबर चालू है । इसी दोषके स्पष्ट घोषणा की थी कि सब मनुष्य एक हैं। उनमें कारण जैन जनताको कर्मकी अप्राकृतिक और कोई जातिभेद नहीं है। बाह्य जो भी भेद है वह अवास्तविक उलझनमें फँसना पड़ा है। जब वे कथा- आजीविकाकृत ही है। व्यक्ति-स्वातन्त्र्य यह जैनधर्म ग्रन्थोंमें और सुभाषितोंमें यह पड़ते हैं कि पुरुषका का सार है। इसकी उसने सदा रक्षा की है। यद्यपि भाग्य जागनेपर घर बैठे ही रत्न मिल जाते हैं और जैन लेखकोंने अपने इस मतका बड़े जोरोंसे समर्थन भाग्यके अभावमें समुद्रमें पैठनेपर भी उनकी प्राप्ति किया था, किन्तु व्यवहारमें वे इसे निभा न सके। 'नहीं होती। सर्वत्र भाग्य ही फलता है। विद्या और धीरे-धीरे पड़ौसी धर्मके अनुसार उनमें भी जातीय पौरुष कुछ काम नहीं आता । तब वे कर्मवादके भेद जोर पकड़ता गया। जैन कर्मवादके अनुसार सामने अपना मस्तक टेक देते हैं। वे जैन कर्मवादके · उच्च और नीच यह भेद परिणामगत है और चारित्र आध्यात्मिक रहस्यको सदाके लिये भूल जाते हैं। उसका आधार है। फिर भी उत्तर लेखक इस सत्यको __ वर्तमान कालीन विद्वान् भी इस दोषसे अछते भूलकर आजीविकाके अनुसार उच्च - नीच भेदको नहीं बचे हैं। वे भी धनसम्पत्तिके सद्भाव और मानन लग। असद्भावको पुण्य-पापका फल मानते हैं। उनके यद्यपि वर्तमानमें हमारे साहित्य और विद्वानोंकी सामने आर्थिक व्यवस्थाका रसियाका सुन्दर उदाहरण . यह दशा है तब भी निराश होनेकी कोई बात नहीं है । । रसियामें आज भी थोड़ी बहत आर्थिक विषमता हमें पुनः अपनी मूल शिक्षाओंकी ओर ध्यान देना नहीं है, ऐसा नहीं है। प्रारम्भिक प्रयोग है। यदि है। हमें जैन कर्मवादके रहस्य और उसकी मर्यादाओं उचित दिशामें काम होता गया और अन्य परिग्रह- को समझना है और उनके अनुसार काम करना है। वादी अतएव प्रकारान्तरसे भौतिकवादी राष्ट्रोंका माना कि जिस बुराईका हमने ऊपर उल्लेख किया है अनुचित दबाव न पड़ा तो यह आर्थिक विषमता थोड़े वह जीवन और साहित्यमें घुल-मिल गई है पर यदि दिनकी चीज है। जैन कर्मवादके अनुसार साता- इस दिशामें हमारा दृढतर प्रयत्न चालू रहा तो वह असाता कर्मकी व्याप्ति सुख-दुखके साथ है, बाह्य पूँजी- दिन दूर नहीं जब हम जीवन और साहित्य दोनोंमें के सद्भाव-असद्भावके साथ नहीं। किन्तु जैन लेखक आई हुई इस बुराईको दूर करनेमें सफल होंगे। और विद्वान् आज इस सत्यको सर्वथा भूले हुए है। समताधर्मकी जय। गरीबी और पूँजीको पाप-पुण्य सामाजिक व्यवस्थाके सम्बन्धमें प्रारम्भमें यद्यपि कर्मका फल न बतलाने वाले कर्मवादकी जय । छूत जैन लेखकोंका उतना दोष नहीं है। इस सम्बन्धमें और अछूतको जातिगत या जीवनगत न माननेवाले उन्होंने सदा ही उदारताकी नीति बरती है। उन्होंने कर्मवादकी जय । परम अहिंसा धर्मकी जय । जैन जयतु शासनम् For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पुरातन अवशेष [ विहङ्गाऽवलोकन ] ( लेखक - मुनि कान्तिसागर ) [गत किरणसे आगे] दक्षिणभारतमें श्रवणबेलगोला में अनेकों महत्वपूर्ण लेखोंकी उपलब्धि हुई है, जो दिगम्बर जैन समाजसे सम्बद्ध हैं। इन लेखोंका देवनागरी लिप्यंतर एवं तदुपरि सुविस्तृत ऐतिहासिक प्रस्तावना - सहित बम्बई - से प्रकाशन भी होचुका है। काम अवश्य ही उस समयकी प्राप्त सामग्रीके आधारोंकी अपेक्षा सन्तोषप्रद ही कहा जासकता है । दशम शती पूर्वके बहुसंख्यक लेख और भी मिल सकते हैं यदि गवेषणा कीजाय तो । मध्यकालीन जैन लेखोंकी संख्या अवश्य ही प्राचीनकाल की अपेक्षा कुछ अधिक है । क्योंकि मध्यकाल में जैनों की उन्नति भी खूब रही। राजवंशों में जैन गृहस्थ सभी उच्च स्थानपर प्रतिष्ठित थे । जैनाचार्य उनकी सभा के बुधजनों में आदर ही प्राप्त न करते थे. कहीं-कहीं तो विद्वानोंके अग्रज भी थे, ऐसी स्थिति में साधनों बाहुल्यताका होना सर्वथा स्वाभाविक है । जैसलमेर, राजगृह ( महठियाण - प्रशस्ति), पावापुरी, सम्पूर्ण गुजरात और राजपूताना आदि प्रान्तोंमें जो कुछ प्राचीन लेख प्राप्त किये गये हैं उनका बहुत ही कम भाग 'एपिग्राफिका इंडिया' या 'इंडियन एटीकेरी' में छपा है । स्वर्गीय बाबू पूरनचन्दजी नाहर मुनि श्रीजिनविजयजी, विजयधर्मसूरिजी मुनिराज पुण्यविजयजी, नन्दलालजी लोढा, डा० डी० आर० भांडारकर, डा० सांकलिया आदि कुछ विद्वानोंने समय समयपर सामयिकोंमें प्रकाश डाला है । पर आज उनको कितना समय होगया, बहुतसे सामयिक भी 'सर्वत्र प्राप्त नहीं, ऐसी स्थितिमें साधारण श्र ेणीके लोग तो उन्हें पढ़नेसे ही वचित रह जाते हैं। बहुत कम लोगोंको पता है कि हमारे लेखोंपर कौन कौन काम कर चुके हैं । एक बातका उल्लेख मैं प्रसङ्गवशात् करदूं कि प्राचीन और मध्यकालीन लेख निर्माण और खुदाई में अंतर था इस विषयपुर फिर कभी प्रकाश डाला जायगा । अजैन विद्वानोंका बहुत बड़ा भाग यह मानता आया है कि ये जैन लेख केवल जैन इतिहास के लिये ही उपयोगी हैं सार्वजनिक इतिहाससे इनका कोई सम्बन्ध नहीं है । परन्तु ऐसा उनका मानना सत्य से दूर है, कारण कि जैन लेखोंका महत्व तो राजनैतिक दृष्टिसे किसी भी रूपमें कम नहीं। राजस्थान और गुजरातके जो लेख छपे हैं उनसे यही प्रमाणित हो चुका है कि उस समयकी बहुतसी महत्वपूर्ण राजनैतिक घटनाओं का पता इन्हींसे चलता है । कामराका जो बीकानेर स्टेटपर आक्रमण हुआ था वह घटना तत्रस्थ लेख में है । गोमटेश्वरके लेखोंसे तो उस समय के दूधके भावों तकका पता चल जाता है । मैं उदाहरण मात्र दिये हैं । समस्त लेखोंकी एक विस्तृत सूची ( कौन लेख कहाँ हैं ? विषय क्या है ? मुख्य घटना क्या-क्या है ? संवत् किसका है ? लिपि पंक्ति आदि बातोंका व्योरा रहने से सरलता रहेगी) तो बन ही जानी चाहिये । मैं तो यह चाहूँगा कि सम्पूर्ण लेखोंकी एक माला ही प्रकट होजाय तो बहुत बड़ा काम होजाय, प्रत्येक पत्र वाले इस कामको उठा लेंदो चार लेख प्रकाशनकी व्यवस्था करलें तो एक नया क्षेत्र तैयार होजायगा । शर्त यह कि साम्प्रदायिक For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ अनेकान्त मनोभावोंसे काम न लिया जाय । सत्यको प्रकट कर. देने में ही जैनधर्मकी ठोस सेवा है । २ प्रतिमा लेखोंकी चर्चा यों तो प्रसङ्गानुसार उपर्युक्त पंक्तियों में हो चुकी है कि दशम शतीके बाद इसका विकास हुआ। ज्यों-ज्यों प्रतिमाएँ बड़ी-बड़ी बनती गईं त्यों-त्यों उनके निर्माण-विधान में भी कलाकारोंने परिवर्तन करना प्रारम्भ कर दिया । १२वीं शती से लगातार आज तक जो-जो मूर्तियें बनीं उनकी बैठकके पश्चात् और अग्रभागमें स्थान काफी छूट जाता था वहीं पर लेख खुदवाए जाते थे। स्पष्ट कहा जाय तो इसीलिये स्थान छोड़ा जाता था। जब कि पूर्व में इस स्थानपर धर्मचक्र या विशेष चिह्न या नवग्रह आदि बनाये जाते देखे गये हैं । लेखोंमें प्रतिस्पर्द्धा भी थी, धातुप्रतिमाओं पर भी संवत्, प्रतिष्ठापक आचार्य, निर्मापक, स्थान आदि सूचक लेख रहते थे, जब पूर्वकालीन प्रतिमा केवल संवत् और नामका ही , निर्देश रहता था । हाँ, इतना कहना पड़ेगा कि जैनोंने चाहे पाषाण या धातु ही प्रतिमा क्यों न हो, पर उनमें लिपि-सौंदर्य ज्योंका त्यों सुरक्षित रखा, मध्य कालीन लिपि - विकासके इतिहासमें वर्णित जैन लेखा का स्थान अनुपम है । दिगम्बर जैनसमाजकी अपेक्षा श्वेताम्बरोंने इसपर अधिक ध्यान दिया है । कभी-कभी प्रतिमाओं के पश्चात् भागों में चित्र भी खोदे जाते थे । ये लेख हजारोंकी संख्यामें प्रकट होचुके हैं पर अप्रका शित भी कम नहीं' । २५०० बीकानेरके हैं ५०० मेरे संग्रहमें हैं, श्रीसाराभाई नबाबके पास सैकड़ों हैं और भी होंगे। इनकी उपयोगिता केवल जैनोंके लिये ही है इसे मैं स्वीकार न करूँगा । १ श्राज भी अनेकों प्रतिमाएँ ऐसी हैं जिनके लेख नहीं लिये गये । दिगम्बर प्रतिमाओं की संख्या इसमें अधिक । जैन मुनि विहार करते हैं वे कम से कम खाने वाले मन्दिर के लेख लेलें, तो काम हल्का होजायगा, दि० मुनियोंके साथ जो पंडितादि परिवार रहता है वह भी कर सकता है; क्योंकि दि० मन्दिरोंमें श्वेताम्बरोंको स्वाभाविक सुविधा नहीं मिलती है, मुझे अनुभव है । [ वर्ष उपर्युक्त पंक्तियोंसे जैनोंके कलात्मक विशिष्ट अवशेषका स्थूलाभास मिल जाता है, एवं इस बातका भी पता चल जाता है कि हमारे पूर्व पुरुषोंने कितनी महान् अखूट सम्पत्ति रख छोड़ी है। सच कहा जाये तो किसी भी सभ्य समाजके लिये इनसे बढ़कर उचित और प्रगति पथ-प्रेरक उत्तराधिकार हो ही क्या सकता है ? सांस्कृतिक दृष्टिसे इन शिलाखण्डों का बहुत बड़ा महत्व है, मैं तो कहूँगा हमारी और सारे राष्ट्रकी उन्नतिके अमर तत्त्व इन्हींमें लुप्त हैं। बाहरी अनार्यम्लेच्छोंके भीषण आक्रमणोंके बाद भी सत्य पारम्परिक दृष्टिसे अखण्डित है । अत: किन किन दृष्टियों से इनकी उपयोगिता है यह आजके युगमें बताना पूर्व कथित उक्तियोंका अनुसरण या पिष्टपेषण मात्र है। समय निःस्वार्थ भाव से काम करनेका है। समय अनुकूल है । वायुमण्डल साथ है । अनुशीलनके बाह्य साधनोंका और शक्तिका भी अभाव नहीं । अब यहाँ पर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इतने विशाल प्रदेशमें प्रसारित जैन अवशेषोंकी सुरक्षा कैसे की जाय और उनके सार्वजनिक महत्वसे हमारे जैन विद्वत्समाजको कैसे परिचय कराया जाय, दोनों प्रश्न गम्भीर तो हैं पर जैन जैसी धनी समाजके लिये असम्भव नहीं हैं । जो अवशेष भारत सरकार द्वारा स्थापित पुरातत्त्वके अधिकारमें और जैन मन्दिरों में विद्यमान हैं वे तो सुरक्षित हैं ही, परन्तु जो यत्र तत्र सर्वत्र खण्डहरोंमें पड़े हैं और जैन समाजके अधिकार में भी ऐसी वस्तुएँ हैं जिनके महत्वको न तो समाज जानता है न उनकी ओर कोई लक्ष ही है । मैंने अवशेषों के प्रत्येक भागमें सूचित किया है कि जैन पुरातत्त्व विषयक एक स्वतन्त्र ग्रन्थमाला ही स्थापित की जाय जिसमें निम्न भागोंका कार्य सञ्चालित हो: १ - जैनमन्दिरोंका सचित्र ऐतिहासिक परिचय । २ - जैन गुफाएँ और उनका स्थापत्य, सचित्र | ३ – जैन प्रतिमाओं की कलाका क्रमिक विकास । इसे चार भागों में बाँटना होगा । तभी कार्य सुन्दर और व्यवस्थित हो सकता है। जैनलेख । इसे भी चार भागों में विभाजित करना For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] जैन पुरातन अवशेष पड़ेगा – १ प्राचीन प्रस्तर लेख, २ सम्पूर्ण प्रतिमा लेख जो प्रस्तरपर है', ३ मध्यकालीन प्रस्तर लेख, ४ धातु प्रतिमाओं के लेख । ५ - भिन्न भिन्न विविध भावदर्शक' जो शिल्प मिलते हैं, उनको सचित्ररूपमें जनता के सम्मुख रखा जाय, यह कार्य कुछ कठिन अवश्य है पर है महत्व पूर्णं । ६ -- जैनकलासे सम्बद्ध मन्दिर, प्रतिमाएँ, मानस्तम्भ, लेख, गुफाएँ आदि प्रस्तरोत्कीर्ण शिल्पोंकी ऐसी सूची तैयार की जानी चाहिये जिससे पता चल १ इस विभागपर यद्यपि कार्य होचुका है पर जो श्रवशिष्ट है उसे पूर्ण किया जाय । २ इस प्रकारके विविध भावोंके परिपूर्ण शिल्पोंकी समस्या तब ही सुलझाई जा सकती है जब प्राचीन साहित्यका तलस्पर्शी अध्ययन हो, एक दिन मैं रॉयल एशियाटिक सोसाइटीके रीडिंगरूममें अपने टेबलपर बैठा था इतनेमें मित्रवर्य श्रद्धेन्दुकुमार गांगुलीने — जो भारतीय कलाके महान् समीक्षक और 'रूपम्' के भूतपूर्व सम्पादक थे— मुझे एक नवीन शिल्पकृतिका फोटू दिया, उनके पास बड़ौदा पुरातत्त्व विभागकी ओरसे आया था कि वे इस पर प्रकाश डालें, मैंने उसे बड़े ध्यान से देखा, बात समझ में आई कि यह नेमिनाथजीकी बरात है पर यह तो तीन चार भागों में विभक्त था, प्रथम एक तृतियांशमें नेमिनाथ जी विवाह के लिये रथपर श्रारूढ़ होकर जारहे हैं, पथपर मानव समूह उमड़ा हुआ है, विशेषता तो यह थी सभीके मुखपर हर्षोल्लास के भाव झलक रहे थे, रथके पास पशु रुध था, आश्चर्यान्वितभावोंका व्यक्तिकरण पशुमुखोंपर बहुत अच्छे ढंग से व्यक्त किया गया था, ऊपरके भागमें रथ पर्वतकी र प्रस्थित बताया है। इस प्रकारके भावों की शिल्पों की स्थिति अन्यत्र भी मैंने देखी है पर इसमें तो और भी भाव थे जो अन्यत्र शायद आज तक उपलब्ध नहीं हुए । यही इसकी विशेषता है । ऊपरके भाग में भगवानका लोच बताया है, देराना भी है और निर्वाण महोत्सव भी है, दक्षिण कोनेपर राजिमतीकी दीक्षा और गुफा में कपड़े सुखानेका दृश्य सुन्दर है इतने भावका व्यक्तिकरण जैन कलाकी दृष्टिसे बहुत महत्व : " २६३ जाय कि कहाँपर क्या है ? इसमें अजायबघरोंकी सामग्री भी आजानी चाहिये' । जबतक उपर्युक्त कार्य नहीं होजाते हैं तबतक जैन पुरातत्त्वका विस्तृत या संक्षिप्त इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता। कई बार मैंने अपने परम श्रद्धेय और पुरातत्त्व विषयक मेरी प्रवृत्तिके प्रोत्साहक पुरातत्त्वाचार्य श्रीमान् जिनविजयजी आदि कई मित्रोंसे कहा कि आप पुरातत्त्वपर जैन दृष्टिसे क्यों न कुछ लिखें, सर्व स्थानोंसे एक उत्तर मिलता है “साधना कहाँ है ?" बात यथार्थ है । सामग्री है पर उपयुक्त प्रयोक्ताके अभावमें यों ही दिनं प्रतिदिन नष्ट हो रही है । मेरा विश्वास है कि हमारी इस पीढ़ीका काम है साधनोंको एकत्रित करना, विस्तृत अध्ययन, मनन और लेखन तो अगली परम्पराके विद्वान करेंगे । साधनोंको टटोलने में भी बहुत समय लग जायगा । जैन मन्दिरों, गुफाओं और प्रतिमाओं आदिके प्राचीन चित्र कुछ तो प्रकाशित हुए हैं फिर भी अप्रकट भी कम नहीं; जो प्रकट हुए हैं वे केवल प्राचीनताको प्रमाणित करनेके लिये ही, उनपर कला के विभिन्न अङ्गपर समीक्षात्मक प्रकाश डालनेका प्रयास नहीं किया गया है। रायल एशियाटिक सोसाइटी लन्दन और बङ्गाल, 'आर्किलोजिकल सर्वे आफ इण्डिया' के रिपोर्ट 'रूपम् ' 'इण्डियन आर्ट एण्ड इण्डस्ट्री', 'सोसाइटी ऑफ दी इण्डियन ओरिएन्टल आर्ट बम्बई यूनिवर्सिटी', 'जनरल ऑफ दी अमेरिकन सोसाइटी ऑफ दी आर्ट', 'भांडारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्सिटिट्यूट' 'इण्डियन कलचर' आदि जनरल्स एवं भारतीय अभारतीय आश्चर्य गृहोंकी सूचियोंमें जैन पुरातत्त्व और कलाके मुखको उज्वल करने वाली सामग्री पर्याप्तमात्रामें भरी पड़ी है (जैन पुरातत्त्व विस्तृत ग्रंथ सूची और अवशेषोंकी एक सूची मैंने ' रखता है । मेरे इसका उदाहरण देनेका एक ही प्रयोजन है कि ऐसे साधन जहाँ कहीं प्राप्त हों तुरन्त फोटू तो उतरवा ही लेना चाहिये । १ इन छहों विभागोंपर किस पद्धतिसे काम करना होगा इसकी विस्तृत रूपरेखा मैं अलग निबन्धमें व्यक्त करूंगा। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अनेकान्त [ वर्ष प्रारम्भ करदी है) कुछ अवशेष भी अभी कारखानेमें होजानेके बाद स्थान निश्चित होजायें तब) अपने प्रांत बन्द हैं। इन सभीकी सहायतासे काम प्रारम्भ कर जिले और तहसीलमें पाये जाने वाले जैन अवशेषों देनी चाहिये । परन्तु एक बातको ध्यानमें रखना की सूचना; यदि संभव होसके तो वर्णनात्मक परिचय आवश्यक है कि.जहाँ तक होसके अपनी मौलिक खोज और चित्र भी, भेजकर सहायता प्रदान करें। क्योंकि को ही महत्व देना चाहिए, अपनी दृष्टिसे जितना बिना इस प्रकारके सहयोगके काम सुचारु रूपसे अच्छा हम अपने शिल्पोंको देख सकेंगे उतना दूसरी चल न सकेगा, यदि प्रान्तीय संस्थाएँ प्रान्तवार इस दृष्टिसे संभव नहीं। कामको प्रारम्भ करदें तो अधिक अच्छा होगा, कमसे __इन कामोंको कैसे किया जाय यह एक समस्या है कम उनकी सूची तो अवश्य ही 'अनेकान्त' कार्यालय मुझे तो दो रास्ते अभी सूझ रहे हैं: में भेजें, वैसे निबन्ध भी भेजें, उनको सादर सप्रेम १ पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी, बाबू छोटे . आमन्त्रण है। लालजी जैन डा. हीरालाल जैन, डा० ए० एन० अब रही आर्थिक बात, जैनोंके लिये यह प्रश्न तो उपाध्ये, मुनि पुण्यविजयजी, विजयेन्द्रसूरि, बाबू मेरी विनम्र सम्मतिके अनुसार उठना ही नहीं चाहिये जुगलकिशोर मुख्तार, पं० नाथूरामजी प्रेमी, डा. क्योंकि देव द्रव्यकी सर्वाधिक सम्पत्ति जैनोंके पासमें बूलचन्द, डा० बनारसीदासजी जैन, श्री कामताप्रसाद है, इससे मेरा तो निश्चित मत है कि समस्त भारतीय जी जैन, डा० हँसमुख सांकलिया, मि० उपाध्याय, श्री सम्प्रदायोंकी अपेक्षा जैनी चाहें तो अपने स्मारकोंको उमाकान्त प्रे० शाह, डा. जितेन्द्र बैनरजी, प्रो. अच्छी तरह रख सकते हैं । इससे बढ़कर और क्या अशोक भट्टाचार्य, श्रीयुत अर्द्वन्दुकुमार गांगुली, डा० सदुपयोग उस सम्पत्तिका समयको देखते हुए हो सकता कालीदास नाग, अंजुली मजूमदार, डा. स्टेला, है । अपरिग्रह पूर्ण जीवन यापन करने वाले वीतराग श्रीरणछोड़लाल ज्ञानी, डा० मोतीचन्द, डा० अग्रवाल, परमात्माके नामपर अटूट सम्पत्ति एकत्र करना उनके डा० पी० के. आचार्य, डा. विद्याधर भट्टाचार्य, सिद्धान्तकी एक प्रकारसे नैतिक हत्या करना है। यदि अगरचन्द नाहटा, साराभाई नबाब आदि जैन एवं इस सम्पत्तिके रक्षक (?) इस कार्यके लिये कुछ रकम जैन पुरातत्त्वके विद्वान एवं अनुशीलक व्यक्तियोंका देदें तो उत्तम बात, न दें तो भी सारा भारतवर्ष पड़ा एक "जैन पुरातत्त्व संरक्षक संघ' स्थापित करना हुआ है माँगके काम करना है, तब चिन्ता ही किस चाहिये । इनमेंसे जो जिस विषयके योग्य विद्वान हों बातकी है। मेरी सम्यत्यनुसार यदि "भारतीय ज्ञानउनको वह कार्य सौंपा जाय । ऊपर मैंने जो नाम दिये पीठ" काशी इस कार्यको अपने नेतृत्वमें करावें तो हैं उनमेंसे ११ व्यक्तियोंको मैंने अपनी यह योजना क्या कहना, क्योंकि उन्हें श्रीमान पं० महेन्द्रकुमार मौखिक कह सुनाई थी, जो सहर्ष योगदान देनेको न्यायाचार्य, बा० लक्ष्मीचन्दजी एम० ए० और श्रीतैयार हैं। हाँ कुछेक पारिश्रमिक चाहेंगे। इसकी कार्य अयोध्याप्रसादजी गोयलीय जैसे उत्कृष्ट संस्कृति प्रेमी पद्धतिपर विद्वान जैसे सुझाव दें वैसे ढङ्गसे विचार और परिश्रम करने वाले बुद्धि जीवी विद्वान प्राप्त हैं । किया जासकता है । उनको सादर आमन्त्रण है। मान पूर्व में ग्राहक बनाना प्रारम्भ करदें तो भी कमी नहीं लीजिये संघ स्थापित होगया । परन्तु इसकी संकलना रह सकती। ये बातें केवल यों ही लिख रहा हूँ सो तभी संभव हैं जब प्रत्येक प्रान्त और जिलेके व्यक्तियों बात नहीं है आज यदि कार्य प्रारम्भ होता है तो ५०० का हार्दिक और शारीरिक सहयोग प्राप्त हो; क्योंकि प्राहक आसानीसे तैयार किये जासकते हैं ऐसा मेरा जिन-जिन प्रान्तोंमें जैन संस्थाएँ हैं उनके पुरातत्त्व दृढ़ अभिमत है। प्रेमी कार्यकर्ताओं और प्रत्येक जिलेके शिक्षित जैनों २ दूसरा उपाय यह है कि जितने भी-भारतमें का परम कर्तव्य होना चाहिए कि वे (यदि स्थापित जैन विद्यालय या कॉलेज हैं उनमें अनिवार्यरूपसे जैन Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] कलावशेषोंका ज्ञान प्राप्त करनेकी व्यवस्था होनी चाहिए, कमसे कम सप्ताहमें एक क्लास तो होना हो चाहिए | इससे विद्यार्थियोंके हृदयमें कला भावनाके अँकुर फूटने लगेंगे, होसकता है उनमेंसे कर्मठ कार्यकर्ता भी तैयार होजायें । ग्रीष्मावकाशमें जो शिक्षण शिविर” होता है उसमें भी ३-४ भाषण इस विषयपर आयोजित हों तो क्या हर्ज है गत वर्ष कलकत्तासे मैंने विद्वत् परिषदके मन्त्रीजीका ध्यान शिल्पकला पर भाषण दिलानेकी ओर आकृष्ट किया था पर ३-३ पत्र देनेके बावजूद भी उनकी ओरसे कोई उत्तर आज तक मैं प्राप्त न कर सका । संस्कृत के विद्वानोंको इतनी इन जैन पुरातन अवशेष उपेक्षा न करनी चाहिए। जिस युग में हम जाते हैं और आगामी नवनिर्माणमें यदि हमें अपना सांस्कृतिक योगदान करना है तो पाषाणोंसे ही मस्तिष्कको टकराना होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस विषयका साहित्य सामूहिक रूपसे एक स्थानसे प्रकाशित नहीं हुआ, अतः वक्ताको परिश्रम तो करना होगा, उन्हें पर्याप्त अध्ययन के बाद वर्णित कृतियोंके साथ चक्षुसंयोग भी करना आवश्यक होगा । अस्तु, आगे ध्यान दिया जायगा तो अच्छा है । मैं विश्वास के साथ कहता हूँ कि वे यदि इस विषयपर ध्यान देंगे तो वक्ता की कमी नहीं रहेगी, वर्तमानमें मैं देखता हूँ कि लोग शीघ्र कह डालते हैं कि क्या करें, कोई विद्वान नहीं मिलता है इसका कारण यही प्रतीत होता है कि सभी विषयके विद्वानों का सम्पर्क न होना । जैन शिल्पकला के विशाल ज्ञान प्राप्त करनेका यह भी मार्ग है कि या तो स्वतन्त्ररूपसे इसके गम्भीर - साहित्यादिका अध्ययन किया जाय, बादमें अवशेषों का विशिष्टदृष्टिसे खासकर तुलनात्मकदृष्टिसे समुचित निरीक्षण किया जाय अथवा एतद्विषयक विशिष्ट विद्वानोंके पास रहकर कुछ प्राप्त किया जाय, दूसरा तरीका सर्वश्रेष्ठ है बिना ऐसा किये हमारा अध्ययनसूत्र विस्तृत और व्यापक मनोभावों तक पहुँचेगा नहीं । अस्तु । जैन समाज के पास कोई भी ऐसा व्यापक अजायबघर भी नहीं जिसमें सांस्कृतिक सभी समस्याओं २६५ को प्रकाशित करने वाले मौलिक साधन सुरक्षित रखे जायें, अलग-अलग कुछ गृहस्थोंके पास सामग्रियाँ हैं पर उनका देखना सभीके लिये सम्भव नहीं जब तक उनकी वैयक्तिक कृपा न हो । मैं जैनतीर्थों और प्राचीन मन्दिरोंके जीर्णोद्धार करानेवाले धनवानोंको कहूँगा कि जहाँ कहींका भी जीर्णोद्धार करावें भूलकर भी प्राचीन वस्तुको समूल नष्ट न करें, न जाने क्या बुरी हवा हमारे समाजपर अधिकार जमाए हुए हैं कि लोग पुरानी कलापूर्ण सामग्रीको हटाकर तुरन्त मकरानेके पत्थर से रिक्त स्थानकी पूर्ती कर देते हैं और वे अपनेको धन्य भी मानते हैं । यही बड़ी भारी भूल है । न केवल जैन समाजको ही, अपितु सभी भारतीयोंकों संगमरमर पाषाणका बड़ा मोह लगा हुआ है जो सूक्ष्म कलाकौशलको पनपने नहीं देता । प्राचीन मन्दिर और कलापूर्ण जैनाद प्रतिमा एवं अन्य शिल्पोंके दर्शनका जिन्हें थोड़ा भी सौभाग्य प्राप्त है वे दृढ़ता पूर्वक कह सकते हैं कि पुरातन प्रबल कल्पनाधारी कलाकार और श्रीमन्तगण अपने ही प्रान्तमें प्राप्त होने वाले पाषाणोंपर ही विविध भावोत्पादक शिल्पका प्रवाह बड़ी ही योग्यता पूर्वक प्रवाहित करते - करवाते थे, वे इतनी शक्ति रखते थे कि कैसे भी पाषाणको वे अपने अनुकूल बना लेते थे, उनपर कीगई पालिश आज भी स्पर्द्धाकी वस्तु है । अल्प परिश्रमसे आज लोग सुन्दर शिल्पकी जो आशा करतें हैं वह दुराशा मात्र है । मेरी रुचि थी कि मैं जैन शिल्पकला के जो जो फुटकर चित्र जहाँ कहीं भी प्रकाशित हुए हैं उनकी विस्तृत सूची एवं जिन महानुभावोंने उपर्युक्त विषयपर आजतक महान् परिश्रम कर जो महद् प्रकाश प्रकाशित स्थान या पत्रादिका, उल्लेख कर दूं. परन्तु यों भी नोटका निबन्ध तो बन ही गया है अतः अब कलेवर बढ़ाना उचित न जानकर केवल अति संक्षिप्त रूपसे इतना ही कहूंगा कि 'भारतीय जैन तीर्थ और उनका शिल्प स्थापत्य' नामक एक ग्रन्थ जैन शिल्प विद्वान् श्री साराभाई नवाबने श्रम For Personal & Private Use Only . Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अनेकान्त - [वर्ष पूर्वक प्रकट किया है, पर इस संग्रहमें केवल कलात्मक ध्यानसे बाहर नहीं है पर मैं जानबूझ कर उनको यहाँ दृष्टिसे ही काम लिया जाता तो ग्रन्थका महत्व उल्लिखित नहीं कर रहा हूँ। सम्भव है यदि समय निःसंहेह बहुत बढ़ जाता, ऐसे मूल्यवान ग्रन्थोंमें और शक्तिने साथ दिया तो अगले निबन्धमें लिखू। विषयके सार्वभौमिक महत्वपर प्रकाश डालने वाली इस निबन्धमें सबसे बड़ी कमी जो चित्रोंकी रह गई भूमिका न हो, सबसे बड़ी कमी है । श्वेताम्बर इसे मैं दुःख पूर्वक स्वीकार करता हूँ। क्योंकि समस्त सम्प्रदायसे इन चित्रोंका सम्बन्ध है। मैं आशा करता प्रकृतियोंकी व्यवस्था न सका. एक कारण यह भी है कि हूँ कि भविष्यमें जो भी भाग प्रकट होंगे उनमें इसकी निबन्ध लेखन कार्य विहारमें ही हुआ है। यदि किसी पूर्तिपर समुचित ध्यान दिया जायगा, जब एक नवीन भी प्रकारकी स्खलनाएँ रह गई हो तो पाठक मुझे विषयको लेकर कोई भी व्यक्ति समाजमें उपस्थित हों अवश्य ही सूचित करें । जैन संस्कृति प्रेमी भाई और विषय स्फोटिनी भूमिका न हो तो जिनको शिल्प बहनोंको एवं गवेषकोंसे मेरा निवेदन है कि. वे ऊपर का सामान्य भी ज्ञान न हो तो वे उसे कैसे तो समझ सूचित कार्यमें अधिकसें अधिक सहायता प्रदान करें। सकते हैं और क्या ही उनके आन्तरिक मर्मको यदि किसी भी अंशमें निबन्ध उपयोगी प्रमाणित हृदयङ्गम कर कार्य आगे बढ़ा सकते है। "बाबू" भी हुअा हो तो मैं अपना अत्यन्त क्षुद्रप्रयास सफल इसी प्रकार है। जैन संस्थाएँ या मुनिवर्ग इसकी समदूंगा। उपेक्षा करते हैं । अबसे इसे ध्यानमें रखा जाय। गङ्गासदन, पटनासिटी - जैन पुरातत्त्वकी और भी जो शाखाएँ हैं वे मेरे ता० १३-५-१९४८ वैशाली-(एक समस्या) (लेखक-मुनि कान्तिसागर, पटना सिटी) . इसमें कोई संदेह नहीं कि आजके परिवर्तनशील लिये अपनी प्यारी जान तककी हँसते-हँसते बाजी युगमें अज्ञानता वश अपने ही पैरोंसे पूर्वजोंकी कीर्ति- लगादी, अपने चिरंतन आदर्शसे पतित न हुए अपितु लताकी जड़ कुचली जारही है। जहाँपर आध्यात्मिक अनेकोंको वास्तविक मार्गपर लाये उन पवित्र आत्माओं ज्योतिको प्रज्वलित करने मले प्रातः स्मरणीय महा- के संस्मरण जिस भूमिके साथ व्यवहारिक रूपसे जुड़े पुरुषोंने वर्षों तक सांसारिक वासनाओंका परित्याग हुए हों ऐसे स्थानको -कोई भी विचारशील, सुसंस्कृत करें भीषणतिभीषण अकथनीय कष्ट और यातनाओं व्यक्ति कैसे भूल सकता है ? उनसे आज भी हमें को सहनकर, किसी भी प्रकारके विघ्नोंकी लेशमात्र भी प्रेरणा और स्फूर्ति मिलती है । वहाँके रजःकरण चिन्ता न कर आत्मिक विकासके प्रशस्त मागेपर सांस्कृतिक इतिहासके अमर तत्त्वोसे। अग्रसर होनेके लिये एवं भविष्यके मानवके कल्याणार्थ जहाँपर पैर रखनेसे हमारे मस्तिष्कमें उच्चतर विचारों कठोरतम साधनाएँ की थीं, मानव संस्कृति और की बाढ़ आने लगती है, अतीत फिल्मके अनुसार सभ्यताके उच्चतम विकसित तत्त्वोंकी जहाँपर गम्भीर घूम जाता है, पूर्वकालीन स्वर्णिम स्मृतियाँ एकाएक गवेषणा हुई, मानव ही. क्यों, जहाँपर जीवमात्रको जागृत हो उठती हैं, हृदयमें तूफान-सा वायुमण्डल सुखपूर्वक जीवन-यापन करनेका नैतिक अधिकार थिरकता है, नसोंमें रक्तका दौड़ाव गति पार कर जाता मिला, “वसुधैवकुटुम्बकम्' जैसे आदर्श वाक्यको है, रोम-रोम पुलकित हो उठते हैं, मानव खड़ा-खड़ा जीवनमें चरितार्थ करनेकी योजना जहाँपर सुयोजित न जाने चित्रवत् क्या-क्या खींचता है, कहनेका तात्पर्य हुई, जिस भूमिने अनेकों ऐसे माईके लाल उत्पन्न किये यह कि कुछ क्षणोंके जीवनमें आमूल परिवर्तन हो जिन्होंने देश, समाज और सांस्कृतिक तत्त्वोंकी रक्षाके जाता है, हृदयमें उमँगोंकी तरंगें उठती रहती हैं और Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.org Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ]. वैशाली-(एक समस्या) २६७ संसार क्षणिक सुखका स्वप्न भासित होने लगता है। आचार्य श्रीविजयेन्द्रसूरिजी कृत "वैशाली" का कभी आपने सोचा है ऐसा क्रान्तिकारी परिवर्तन क्यों अध्ययन करें। आपने इसमें गम्भीरताके साथ होजाता है ? तीर्थस्थानोंकी महिमाका यही बहुत बड़ा विश्लेषण किया है। . प्रभाव है। बहुतोंके जीवनमें ऐसे अनुभव अवश्य ही पुरातत्त्वाचार्य श्रीमान् जिनविजयजी, डॉ. हुए होंगे। मैं तो जब कभी प्राचीन तीर्थस्थान या याकोबी और डॉ. हॉर्नलेने बहुत समय पूर्व जैन खण्डहरोंमें पैर रखता हूं तब अवश्य ही ऐसे क्षणिक समाजका ध्यान इस वैशाली की ओर आकृष्ट किया आनन्दकी घड़ियोंका अनुभव करता हूं। अतः हमारी था पर तब बात संदिग्ध थी, किन्तु गत चार वर्षांसे संस्कृतिके जीवित प्रतीकसम प्राचीन तीर्थस्थानों की तो इस आन्दोलनको बड़ा महत्त्व दिया जारहा है। रक्षाका प्रश्न अविलम्ब हाथमें लेने योग्य है । ऐसे गत वर्ष स्टेटसमैनसे श्रीयुत जगदीशचन्द्र माथुर I. C. S. स्थानोंमें वशालीकी भी परिगणना सरलतासे की जा ने इस ओर जैनोंको फिर खींचा और बतलाया कि सकती है । जैनसाहित्यमें इसका स्थान बहुत गौरव वैशाली भगवान महावीरका जन्म स्थान होनेके कारण पूर्ण है । ई० स० पूर्व छठवीं शतीमें यह जैनसंस्कृति उनका एक विशाल स्तम्भ वा स्टेच्यु वहाँ प्रस्थापित का बहुत बड़ा केन्द्र था, उन दिनों न जाने वहाँ की किया जाना चाहिये जिससे स्मृति सदाके लिये बनी उन्नति कितनो रही होगी. श्रमण भगवान महावीर रहे। आप ही के प्रयत्नोंसे वहाँपर “वैशाली संघ" स्वामीजीकी जन्मभूमि होनेका सौभाग्य भी अब इसे की स्थापना हुई जिसका प्रधान उद्देश्य पत्र विधान प्राप्त होने जारहा है। आचाराङ्ग और पवित्र कल्प- और चतुर्थ वार्षिकोत्सव का मेरे सम्मुख है । संघका सूत्रादि जैनसाहित्यके प्रधान ग्रन्थोंसे भी प्रमाणित प्रधान कार्य इस प्रकार बँटा हुअा है- वैशालीके हुआ है । गणतंत्रात्मक राज्यशासन पद्धतिका यहींपर प्राचीन इतिहास और संस्कृति तथा इसके द्वारा उपपरिपूर्ण विकास हुआ था, जिसकी दुहाई आजके स्थित किये गये प्रजा-सत्तात्मक आदर्शोंमें लोकरुचि युगमें भी दी जारही है । तात्कालिक भगवान महावीर जागृत करना, वैशालीके और उसके समीपके पुरातत्त्व दीक्षित होनेके बाद जिन-जिन नगरोंमें विचरण करते सम्बन्धी स्थानोंकी खुदाईके लिये उद्योग करना और थे उनकी अवस्थिति आज भी नामोंके परिवर्तनके उनके संरक्षणमें सहायता देना" इनके अतिरिक्त साथ विद्यमान है । कुमार ग्राम, मोराकसन्निवेश वैशालीका प्रामाणिक इतिहास और वहाँपर पल्लवित आदि-आदि । यों तो वर्तमानमें लछवाड और कुंडल- पुष्पित संस्कृतिके गौरव पूर्ण अवशेषोंकी रक्षा एवं उन पुर श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदायोंके द्वारा क्रमशः जन्म परसे जागृति प्राप्त कर हर उपायोंसे प्राचीन आदर्श, स्थान माने जाते हैं पर वे मेरे ध्यानसे स्थापना तीर्थ का जो यहाँ पूर्वमें थे-पुनरुज्जीवन, पुस्तकालयों रहे होंगे। क्योंकि गत ४ सौ वर्षोंसे ही या इससे कुछ वाचनालय, ग्रामीणोंकी सांस्कृतिक दृष्टिसे उन्नति अधिक कालके उल्लेख ही लछपाइकी पुष्टि करते हैं आदि कार्य हैं। भारतवर्षमें योजनाएँ तो सर्वांगपूर्ण बादमें श्वेताम्बरोंने इसे जन्म स्थान मान बनती है पर किसी एक आवश्यक अङ्गपर भी समुलिया हो। इन उभय स्थानोंकी यात्रा करनेका सौभाग्य चित रूपेण कार्य नहीं होता। केवल प्रतिवर्ष एक मुझे इसी वर्ष प्राप्त हुआ है। परन्तु उभय स्थानोंकी शानदार जल्सा होजाता है, लोग लम्बे-लम्बे व्याख्यान वर्तमान स्थितिको देखते हुए यह मानना कठिन-सा दे डालते हैं। अप-टू-डेट निमन्त्रण पत्र छपते हैं। प्रतीत होरहा है कि वहाँपर भगवान महावीरका जन्म चार दिनकी चहल-पहलके बाद “वही रफ्तार बेढङ्गी" हुआ होगा; ऐतिहासिक और भौगोलिक स्थिति इससे आश्चर्य इस बातका है कि कभी-कभी सभापति ही संगति नहीं रखती । इस विषयपर अधिक रुचि रखने वार्षिक उत्सवसे गायब । किसी भी ठोस कार्य करने वाले महानुभावोंसे मैं निवेदन कर देना चाहूँगा कि वे सांस्कृतिक संस्थाके लिये इस प्रकारकी कार्य पद्धति For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ अनेकान्त [ वर्ष उन्नति मूलक नहीं मानी जा सकती। कौंसिल भी बनाना यह बात कुछ स्वार्थ प्रेरित तत्त्वोंकी सूचना इतनी लम्बी जैसा कोई लम्बा और मोटा अजगर हो:- देती है। मन्दिर नहीं बनाना तो जैनोंको बार-बार ___ १ सभापति, ११ उपसभापति, ४ मन्त्री, १ प्रोत्साहित ही क्यों किया जाता है ? मैं तो चाहूँगा कि कोषाध्यक्ष, ४१ सदस्य । इस चुनावकी परिपाटी भी वहाँ मन्दिर जरूर बने पर वह लम्बा चौड़ा न बनकर बिल्कुल असन्तोषजनक है। अधिकांश व्यक्ति एक एक ऐसा सुन्दर और कलापूर्ण निर्मित हो जिसमें डिवीजनके हैं या प्रान्तके हैं। इनमेंसे बहुत ही कम मागधीय शिल्प स्थापत्य कलाके प्रधान सभी तत्त्वों ऐसे व्यक्ति हैं जो भारतीय संस्कृति, सभ्यता और का समीकरण हो, प्राचीन शिल्पकी ही अनुकृति हो, तन्मूलक गवेषणासे अभिरुचि रखते हों या उनका इस दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंका संयुक्त मन्दिर दिशामें कुछ ठोस कार्य हो। इसके मन्त्रीजीसे मैंने होना चाहिये। सङ्गठनका यही आदर्श है। अब तो सदस्योंकी लम्बी सूचीपर कुछ कहा वे कहने लगे कि समय आगया है दोनों मिलकर जैन संस्कृतिका अनुक्या करें कुछ लोगोंको प्रथम.हमने न रक्खा तो उनने ष्ठान करें। दोनों समाजोंने मँझटें खड़ीकर संस्कृतिको संघके विरुद्ध प्रचारकर दिया, अतः उनको रख लिया विकृतिके रूपमें परिणितकर दिया है। अच्छा हो • ऐसी प्रणालिका रहेगी तो मैं तो कहूँगा कि वहाँपर वैशालीसे ही इस सङ्गठन और असाम्प्रदायिक भावों कुछ भी कार्य होने की सम्भावना नहीं है, भले ही का विकास-प्रचार हो । वाचनालय बनाना यह तो वर्तमान पत्रोंमें सुन्दरसे सुन्दर रिपोर्ट छप जाय । दर सर्वथा उपयुक्त है ही। असल होना तो यह चाहिये था कि सदस्यताका एक मेरे पास कुछ पत्र आये हैं कि वैशालीमें यदि हिस्सा उन लोगोंके लिये छोड़ दिया जाता, जो इतिहास मन्दिर निर्मित हो तो पैसे कहाँ भेजे जायें ? मैं स्पष्ट पुरातत्त्व आदि संशोधनके विषयोंसे रात दिन सर राय तो यही दूंगा कि जब तक एक समिति नियुक्त पचाते रहते हैं भले ही वे इतर प्रान्तोंके ही क्यों न नहीं हाजाती-जिसमें विश्वसनीय समाजसेवी कार्यहों। डॉ० निहाररञ्जनराय, डॉ कालीदास नाग, डॉ. कर्ता हों-तब तक रुपये कहींपर भी न भेजें। और सुनीतिकुमार चटर्जी, डॉ० आर० सी० मजूमदार, सावधानीसे काम लें; एक० यक्तिके भरोसेपर विश्वास डॉ० भाँडारकर, डॉ ताराचन्द (पटना) .भट्टाचार्य, कर आर्थिक सहायता भेजना कभी-कभी बुरा नतीजा डॉ. अल्तेकर, पी० के गोड M. A., डॉ. हँसमुख मोल ले लेना है। खेदकी बात तो यह है कि पटना. सांकलिया आदि महानुभावोंका रहना अनिवार्य है बिहार आदिके जैन गृहस्थों की भी इस काममें कोई जो खनन और पुरातत्त्व तथा इतिहासकी शाखाओंके खास सामूहिक रुचि नहीं है. । मैं पटनासे ही इन विद्वान हैं। ११ जैनोंको भी शामिल कर लिया है। पंक्तियोंको लिख रहा हूँ। 'मुझे कहना होगा कि कुछ और जैन श्रीमन्तोंके साथ अन्तमें मैं यह सूचित कर देना अपना परम विद्वानोंको भी रखना चाहिये, यदि सांस्कृतिक विकास कर्त्तव्य समझता हूँ कि वैशाली संघके कार्यकर्ता का प्रश्न है तो। अपनी कार्य प्रणाली और सदस्योंके चुनावमें बुद्धिचतुर्थ अधिवेशनमें प्रस्ताव पास किये गये हैं उन मानीसे काम लें तो भविष्यमें बिहारका सांस्कृतिक में एक जैन मन्दिर बनवानेका भी है, मन्दिर जैनीही महत्त्व बढ़ेगा और वैशाली भी विगत गौरवको प्राप्त अपने रुपयोंसे बनवायें । परन्तु संघके वर्तमान कर आर्यसंस्कृतिको अभूतपूर्व विकास केन्द्रका स्थान कोषाध्यक्ष श्रीमान् कमलसिंहजी बदलियाने मुझे ता० ग्रहण कर सकेगी। ४-७-४८ को बताया कि हमें वहाँपर जन मन्दिर १ सर्वप्रथम संघवालोंका परम कर्तव्य यह होना चाहिये निर्माण नहीं करवाना; परन्तु लायब्रेरी बनाना है। जब कि जैनसमाजमें वैसा वायुमण्डल तैयार करें कमसे कम महावीरकी स्मृति कायम रखना है और मन्दिर नहीं वैशालीके नजदीकके जैनोंको तो प्रोत्साहित करें ही। For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान विचार ' (लेखक-श्रीक्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी, न्यायाचार्य) हमारी समाजमें दान करनेकी प्रथा है । किन्तु दान क्या पदार्थ है इसके करनेकी क्या विधि है प्रायः इसमें विषमता देखी जाती है । अतः मैं इसपर कुछ अपने विचार प्रकट करता हूं। [वि. नरेन्द्र जैन काशी गत ग्रीष्मावकाशमें सागर गये थे । वहाँ पूज्य वर्णीजीके पुराने कागजोंके - ढेरमें उन्हें वर्णीजीके ४,६ महत्वपूर्ण लेख मिले हैं। यह बहुमूल्य लेख उन्हीं लेखोंमेंसे एक है। यद्यपि यह लेख २७ वर्ष पहले लिखा गया था और इसलिये प्राचीन है तथापि उसमें पाठकोंके लिये अाधुनिक नये विचार मिलेंगे और दानके विषयमें कितनी समस्याओंका हल तथा समाजमें चल रही अन्धाधुन्ध दान-प्रवृत्तियोंका उचित मार्ग दर्शन मिलेगा। वास्तवमें 'क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः के अनुसार यह लेख प्राचीनतामें भी नवीनताको लिये हुए है और इस लिये अपूर्व एवं सुन्दर है। उसे वि. नरेन्द्रने अपने अनेकान्तमें प्रकाशनार्थ भेजा है। अतः सधन्यवाद यहाँ दिया जाता है । देखें, समाज अागामी पयूषणपर्वमें, जो बिल्कुल नजदीक है और जिसमें मुख्यतः दान किया जाता हैं, अपनी दान प्रवृत्तिको कहाँ तक बदलती है ? -कोठिया दानकी आवश्यकता पात्र मनुष्योंकी तीन श्रेणियां द्रव्यदृष्टिसे जब हम अन्तःकरणमें परामर्श करते है १-इस जगतमें अनेक प्रकारके मनुष्य देखे जाते हैं तब यही प्रतीत होता है कि सब जीव समान हैं। है. उछ मनुष्य THE हैं, कुछ मनुष्य तो ऐसे हैं जो जन्मसे ही नीतिशाली इस विचारसे समानतारूपमें तो दानकी आवश्यकता - आरधनाध्य ह और धनाढ्य हैं। नहीं; किन्तु पर्यायदृष्टिसे सर्व आत्माएँ विभिन्न-विभिन्न २-कुछ मनुष्य ऐसे हैं जो दरिद्रकुलमें उत्पन्न पर्यायोंमें स्थित हैं। कितनी ही आत्माएँ तो कर्मकलङ्क- हुए है । उन्हें शिक्षा पानेका, नीतिके, सिद्धान्तोंके उन्मुक्त हो सर्व अनन्तसुखके पात्र होचुकी हैं। कितने समझनेका अवसर ही नहीं मिलता। ही प्राणी सुखी देखे जाते हैं। और कितने ही दुखी ३-कुछ मानवगण ऐसे हैं जिनका जन्म तो देखे जाते हैं। बहुतसे अनेक विद्याके पारगामी विद्वान् उत्तम कुलमें हुआ है किन्तु कुत्सित आचरणोंके हैं । और बहुतसे नितान्त मूर्ख दृष्टिगोचर होरहे हैं। कारण अधम अवस्थामें काल-यापन कर रहे हैं। बहुतसे सदाचारी और पापसे पराङ्मुख हैं, तब बहुत इनके प्रति हमारा कर्तव्य से असदाचारी और पापमें तन्मय हैं। कितने ही जोधनवान तथा सदाचारी हैं अर्थात् प्रथमश्रेणीबलिष्टताके मदमें उन्मत्त हैं, तब बहुतसे दुर्बलतासे के मनुष्य हैं उन्हें देखकर हमको प्रसन्न होना चाहिए। खिन्न होकर दुखभार वहन कर रहे हैं । अतएव तदुक्तं- गुणिषु प्रमोदम्” उनके प्रति ईर्ष्यादि नहीं . आवश्यकता इस बातकी है कि जिसको जिस वस्तुकी करना चाहिए। आवश्यकता हो उसकी पूर्ति कर परोपकार करना द्वितीय श्रेणीके जो दरिद्र मनुष्य है उनके कष्टचाहिए । उमास्वामीने भी कहा है-"परस्परोपग्रहो अपहरणके अर्थ यथाशक्ति दान देना चाहिए । मीषानाम्" (जीवोंका परस्पर उपकार हुआ करता है)। तदुक्तम्-"परानुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्" तथा सर्वोत्तम पात्र तो मुनि हैं उनकी शरीरकी स्थितिके उनको सत्य सिद्धान्तोंका अध्ययन कराके सन्मार्गपर अर्थ भक्तिपूर्वक दान देना चाहिए। . स्थिर करना चाहिए। तृतीय श्रेणीके मनुष्योंको साम For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० अनेकान्त | । यिक सत्शिक्षा और सदुपदेशोंसे सुमार्गपर लाकर उन्हें उत्थान पथका पथिक बनाना चाहिए । शक्ति होते हुए भी यदि उसका विनियोग न किया जावे तो एक प्रकारका घातकीपन है । श्रणीके पहले मुनि लोगों की भी भावना संसारके उद्धारकी रहती जो मनुष्य दयाके कार्योंको नहीं करते वे भयङ्कर पाप करनेवाले हैं । अतएव यथाशक्ति दुःखियोंके दुःख दूर करनेका यत्न प्रत्येक मनुष्यको करना चाहिए बहुतसे भाइयोंकी ऐसी धारणा होगई कि पात्रोंके बिना दान देना केवल पापबन्धका करने वाला है। उन्हें इन पं॰ रॉजमल्लके वाक्योंका स्मरण करना चाहिए:दानं चतुर्विधं देयं, प्रत्रबुद्ध्याथ श्रद्धया । जघन्यमध्यमौत्कृष्टपात्रेभ्यः श्रावकोत्तमैः ॥ सुपात्रायाप्यपात्राय, दानं देयं यथोचितम् । पात्रबुद्ध्या निषिद्ध ं स्या-निषिद्धनं कृपाधिया ॥ शेषोभ्यः क्षुत्पिपासादि पीडितेभ्यो शभोदयात् । दीनेभ्यो ऽभयदानादि, दातव्यं करुणार्णवैः ॥ (पञ्चाध्यायी तृतीय श्रेणीके मनुष्य जो कुमार्गके पथिक हो चुके हैं, तथा जिनकी अधम स्थिति होचुकी है वह भी दयाके पात्र हैं। उनको दुष्ट आदि शब्दोंसे व्यवहार कर छोड़ देने का नहीं चलेगा। किन्तु उन्हें भी 'सन्मार्गपर लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। जैनधर्म तो प्राणिमात्रके हितका कर्ता है सूकर, सिंह, नकुल, बानर तक जीवोंको उपदेशका पात्र इसके द्वारा हुआ मनुष्योंकी कथा तो दूर रही । तथा श्री विद्यानन्दिने भी कहा है कि जो दुष्ट और असदाचारी हैं वह सद्धर्मको न जानकर इस उदाहरणके जाल में फँस गये हैं । अतएव ऐसे जो प्राणी हैं वह धिक्कारके पात्र नहीं प्रत्युत आपके द्वारा दयाके पात्र हैं । उनके ऊपर अत्यन्त सोम्यभाव रखते हुए सम्यगुपदेशों द्वारा उन्हें सन्मार्गपर लगाना प्रत्येक दयाशील मनुष्यका कर्तव्य है । दानके भेद इस दानके श्राचार्योंने संक्षेपसे ४ भेद बतलाये हैं । (१) आहार ( २ ) औषध (३) अभय (४) ज्ञान । A . १ - आहारदान और औषधिदान जो मनुष्य क्षुधासे क्षामकुक्षि एवं जर्जर होरहा है रोगसे पीडित है । सबसे प्रथम तथा आदि रोगोंको भोजन औषधि देकर निवृत्त करना चाहिए । आवश्यकता इसी बात की है । क्योंकि “बुभुक्षितः किं न करोति पापं " ( भूखा आदमी कौनसा पाप नहीं करता) इससे किसी कविने कहा है कि “शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनं " तथा शरीरके नीरोग रहने पर बुद्धिका विकाश होता है; तदुक्तं - "स्वस्थ - चित्ते बुद्धयः प्रस्फुरन्ति” तथा ज्ञान और धर्मके अर्जन का यत्न होता है । शरीर के नीरोग न रहनेपर विद्या और धर्मकी रुचि मन्द पड़ जाती है अतएव अन्नजल आदि औषधि द्वारा दुःखसे दुःखी प्राणियोंके दुःखका अपहरण करके उन्हें ज्ञानादिके अभ्यास में लग(नेका यत्न प्रत्येक प्राणीका मुख्य कर्तव्य होना चाहिए। जिससे ज्ञान द्वारा वह यथार्थवस्तुका जान कर प्राणी इस संसारके जाल में न फँसे । ज्ञानदान [ वर्ष ६ 'अन्नदानकी अपेक्षा विद्यादान अत्यन्त उत्तम है। क्योंकि अन्नसे प्राणिकी क्षणिक तृप्ति होती है किन्तु विद्यादानसे शास्वती तृप्ति होती है। विद्याविलासियोंको एक अद्भुत मानसिक सुख होता है, इन्द्रियोंके विलासियोंको वह सुख अत्यन्त दुर्लभ है क्योंकि वह सुख स्व-स्वभावोत्थ है जब कि इन्द्रियजन्य सुख पर जन्य है । अभयदान इसी तरह अभयदान भी एक दान है, यह भी बड़ा महत्वशाली दान है। इसका कारण यह है कि मनुष्यमात्रको ही नहीं, अपितु प्राणीमात्रको प शरीरसे प्रेम होता है। बाल हो अथवा युवा हो, आहोस्वित्, वृद्ध हो, परन्तु मरना किसीको इष्ट नहीं । मरते हुए प्राणिकी अभयदानसे रक्षा करना बड़े ही महत्व और शुभबन्धका कारण है। ऐसी रक्षा करने १ अन्नदानं परं दानं विद्यादानमतः परम् । अन्नन क्षणिका तृप्तिर्याजीवं तु विद्यया । For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ 1 दान विचार वाले मनुष्यों को शास्त्रमें परोपकारी, धर्मात्मा आदि दानोंके द्वारा प्राणी कुछ कालके लिये दुःखसे विमुक्तशब्दोंसे सम्बोधित कर सम्मानित किया है । साहोजाता है परन्तु यह दान ऐसा अनुपम और धर्मदान महत्वशाली है कि एक बार भी यदि इसका सम्पर्क होजावे तो प्राणी जन्म-मरण के क्लेशों से विमुक्त होकर निर्वाणके नित्य आनन्द सुखोंका पात्र होजाता है । अतएव सभी दानोंकी अपेक्षा इस दानकी परमावश्यकता । धर्मदान ही एक ऐसा दान है जो प्राणियोंको संसार दुःखसे सदाके लिये मुक्तकर सच्चे सुखका अनुभव कराता है । इस अभय दानसे भी उत्तम धर्मदान है । इस परमोत्कृष्ट दानके प्रमुख दानी तीर्थङ्कर महाराज तथा गणधरादि देव हैं । इसीलिये आपके विशेषणोंमें "मोक्षमार्गस्य नेत्तारम्” (मोक्षमार्गके नेता ) यह प्रथम विशेषण दिया गया है। बड़े-बड़े राजा, महाराजा, यहाँ तक कि चक्रवर्तियोंने भी बड़े-बड़े दान दिये किंतु संसारमें उनका आज कुछ भी अवशिष्ट नहीं है । तथा तीर्थकर महाराजने जो उपदेश द्वारा दान दिया था उसके द्वारा बहुतसे जीव तो उसी भवसे मुक्तिलाभ कर चुके और अब तक भी अनेक प्राणी उनके बताये सन्मार्गपर चलकर लाभ उठा रहे हैं । भव-बन्धन परम्पराके पाशसे मुक्त होंगे, तथा आगामीकालमें भी उस सुपथपर चलनेवाले उस अनुपम सुखका लाभ उठावेंगे। कितने प्राणी उस पवित्र धर्मोपदेशसे लाभ उठावेंगे यह कोई अल्पज्ञानी नहीं कर सकता । अपनी आत्मताडनाकी परवाह न करके दूसरोंके लिये मीठे स्वर सुनाने वाले मृदङ्गकी तरह जो अपने अनेक कष्टों की परवाह न कर विश्वहित के लिये निरपेक्ष निस्वार्थ उपदेश देते हैं वे महात्मा भी इसी धर्मदानके कारण जगत पूज्य या विश्ववन्द्य हुए हैं। धर्मदान के वर्तमान दातार वर्तमानमें गणधर, आचार्यं आदि परम्परासे यह दान देनेकी योग्यता संसार से भयभीत, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह विहीन, ज्ञान-ध्यान-तपमें आसक्त, वीतराग, दिगम्बर मुनिराजके ही हैं। क्योंकि जब हम स्वयं विषय कषायोंसे दग्ध हैं तब क्या इस दानको करेंगे । जो वस्तु अपने पास होती है. वही दान दी जासकती है। हम लोगोंने तो उस धर्मको जो कि आत्माकी निज परणति है; कषायाग्निसे दग्ध कर रक्खा है । यदि वह वस्तु आज हमारे पास होती तब हम लोग दुःखों के पात्र न होते। उसके बिना ही आज संसारमें हमारी अवस्था कष्टप्रद होरही है । उस धर्मके धारक परम दिगम्बर निरपेक्ष परोपकारी, विश्वहितैषी वीतराग नको कर सकते हैं । इसीसे गृहस्थानके अन्तर्गत नहीं किया । धर्मदानकी महत्ता यह दान सभी दानोंमें श्रेष्ठतम है, क्योंकि इतर २७१ जब तक प्राणीको धार्मिक शिक्षा नहीं मिलती तब तक उसके उच्चतम विचार नहीं होते, और उन विचारों के अभावमें वह प्राणी उस शुभाचरणसे दूर रहता है जिसके बिना वह लौकिक सुखसे भी वचित रहकर धोबी के कुत्तेकी तरह "घरका न घाटका " कहींका भी सुखी रह सकते हैं जो या तो नितान्त मूर्ख हों, या नहीं रहता। क्योंकि यह सिद्धान्त है कि "वही जीव करने वाले हैं वही संसारमें पूज्य और धर्म संस्थापक पारङ्गत दिग्गज विद्वान हों ।" अतः जो इस दानके कहे जाते हैं । इसी तरह धर्मदानकी महत्ता जानकर हमें उस दानको प्राप्त करनेका पात्र होना चाहिये । सिंहनीका दूध स्वर्णके पात्रमें रह सकता है, धर्मदान सम्यग्ज्ञानी पात्रमें रह सकता है। लौकिक दान उक्त दानोंके अतिरिक्त लौकिक दान भी महत्वपूर्ण दान है जगतमें जितने प्रकारके दुःख हैं उतने ही भेद लौकिक दानके हो सकते हैं परन्तु मुख्यतया जिनकी आज आवश्यकता है बे इस प्रकार हैं *यश्च मूढतमो लोके, यश्च बुद्ध: परांगतः । तावुभौ सुख मेधेते, क्लिश्यन्तीतरे जनाः ॥ For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ . अनेकान्त [वर्ष ६ १-बुभुक्षित प्राणीको भोजन देना। .. *६-सभीका कल्याण हो, सभी प्राणी सन्मार्ग२-तृषितको पानी पिलाना। . गामी हो, सभी सुखी समृद्ध और शान्तिके - ३-वस्त्रहीनको वस्त्र देना। अधिकारी हों। ४-जो जातियाँ अनुचित पराधीनताके बन्धनमें -जोधर्ममें शिथिल होगये हों उनको शुद्ध उपपड़कर गुलाम बन रही हैं उनको उस दुःखसे देश देकर दृढ़ करना। मुक्त करना। .. ८-जो धर्ममें दृढ़ हों उन्हें दृढ़तम करना। ५-जो पापकर्मके तीव्र वेगसे अनुचित मार्गपर ह–किसीके ऊपर मिथ्या कलङ्कका आरोप न जारहे हैं उन्हें सन्मार्गपर लानेकी चेष्टा करना। करना। ६-रोगीकी परिचर्या और चिकित्सा करना, १०-अशुभ क्रमके प्रबल प्रकोपसे यदि किसी प्रकारका अपराध किसीसे बन गया हो तो उसे प्रकट कराना। न करना अपितु दोषी व्यक्तिको सन्मार्गपर लानेकी ७–अतिथिकी सेवा करना। चेष्टा करना। ८-मार्ग भूले हुए प्राणीको मार्गपर लाना। .११-मनुष्यको निर्भय बनाना। ह-निर्धन व्यापारहीनको व्यापारमें लगाना। संक्षेपमें यह कहा जासकता है कि जितनी मनुष्य १०-जो कुटुम्ब-भारसे पीडित होकर ऋण देने की आवश्यकताएँ हैं उतने ही प्रकास्के दान होसकते में असमर्थ हैं उन्हें ऋणसे मुक्त करना। हैं। अतः जिस समय जिस प्राणीको जिस बातकी ' ११-अन्यायी मनुष्यों के द्वारा सताये जाने वाले आवश्यकता हो उसे धर्मशास्त्र विदित मार्गसे यथा मारे जाने वाले दीन, हीन, मूक प्राणियोंकी रक्षा शक्तिपूण कर शक्तिपूर्ण करना दान है। . .. - करना । दुःख अपहरण उच्चतम भावना प्राप्त करनेका सुलभ मार्ग यदि है तो वह दान ही है अतः जहाँ तक आध्यात्मिक दान . बने दुखियोंको दुख दूर करनेके लिये सतत प्रयत्नशील - जिस तरह लौकिक दान महत्वपूर्ण है उसी तरह रहो, हित मित प्रिय वचनोंके साथ यथाशक्ति मुक्त एक आध्यात्मिक दान भी महत्वपूर्ण और श्रेयस्कर हस्तसे दान दो। है। क्योंकि आध्यात्मिक दान स्वपर-कल्याण-महल दानके अपात्र की नीव है। वर्तमानमें जिन आध्यात्मिक दानोंकी दान देते समय पात्र अपात्रका ध्यान अवश्य आवश्यकता है वे यह हैं रखना चाहिये अन्यथा दान लेने वालेकी प्रवृत्तिपर १–अज्ञानी मनुष्योंको ज्ञान दान देना। दृष्टिपात न करनेसे दिया हुआ दान ऊसर भूमिमें बोये २-धर्ममें उत्पन्न शङ्काओंका तत्वज्ञान द्वारा गये बीजकी तरह व्यर्थ ही जाता है। जो विषयी हैं, समाधान करना। लम्पटी हैं, नशेबाज हैं, ज्वारी हैं. पर वञ्चक हैं, उन्हें - ३-दुराचरणमें पतित मनुष्योंको हित-मित द्रव्य देनेसे एक तो उनके कुकर्मकी पुष्टि होती है, दूसरे वचनों द्वारा सान्त्वना देकर सुमार्गपर लाना। *क्षेमं सर्वप्रजानां; प्रभवतु बलवान् , धार्मिको भूमिपालः , ४-मानसिक पीड़ासे दुखी जीवोंको कर्मसिद्धांत- काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा, व्याधयो यान्तु नाशं । की प्रक्रियाका अवबोध कराकर शान्त करना। दर्भिक्ष चौर मारी, क्षणमपि जगतां, मास्माभूजीव लोके , - ५-अपराधियोंको उनके अज्ञानका दोष मानकर जैनेन्द्र धर्मचक्र', प्रभवतु सततं, सर्वसौख्यप्रदायि ॥ उन्हें क्षमा करना। (शान्तिपाठ) For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] दरिद्रोंकी वृद्धि और आलसी मनुष्योंकी संख्या बढ़ती है और तीसरे अर्थ परम्पराका बीजारोपण होता है, परन्तु यदि ऐसे मनुष्य बुभुक्षित या रोगी हों तो उन्हें ( दान दृष्टिसे नहीं अपितु ) कृपादृष्टिसे अन्न या औषधि दान देना वर्जित नहीं है। क्योंकि अनुकम्पा दान देना प्राणीमात्रके लिये है । दान देने हेतु दान देने में प्राणियों के भिन्न-भिन्न हेतु होते हैं । स्थूल दृष्टिसे परके दुःखको दूर करनेकी इच्छा सर्वं साधारणकी कही जासकती है. परन्तु पृथक्-पृथक् . दातारों के भिन्न-भिन्न पात्रोंमें दान देनेके हेतुओं पर यदि आप सूक्ष्मतम दृष्टिसे विचार करेंगे तब विभिन्न अनेक कारण दिखाई पड़ेंगे। उन हेतुओं में जो सर्वोत्तम हेतु हो वही हमको ग्रहण करना चाहिये । १- कितने ही मनुष्य परका दुःख देख उन्हें अपनेसे जघन्य स्थिति में जानकर “दुखियोंकी सहायता करना हमारा कर्तव्य है" ऐसा विचारकर दान करते हैं । २- कितने ही मनुष्य दूसरोंके दुःख दूर करनेके लिये, परलोक में सुख प्राप्ति और इस लोकमें प्रतिष्ठा (मान) के लिये दान करते हैं । ३-और कुछ लोग अपने नामके लिये कीर्ति पानेका लालच और जगतमें वाहवाहीके लिये अपने द्रव्यको परोपकारमें दान करते हैं । दातारके भेद मुख्यतया दातारके तीन भेद होते हैं .१ - उत्तम दातार २ - मध्यम दातार और ३-जघन्य दातार । उत्तम दातार दान- विचार S जो मनुष्य निःस्वार्थ दान देते हैं, पराये दुःखको दूर करना ही जिनका कर्तव्य है, वही उत्तम दातार हैं परोपकार करते हुए भी जिनके अहम्बुद्धिका लेश नहीं वही सम्यकदानी हैं और वही संसार सागरसे पार होते हैं; क्योंकि निष्काम (निस्वार्थ ) किया गया कार्य बन्धका कारण नहीं होता । जो मनुष्य इच्छापूर्वक कार्य करेगा उसे कार्य सिद्धान्त के अनुसार तज्जन्य बन्धका फल अवश्य भोगना पड़ेगा । और जो निष्काम वृत्तिसे कार्य करेगा उसके इच्छाके बिना कायादिकृत २७३ व्यापार बन्धके उत्पादक नहीं होते । अथवा यों कहना चाहिये कि जो सर्वोत्तम मनुष्य हैं वे बिना स्वार्थ ही दूसरेका उपकार किया करते हैं । और उन्हीं विशुद्ध परिणामोंके बल से सर्वोत्तम पदके भोक्ता होते हैं । जैसे प्रखर सूर्यकी किरणोंसे सन्तप्त जगतको शीतांशु (चन्द्रमा) अपनी किरणों द्वारा निरपेक्ष शीतल कर देता है, उसी प्रकार महान पुरुषोंका स्वभाव है कि वे. संसार-तापसे सन्तापित प्राणियोंके तापको हरण कर लेते हैं। मध्यम दातार जो पराये दुःखको अपने स्वार्थ के लिये दान करते हैं वह मध्यम दातार हैं। क्योंकि जहाँ इनके स्वार्थमें बाधा पहुँचती है वहाँपर यह परोपकारके कार्यको त्याग देते हैं । अतः इनके भी वास्तविक दयाका विकास नहीं होता परन्तु धनकी ममता अत्यन्त प्रबल है, धनको त्यागना सरल नहीं है, अतः इनके द्वारा यदि अपनी कीर्तिके लिये ही धनका व्यय किया जावे किन्तु जब उससे दूसरे प्राणियोंका दुःख दूर होता है कोई संकोच न करेगा। क्योंकि वह दान ऐसे दान तब परकी अपेक्षा से इनके दानको मध्यम कहने में करने वालेके आत्म-विकास में प्रयोजक नहीं हैं । जघन्य दातार जो मनुष्य केवल प्रतिष्ठा और कीर्तिके लालच दान करते हैं वे जघन्य दातार हैं । दानका फल लोभ निरशनपूर्वक शान्ति प्राप्त होना है, वह इन दातारोंको नहीं मिलता। क्योंकि दान देने से शान्तिके प्रतिबन्धक आभ्यन्तर लोभादि कषायका अभाव होता है अतएव आत्मा में शान्ति मिलती है । जो कीर्तिप्रसारकी इच्छासे देते हैं उनके आत्म-सुख गुणके घातक कर्मकी हीनता तो दूर रही प्रत्युत बन्ध ही होता है । अतएव ऐसे दान देने वाले जो मानवगण हैं उनका चरित्र उत्तम नहीं। परन्तु जो मनुष्य लोभके वशीभूत होकर १ पाई भी व्यय करने में संकोच करते हैं उनसे यह उत्कृष्ट है । For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ अनेकान्त पापका बाप लोभ लोभ वेग मनुष्य किन-किन नीच कृत्योंको नहीं करते ? और कौन-कौनसे दुःखोंकों भोगकर दुर्गतिके पात्र नहीं होते यह उन एक दो ऐतिहासिक व्यक्तियोंके जीवनसे स्पष्ट होजाता है। जिनका नाम इतिहासके काले पृष्ठों में लिखा रह जाता है । गजनीके शासक, लालची लुटेरे महमूद गजनवीने १००० और २०२६ के बीच २६ वर्ष में भारतवर्षपर १७ वार आक्रमण किया, धन और धर्म लूटा ! मन्दिर और मूर्तियोंका ध्वंसकर श्रमणित रत्नराशि और अपरमित स्वर्ण चाँदी लूटी !! परन्तु जब इतने पर भी लोभका संघरण नहीं हुआ तब सोमनाथ मन्दिरके काठके किवाड़ और पत्थरके खम्भे भी न छोड़े, ऊँटोंपर लादकर गजनी ले गया !!! दूसरा लोभी था (ईशवी सन्के ३२७ वर्ष पूर्व) ग्रीसका बादशाह सिकन्दर; जिसने अनेक देशोंको परास्तकर उनकी अतुल सम्पत्ति लूटी, फिर भी सारे संसारको विजित करके संसार भरकी सम्पत्ति हथयाने की लालसा बनी रही ! लोभ के कारण दोनोंका अन्त समय दयनीय दशामें व्यतीत हुआ। लालच और लोभमें हाय ! हाय !! करते मरे, पर इतने समर्थ शासक होते हुए भी एक फूटी कौड़ी भी साथ न ले जा सके । [ वर्ष अतः उसे संसारवर्धक दुष्ट विकल्पोंसे बचाये रहना, सम्यग्दर्शनादि दान द्वारा सन्मार्गमें लानेका उद्योग करते रहना चाहिये। दूसरे दयाका क्षेत्र २ अपना निज घर है फिर ३ जाति ४ देश तथा ५ जगत है अन्तमें जाकर यही - "वसुधैव कुटुम्बकम्" होजाता है । दयाका क्षेत्र १ - प्रथम तो दयाका क्षेत्र अपनी आत्मा है, दान देकर सुयशके भागी बनेंगे । & अनुरोध इस पद्धति अनुकूल जो मनुष्य स्वपरहितके निमित्त दान देते हैं वही मनुष्य साक्षात् या परम्परा में अतीन्द्रिय अनुपम सुखके भोक्ता होते हैं । अतएव आत्म- हितैषी महाशयोंका कर्तव्य है कि समयानुकूल इस दानपद्धतिका प्रसार करें । भारतवर्ष में दानकी पद्धति बहुत है किन्तु विवेककी विकलताके कोरण दानके उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो पाती। • ऊसर जमीनमें, पानीसे भरे लबालब तालाब में, सार और सुगन्धि हीन सेमर वृक्षोंके जङ्गल में, दावानलमें व्यर्थ ही धधकने वाले बहुमूल्य चन्दनमें यदि मेघ समानरूपसे वर्षा करता है तो भले ही उसकी उदारता प्रशंसनीय कही जा सकती है परन्तु गुणरत्न पारखी वह नहीं कहला सकता। इसी तरह पात्र अपात्रकी, आवश्यकताकी पहिचान न कर दान देने वाला उदार कहा जा सकता हैं परन्तु गुणविज्ञ वह नहीं कहला सकता । आशा है हमारा धनिक वर्ग उक्त बातों पर ध्यान देते हुए पद्धतिके अनुकूल ही For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरारमें वीरशासन - जयन्तीका महत्वपूर्ण उत्सव इस वर्ष वीरसेवामन्दिर, सरसावा द्वारा आयोजित वीर-शासन- जयन्तीका महत्वपूर्ण उत्सव श्री क्षुल्लक पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्यकी अध्यक्षता में श्रावण कृष्णा १, २ ता० २२, २३ जुलाई १९४८, बृहस्पतिवार, शुक्रवारको मुरार (ग्वालियर) में सेठ गुलाबचन्द गणेशीलालजी जैन रईस मुरारके विशाल उद्यानमें बड़े समारोह के साथ सानन्द सम्पन्न हुआ । उत्सवमें भाग लेनेके लिये वन्दनीय त्यागीवर्ग के अलावा विविध स्थानोंसे अनेक प्रमुख विद्वान् और श्रीमान् पधारे थे । विद्वानोंमें पं० जुगल किशोरजी मुख्तार अधिष्ठाता, वीरसेवामन्दिर सरसावा, पंडित राजेन्द्रकुमारजी न्यायतीर्थ मथुरा, पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री बनारस, पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री बनारस, पं० दयाचन्द्रजी शास्त्री सागर, पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य बीना, पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर, पं० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचार्य सरसावा, प्रोफेसर पन्नालालजी बनारस, पं० परमेष्ठीदासजी न्याय तीर्थ ललितपुर, पं० परमानन्दजी शास्त्री सरसावा, बा० अयोध्याप्रसादजी गोयलीय डालमियानगर, 'बा० ज्ञानचन्द्रजी जैन कोटा, मास्टर शिवरामजी रोहतक, आदिके नाम उल्लेखनीय हैं और श्रीमानोंमें लाला महावीरप्रसादजी ठेकेदार देहली, ला० स्तनलालजी मादीपुरिया देहली, ला० राजकृष्णजी देहली, रायबहादुर बा० उल्फतरायजी देहली, ला० मक्खनलालजी ठेकेदार देहली, बा० महताबसिंहजी सर्राफ देहली, बा० पन्नालालजी अग्रवाल देहली, बा० नन्दलालजी कलकत्ता (बा० छोटेलालजी जैन कलकत्ताके लघुभ्राता), ला० चतरसेनजी सरधना, ला० त्रिलोकचन्दजी खतौली, ला० हुकुमचन्दजी सलावा आदिके नाम उल्लेख योग्य हैं। ग्वालियर, लश्कर, भिंड, मोरेना, जबलपुर आदिके भी कितने ही सज्जन उत्सवमें सम्मिलित हुए थे। त्यागीवर्ग भी कम नहीं था, श्री क्षुल्लक पूर्णसागरजी, श्री क्षुल्लक विशालकीर्तिजी, ब्र० चिदानन्दजी, क्र० सुमेरुचन्दजी भगत, क्र० कस्तूरचन्दजी नायक, ब्र० मूलशङ्करजी आदि वन्दनीय त्यागी मण्डलसे उत्सव विशेष शोभनीय था । श्रीमती विदुषीरत्न पं० ० सुमतिबाईजी न्याय-काव्यतीर्थ सोलापुर जैसी महिलाएँ भी अपनी समाजके प्रतिनिधित्व की कमीको दूर करती हुई उत्सव में शामिल हुई थीं । T यद्यपि २१ और २२ जुलाईको लगातार वर्षा होती रही और वर्षा होते रहनेसे प्रभातफेरी नहीं हो सकी, पर झण्डाभिवादन बड़े भारी जनसमूह के मध्यमें कुछ बूँदा बाँदीकें होते हुए भी अपूर्व उत्साह के साथ सम्पन्न हुआ। पूज्य वर्गीजीने झण्डा फहराते हुए कहा कि इसी प्रकार वीरके शासनको ऊँचा रखें - अपने आचरण द्वारा उसे उच्च बनायें और वीर जैसे वीतरागी वीर - विश्वकल्याण कर्ता बनें । दोपहरको श्री क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णीकी अध्यक्षतामें जल्सा प्रारम्भ हुआ । पं० परमेष्ठीदासजीने मङ्गलाचरण किया । इसके बाद बा० हीरालालजी मुरारका स्वागत भाषण हुआ, जिसमें आपने आगन्तुक सज्जनोंका स्वागत करते हुए कष्टके लिए क्षमायाचना की। इसके अनन्तर अध्यक्षजीका महत्वका मुद्रित भाषण हुआ, जिसे लाउडस्पीकरके काम न देनेके कारण पं० चन्द्रमौलिजीने पढ़कर सुनाया और जो अनेकान्तमें अन्यत्र प्रकाशित हो रहा है। पं० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्यने बाहर से आये सन्देशों और शुभकामनाओं को सुनाया। साथ ही वीरसेवामन्दिरके अब तकके अनुसंधान, साहित्य और इतिहास निर्माण सम्बन्धी महत्वपूर्ण कार्योंका संक्षेपमें परिचय दिया । संदेश और शुभकामनाएँ भेजनेवालों में भारत के प्रधानमन्त्री पं जवाहरलाल नेहरू, सर सेठ हुकुमचन्दजी इन्दौर, सर सेठ भागचन्द For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ । अनेकान्त . [ वर्ष ६ जी सोनी अजमेर, रायबहादुर सेठ हीरालालजी उस समय हम लोग वीरसेवामन्दिरको अपनी शक्ति इन्दौर, बा०. निर्मलकुमारजी जैन आरा, लाल से भी अधिक सहयोग देनेके लिये तैयार रहेंगे और कपूरचन्दजी कानपुर, साहू श्रेयांसप्रसादजी बम्बई, मुख्तार सा०की इच्छानुसार वीरसेवामन्दिरके लिये सेठ लालचन्दजी सेठी उज्जैन, सेठ गुलाबचन्दजी स्थानादिका अपने यहाँ सुप्रबन्ध कर देंगे। इसका उप. टोंग्या इन्दौर सेठ रतनचन्द चुन्नीलाल झबेरी बम्बई, , स्थित जनताने हर्षध्वनिके साथ अभिनन्दन किया और वैद्यरत्न हकीम कन्हैयालालजी कानपुर. बा० मानिक- बड़ा ही आनन्द व्यक्त किया। उसके बाद विदुषीरत्न चन्दजी सरावगी कलकत्ता, बा० छोटेलालजी जैन ब्र. पं० सुमतिबाईका सारगर्भित भाषण होकर उत्सवकलकत्ता, बा० नेमचन्द बालचन्दजी गाँधी सोलापुर, की शेष कार्रवाई रात्रिके लिये स्थगित की गई। बा० लालचन्दजी एडवोकेट रोहतक, बा० नानकचन्द रात्रिमें पं० मुन्नालालजी समगौरया, पं० दयाचन्द्र जी एडवोकेट रोहतक. बा० उग्रसेनजी वकील रोहतक जी शास्त्री, मा० शिवरामजी, पं० परमेष्ठीदासजी बा० जयभगवानजी एडवोकेट पानीपत, पं० इन्द्रलाल आदिके प्रकृत विषयपर ओजस्वी व्याख्यान हुए। दूसरे जी शास्त्री जयपुर, पं० चैनसुखदासजी जयपुर पं० दिन पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य, प्रो० पन्नालालजी जगन्मोहनलालजी कटनी, ला० परसादीलालजी धर्मालङ्कार, बा० सुकुमालचन्दजी देहली, मुख्तार सा० पाटनी देहली, ला०. तनसुखरायजी देहली, सिं० और पूज्य अध्यक्षजीके सामयिक भाषण हुए । इसके गनपतलालजी गुरहा खुरई, बा० कामताप्रसादजी बाद धन्यवादादि सहित विसर्जनपूर्वक उत्सव निर्विघ्न अलीगञ्ज, पं० तुलसीरामजी बड़ौत, सेठ चिरञ्जीलाल समाप्त हुआ। जी बड़जात्या वर्धा, पं० भुजबलीजी शास्त्री मूडबिद्री, उत्सवमें तीन प्रस्ताव भी पास हुए, दो प्रस्ताव पं० बलाद्रजा सम्पादक 'जन सन्दश' आगरा प्रभृत महात्मा गाँधी और पं० रामप्रसादजी शास्त्रीके श्रवमहानुभाव हैं । पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री, पं० कैलाशचंद्र सानपर शोक-विषयक हैं और तीसरा वीरशासनजी.शास्त्री और पं० राजेन्द्रकुमारजी न्यायतीर्थके वीर- जयन्तीपर्वको सर्वत्र व्यापकरूपमें मनाये जानेकी शासनपर महत्वके भाषण हुए। पं० राजेन्द्रकुमारजीने प्रेरणा विषयक है। जब वीरसेवामन्दिरके कार्योंका उल्लेख करते हुए इसी अवसरपर भा० दि० जैन विद्वत्परिषदकी मुख्तार सा०की जैन-साहित्य और इतिहासके लिये कार्यकारिणी और पाठ्य-निर्माणसमितिकी भी बैठके की गई सेवाओंपर गर्व प्रकट किया और वीरसेवा- हई और जिनमें अनेक बातोंपर विचार-विमर्श हुआ। मन्दिरको इतिहासनिर्माणकी ओर मुख्यतः गति करने इन आयोजनों में सबसे ज्यादा व्यवस्थादिविषयक पर जोर दिया तब मुख्तार सा० ने एक मार्मिक भाषण कष्ट और परिश्रम पं० चन्द्रमौलिजी शास्त्री, श्री दिया जिसमें आपने वोरसेवामन्दिरकी आवश्यकताओं भैयालालजी स्वागतमन्त्री, बा० हीरालालजी स्वागतातथा अपनी इच्छाओं और प्रवृत्तियोंको व्यक्त करते ध्यक्ष और सेठ गणेशीलालजीको उठाना पड़ा है और हुए समाजको सच्चा सहयोग देने एवं वीरसेवामन्दिर इसके लिये वे अवश्य समाजके धन्यवादपात्र है। को पूर्णतः अपनाकर उसे देहलीमें विशालरूप देनेके मुरारकी जैन-समाज भी धन्यवादकी पात्र है, जिसने लिये प्रेरित किया। इसपर पूज्य अध्यक्षजीका बड़ा अपने श्रद्धापूर्ण हृदयोंसे पूज्यवर्णीसंघका चतुर्मास ही प्रभावपूर्ण भाषण हुआ, जिसके द्वारा समाजको कराया और उसके निमित्तसे वीरशासन-जयन्ती जैसे उक्त सहयोग देनेकी विशेष प्रेरणा की गई । महत्वपूर्ण उत्सव तथा विद्वत्परिषदकी कार्यकारिणी और देहलीके उपस्थित सभी श्रीमानोंकी ओरसे , की बैठकोंका आयोजन किया। रायबहादुर बा० उल्फतरायजीने स्पष्ट शब्दोंमें आश्वासन दिया कि जब पूज्य वर्णीजी देहलो पधारेंगे -दरबारीलाल Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीर - शासन - जयन्ती - महोत्सव के अध्यक्ष श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्यका पूज्य भाषणा महानुभाव ! क्षुल्लकजी और ब्रह्मचारीगण, जैन-धर्ममर्मज्ञ विद्वद्वर पण्डितगण, जैनधर्म- इतिहासवेत्ता मुख्तारसाहब, उपस्थित समस्त सज्जनवृन्द एवं महिला समाज, प्याज 'मैं श्रीवीरशासनजयन्ती - महोत्सवका सभा पति चुना गया हूँ यह सर्वथा अनुचित है क्योंकि वीरशासनं-जयन्ती उत्सवका भार वही वहन कर सकता है जो ज्ञानवान होकर वीतराग हो। जो वीतराग नहीं वह साक्षात् मोक्ष मार्गका साधन नहीं दिखा सकता। जो आंशिक वीतराग हो और पदार्थके प्रदर्शन करनेमें अक्षम हो वह भी उनके शासनको दिखाने में समर्थ नहीं हो सकता । अतः इस पदके योग्य यहां कौन है, मेरी बुद्धिमें नहीं आता । परन्तु एक बल हमें है और संभव है उससे इस. भारका कुछ दिग्दर्शन कराने में, मैं समर्थ हो सकूँ ऐसी संभावना है। प्रत्यक्ष देखता हूं जो वीरके नाम संस्कार से संगमरमर की मूर्तिकी अर्चा M होरही है तथा वीरके नामसे राजग्रहका विपुलाचल पर्वत लाखों मनुष्यों द्वारा पूजा जारहा है । वीरप्रभुने ariपर तपस्या ही तो की थी ? वीरप्रभुका जिस स्थान परनिर्वाण हुआ वह क्षेत्र आजतक पूजित हो रहा है । वीर चरित्र जिस पुस्तकमें लिखा जाता है वह पुस्तक भी उदक- चंदनादि असे अर्चित होती है। मैंने भी उस वीर प्रभुको अपने हृदयारविन्दमें स्थापित कर रखा है । अतः मुझसे यदि आजका कार्य निर्वाह होजावे तब इसमें आश्चर्य की कौनसी बात है ? आज - के दिन मुझे श्रीमहावीर भगवान के शासनको दिखाना है | जिसके द्वारा हितकी बात दिखाई जावे और अहित का निवारण किया जावे उसीका नाम शासन है । श्री गुणभद्रस्वामीने आत्मानुशासनमें लिखा है: दुःखाद्विभेषि नितरामभिवांछसि सुखमतोप्यहमात्मन् । दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥ आत्मन् ! तू दुखसे भय करता है और सुखकी कक्षा करता है, अतः मैं तुझे जो अभिमत है अर्थात् जो दुःखको हरण करने वाली और सुखको करने वाली शिक्षा है उसीको कहूँगा । कहनेका तात्पर्यं यह है कि शिक्षा वही है जो सुखको देवे और दुःखका विनाश करे । भाषामें कविवर श्री दौलतरामजीने भी लिखा है जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त सुख चाहें दुःख तें भयवन्त । तातें दुःखहारि सुखकार कहें सीख गुरु करुणा धार ॥ अर्थात् इस दुःखमय संसार में जिस उपदेशके द्वारा यह आत्मा दुःखसे छूट जावे और निराकुलतारूप सुखको प्राप्त कर लेवे वही उपदेश जीवका हितकर है। श्रीवीरप्रभुने पहले तो आत्मीय प्रवृति द्वारा बिना ही शब्दोच्चारण के वह शिक्षा दी जिसे यदि यह जीव पालन करे तो अनायास अलौकिक सुखका पात्र हो सकता है । श्रीवीरप्रभुने बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्य - व्रतको स्वीकार किया था और दार - परिग्रह से सर्वथा मुक्त रहे थे । संसार-वृद्धिका मूल कारण स्त्रीका समागम है । स्त्री-समागम होते ही पाँचों इन्द्रियोंके विषय स्वयमेवं पुष्ट होने लगते । प्रथम तो उसके रूपको देखकर निरन्तर देखनेकी अभिलाषा रहती है, वह सुन्दर रूपवाली निरन्तर बनी रहे. इसके लिये अनेक प्रकार के उपटन, तैल आदि पदार्थोंके संग्रहमें व्यस्त रहता है । उसका शरीर पसेव आदिसे दुर्गन्धित न होजाय, अतः 'निरन्तर चन्दन, तैल, इत्र आदि बहुमूल्य वस्तुका संग्रह कर उस पुतलीकी सम्हालमें संलम For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ 'अनेकान्त [वर्ष रहता है। उसके केश निरन्तर लम्बायमान रहें, अतः स्वयमेव विरक्त होकर दैगम्बरी-दीक्षाका अवलम्बन कर उनके अर्थ नाना प्रकारके गुलाब, चमेली, केवड़ा मोक्ष-मार्गका पथिक बन जाता है । श्रीवीरप्रभुने आदि तैलोंका उपयोग करता है। तथा उसके सरल दारपरिग्रह तो किया ही नहीं उसके रागको बाल्याकोमल, मधुर शब्दोंका श्रवण कर अपनेको धन्य वस्था ही से त्याग दिया तब अन्य परिग्रह तो कुछ मानता है और उसके द्वारा सम्पन्न नाना प्रकारके ही वस्तु न थी, दीक्षाका अवलम्बन कर साक्षात् मोक्षरसास्वादको लेता हुआ फूला नहीं समाता। कोमलाङ्ग मार्ग प्राणियोंको दिखा दिया तथा लोकको अहिंसाको स्पर्श करके तो आत्मीय ब्रह्मचर्यका और बाह्यमें तत्वका साक्षात्कार करा दियाशरीर-सौन्दर्यका कारण वीर्यका पात होते हुए भी अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्, अपनेको धन्य मानता है। इस प्रकार स्त्री-समागमसे न सा तंत्रारम्भोस्त्यणुरपि यत्राश्रमविधौ । ये मोही पंचेन्द्रियके विषयमें मकड़ीकी तरह जालमें फंस ततस्तत्सिद्ध्यर्थ परमकरुणो ग्रन्थमुभयम्, जाते है । श्रीवीरप्रभुने उसे दूरसे ही त्यागकर संसारके. भवानेवात्याक्षीन च विकृतवेषोपधिरतः॥ प्राणियोंको यह दिखला दिया कि यदि इस लोक और संसारमें परिग्रह ही पञ्च पापोंके उत्पन्न होनेमें परलोकमें सुखी बनना चाहते हो तो इस ब्रह्मचर्य- निमित्त होता है। जहाँ परिग्रह है वहाँ राग है, और व्रतका पालन करो। भतृहरि महाराजने जो कहा है जहाँ राग है वहीं अात्माके आकुलता है तथा जहाँ वह तथ्य ही है: आकुलता है वहीं दुःख है एवं जहाँ दुःख है वहाँ ही मत्त भ-कुम्भ-दलने भुवि सन्ति शराः, सुखगुणका घात है और सुखगुणके घातका ही केचित्प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः । नाम हिंसा है। संसारमें जितने पाप हैं उनकी जड किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य, परिग्रह है। आज जो भारतमें बहुसंख्यक मनुष्योंका कन्दर्प-दर्प-दलने विरला मनुष्याः॥ घात होगया है तथा होरहा है उसका मूल-कारण यद्यपि इसी व्रतके पालनसे सम्पूर्ण व्रतोंका समा- परिग्रह ही है। यदि हम इससे ममत्व हटा देवें तो वेश इसीमें हो जाता है तथा सर्व प्रकारके पापोंका वह अगणित जीवोंका घात स्वयमेव न होगा। इस त्याग भी इसी व्रतके पालनसे हो जाता है। फिर भी अपरिग्रहके पालनेसे हम हिंसा पापसे मुक्त हो सकते लोकमें सर्व प्रकारके मनुष्य हैं, अनेक प्रकारकी रुचि हैं और अहिंसक बन सकते हैं। परिग्रहके त्यागे बिना है। रुचिकी विचित्रतासे अन्य अहिंसादि धर्मों (व्रतों) अहिंसा-तत्वको पालन करना असम्भव है । भारतवर्ष को भी श्रीवीरने स्वयं पालन कर साक्षात् कल्याणका में जो यागादिकसे हिंसाका प्रचार होगया था, उसका मार्ग दिखा दिया। प्रथम तो यदि आप लोग विचार कारण यही तो है कि हमको इस यागसे स्वर्ग मिल करेंगे तब इसीमें सर्व व्रत आजाते हैं। विचारो, जब जावेगा, पानी बरस जावेगा, अन्नादिक उत्पन्न होंगे। स्त्रीसम्बन्धी राग घट गया तब अन्य परिग्रहसे देवता प्रसन्न होगें, यह सब क्या था ? परिग्रह ही सुतरां अनुराग घट गया। किसी कविने कहा है:- तो था। यदि परिग्रहकी चाह न होती तो निरपराध गृहिणी गृहमाहुः' अर्थात् स्त्री ही घर है। घास- जन्तुओंको कौन मारता ? आज यदि इस परिग्रहमें फूस, मिट्टी-चूना आदिका बना हुआ गृह-गृह नहीं है। मनुष्य आसक्त न होते तब ये समाजवाद कम्यूइसके अनुराग घटनेसे शरीरके शृङ्गारादि अनुराग निस्टवाद क्यों होते ? आज यदि परिग्रहके धनी न स्वयं घट जाते हैं तथा माता-पिता 'आदिसे स्वयं होते तब ये हड़तालें क्यों होती ? यदि परिग्रह-पिशाच न स्नेह छूट जाता है। कुटुम्ब आदि सबसे विरक्त हो होता तब जमीदारी प्रथा, राजसत्ताका विध्वंस करनेजाता है । द्रव्यादिकी ममता स्वयमेव छूट जाती है, का अवसर न आता ? यदि यह परिग्रह-पिशाच न जिसके कारण गृह-बन्धनसे छूटने में असमर्थ भी होता तब काँग्रेस जैसी स्वराज्य दिलानेवाली संस्था For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] भाषण विरोधियों द्वारा निन्दित न होती। और वे स्वयं इनके स्थानमें अधिकारी बननेकी चेष्टा न करते ? आज यह परिग्रह-पिशाच न होता तो हम उच्च हैं. आप नीच हैं, यह भेद न होता । यह पिशाच तो यहाँ तक अपना प्रभाव प्राणियोंपर ग़ालिब किये है जो सम्प्रदायवादों धर्म को निजी मान लिया है। और उस धर्मकी सोमा बाँध दी है । तत्व-दृष्टिसे धर्म तो आत्माकी पर - गतिविशेषका नाम है, उसे हमारा धर्म है यह कहना क्या न्याय है ? जो धर्म चतुर्गतिके प्राणियों में विकसित होता है उसे इने-गिने मनुष्यों में मानना क्या न्याय है ? परिग्रह-पिशाचकी यह महिमा है जो इस कूपका जल तीन वर्णोंके लिये है, इसमें यदि शूद्रोंके घड़े पड़ गये तब पेय होगया ! टट्टी में होकर नल आजानेसे जल पेय बना रहता है ! अस्तु, इस परिग्रह पापसे ही संसारके सर्व पाप होते हैं। श्रीवीर प्रभुने तिल-तुषमात्र परिग्रह न रखके पूर्ण अहिंसा - व्रतकी रक्षा कर प्राणियोंको बता दिया कि यदि कल्याण करनेकी अभिलाषा है तब दैगम्बर-पदको अङ्गीकार करो । यही उपाय संसार-बन्धनसे छूटनेका है । यदि संसारमें सुख-शान्तिका साम्राज्य चाहते हो तब मेरे स्मरणसे सुख-शान्ति न होगी, और न स्वयं तुम सुखी होगे; किन्तु जैसे मैंने कार्य किये हैं वही करो । जैसे मैंने बाल्यावस्थासे ही ब्रह्मचर्य व्रत पाला वैसे ही तुम भी पालन करो तुम लोगोंको उचित है कि यदि मेरे अन्तरङ्गसे भक्त और अनुरागी हो तो मेरा अनुकरण करो । यदि उस ब्रह्मचर्यव्रत के पालने में असमर्थ हो तब बाल्यावस्था व्यतीत होनेपर जैसा गृहस्थधर्ममें इसका विधान है उस रीति से इसे पालन करो । अनन्तर जब युवावस्था व्यतीत होजावे तब परिग्रहको त्याग अपरिग्रही बननेकी चेष्टा करो, इसी कीचड़ में मत फँसे रहो । द्रव्यको न्यायपूर्वक अर्जन करो, अन्यायसे मत उपार्जन करो, मर्यादाको त्याग स्वेच्छाचारी मत बनो, दान करते समय विवेकको मत खो दो, मन्दिर बनाओ, पञ्चकल्याणक उत्सव करो, निषेध नहीं, परन्तु जहाँपर इनकी आवश्यकता है। वीरशासनके प्रचारार्थ प्राचीन साहित्यके उद्धार की महती आवश्यकता है। उस ओर समाजकी दृष्टि नहीं । पूजन तो देव - शास्त्र-गुरु तीनोंकी करते हो परन्तु शास्त्रोंकी रक्षाका कोई उपाय नहीं । सहस्रों शास्त्र जीर्ण-शीर्ण होगये और होरहे हैं, इसकी ओर समाजका लक्ष्य नहीं । मेरी समझमें एक पुरानी संस्था (वीर - सेवा - मन्दिर) मुख्तार साहबकी है । परन्तु द्रव्यकी त्रुटि के कारण आज कोई महान ग्रन्थका प्रकाशन मुख्तार साहब न कर सके । न्यायदीपिका, अनित्यपञ्चाशत् समाधिशतक आदि छोटे-छोटे ग्रन्थ प्रकाशमें ला सके । समाजको उचित है जो इस संस्था को अजर-अमर करदे । होना तो असम्भव है क्योंकि हम लोगों को उसका स्वाद नहीं आया । अगर स्वाद आया होता, तब, एक आदमी इसे पूर्ण कर देता । कलकत्तामें सुनते हैं इसके उद्धारके लिये चार लाख रुपया हुआ था, परन्तु उसका कुछ भी सदुपयोग नहीं हुआ । उस कमेटी के प्रमुख श्री बाबू छोटेलालजीको इस ओर अवश्य ही ध्यान देना चाहिये और इस पुनीत कार्यको शीघ्र ही प्रारम्भ करना चाहिए। मेरा तो स्वयं मुख्तार साहबसे यह कहना है जो आपके पास हैं उसे अपनी अवस्थामें व्यय कर अपने द्वारा सम्पादित लक्षणावली आदि जो ग्रन्थ हैं, प्रकाशित कर जाइये । परलोक बाद क्या आप देखने आयेंगे कि हमारी संस्थामें क्या होरहा है ? इस अवस्थासे मुक्ति तो होना नहीं, स्वर्गवासी देव होगे, सो वे इस काल में श्रते नहीं । समाज में गुणग्राही पुरुषोंकी विरलता है । सम्भव है वे इसपर दृष्टिपात करें । महावीर स्वामीका तो यही आदेश है कि प्रभावना करो । आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥ २७६ अथवा For Personal & Private Use Only अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । निजशासन महात्म्यप्रकाशः स्यात् प्रभावना ॥ केवल बैड बाजे बजानेसे प्रभावना नहीं होती । दूसरे, समाजके सामने पुरातत्त्वकी खोज कर मनुष्योंके हृदयों में धर्मकी प्रभावना जमा देना उत्तम कार्य है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० अनेकान्त [ वर्ष ६ तीसरे, प्राचीन संस्कृत विद्याके पारगामी पण्डित हूँ जो हे नाथ ! मैं आपके चरणोंका अन्तरङ्गसे अनुबनाकर जनताके समक्ष वास्तविक तत्त्वके स्वरूपको रागी हूँ, मेरी सामर्थ्य नहीं थी जो उत्कृष्ट श्रावकका रख देना आवश्यकीय है। यद्यपि समयके अनुकूल आचार पाल सकूँ; परन्तु.आपके शासनके मोहवश कुछ विद्वान् जैन समाजमें गणनीय हैं पर उनके बाद इस क्षुल्लक पदको अङ्गीकार किया है । इसी वर्ष तीव्र भी यह परिपाटी चली जावे, इसकी महती आवश्य- गरमी पड़ी, दो मास तृषा परीषहका अनुभव होगया कता है। एक भी ऐसा विद्यालय नहीं जहां १०० छात्र और दैगम्बर धर्ममें दृढ श्रद्धा होगई। मेरे मनमें यह भी संस्कृतका अध्ययन करते हों। जितने विद्वान् हैं वे आता है कि जो यथागम इसे पालन करूँ, और इस तो अपने बालकोंको अर्थकरी विद्या पढ़ानेमें लगा देते संसार यातनासे बचूँ । आपके आगमसे मेरी तो दृढहैं। जो बालक सामान्य स्थितिके हैं उनके यह धारणा तम श्रद्धा होगई है जो आत्मा ही आत्माका गुरु है। होगई है जो संस्कृत विद्या पढ़नेसे कुछ लौकिक वैभव जिस समय इन रागादि शत्रुओंपर विजय कर लूँगा तो मिलता नहीं । पारलौकिककी आशा की जावे, जब उस समय स्वयं ही आप जैसा बन जाऊँगा। कुछ धर्मार्जन हो, सो जहाँ नोन-तेले-लकड़ीकी चिन्ता हे वीर ! आपने यही तो मार्ग बताया, परन्तु से मुक्ति नहीं वहाँ धर्मार्जन कैसा! अतः वे बालक हे भगवन् ! हम लोगोंने उस मार्गको नहीं अपनाया। भी उदास होगये । रहे धनाढ्योंके बालक, सो उन आपकी मूर्ति पूजी, निर्वाण-भूमि पूजी, किन्तु आपके लोगोंके यह विचार हैं जो हमको, पण्डित थोड़े ही बताये मार्गपर न चले। आपने तो परिग्रह त्याग बनाना है जो दर-दर जावें । हमें तो धनकी कृपा है बताया, किन्तु हम लोग आपके नामपर लाखों रुपया तब अनायास बीसों पण्डित हमारे यहाँ आते ही एकत्रित कर मू के पात्र बने हैं । मान लो रुपया भी रहेंगे । अतः मामूली विद्या पढ़ाकर बालकोंको दूकान- एकत्रित करें, तो उसी वीरप्रभुके शासन प्रचारमें लगा 'दारीके धन्धेमें लगा देते हैं । आप ही बतावें, ऐसी दें। परन्तु उस ओर हमारा लक्ष्य नहीं। हे प्रभो ! अवस्थामें वीरशासनका प्रचार कैसे हो ? रहा त्यागी- अब बहुत कष्टमय काल है। एक बार फिर प्राचीन वर्ग, सोंप्रथम तो जैनियोंमें त्यागी ही नहीं, जो हैं उन कालकी लहर आजाय, जो हम लोग सुमार्ग पर आवें के पठन-पाठनकी कोई व्यवस्था नहीं । अथवा, और आपके शासनका प्रचार करें। अन्तमें, क्रान्तिके समाजने उनके लिये एक या दो आश्रम जो खोले. भी इस युगमें वीरशासनके प्रचारके लिये समाजके हैं किन्तु वहाँ यथेष्ट पठन-पाठनकी व्यवस्था नहीं। विद्वानों और श्रीमानोंमें सङ्गठित कार्य करनेकी शक्ति समाज रुपया भी देना चाहती है तब परिग्रह-पिशाच . जागृत हो, इसकी भावना करते हुए हम अपने भाषणकी ऐसी कृपा होती है जो त्यागी महाराज भी उसीके को समाप्त करते हैं। बढ़ानेमें अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं। क्या कहूँ मैं श्री वीरप्रभुको अन्तिम नमस्कार करके यह प्रार्थना करता वीरशासनकी जय। For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय ये मनुष्य हैं या सांप ? रेखाएँ खींच ली हैं। और इन रेखाओंके अन्दर रहने सनते हैं डायन भी अपने-परायेका भेद जानती है। । वाले एक दूसरेका संहार करना तो दूर अनिष्ट करना ४ वह कितनी ही भूखी क्यों न हो; फिर भी अपने ___ भी नही सोचते । परन्तु भारतके हिन्दु और वह भी निरामिष भोजी, उच्चवर्णोत्पन्न उक्त मर्यादामें नहीं बच्चोंका भक्षण नहीं करती । सिंह-चीते, घड़ियाल बन्धे हैं। मुक्तिके इच्छुक इस बन्धनसे मुक्त हैं। न मगरमच्छ, बाज-गरुड़ आदि क्रूर हिंसक जानवर भी इनसे अपने देशवासी बच पाते हैं, न सहधर्मी सजातीयोंको नहीं खाते। कहते हैं साँपन एकसौ एक और न सजातीय। अण्डे प्रसव करती है और प्रसव करते ही उनमेंसे अधिकांश खा लेती है या नष्ट कर देती है। हमारा ___ चूँकि यह निरामिष भोजी हैं; रक्तमात्र देखनेसे अपना विश्वास है कि वह क्षुधा-शान्त करनेको इनका हृदय घबराने लगता है । इसलिये इन्होंने सन्तान -भक्षण , नहीं करती; अपितु लोक - रक्षाकी अपने कुटुम्बियों, इष्ट-मित्रों, सजातीय और सहधर्मी भावनासे प्रेरित होकर ही विषैली सन्तानके भक्षणको बन्धु-बान्धवोंके संहारका उपाय भी अहिंसक. बाध्य होती है। निकाल रक्खा है___ क्रूर-से-क्रूर पशु-पक्षी भी अपनी सीमाके अन्दर 'होजाएँ खून लाखों लेकिन लहू न निकले। ही केवल सुधा-पूर्ति के लिये विजातियोंका शिकार __क्या किसी देशमें, समाजमें अपनी बहन-बेटियोंकरते हैं। किन्तु, हज़रते इन्सानसे कुछ भी बईद को, बन्धु-बान्धवोंको शत्रुओंके हाथोंमें सौंपते हुए नहीं । ये जल-थल-नभ सर्वत्र विश्व-संहारको पहुँते किसीने देखा है ? न देखा, सुना हो तो भारतमें हैं । आवश्यक-अनावश्यक संसारको कष्ट देते हैं। आकर यह पैशाचिक लीला अपने आँखोंके सामने . शत्रुका तो संहार करते ही हैं; मित्रों और परोपकारियों होती देख लो। ये लोग गानका रस्सा तो कसाईसे को भी नहीं छोड़ते । जो काम शैतान करते हुए लजाये, छीनते हैं, पर, बहन-बेटियोंका हाथ स्वयं उनके हाथों उसे ये मुस्कराते हुए कर डालते हैं। में पकड़ा देते हैं । कुत्तों-बिल्लियोंको तो अपने साथ संसारमें शायद मछली और मनुष्य ही केवल दो सलाते और खिलाते हैं, पर अपने सजातियों-सह ऐसे विचित्र प्राणी हैं, जो सजातीयोंको भी नहीं धर्मियोंसे घृणा करते हैं। साँपोंको दूध पिलाने और छोड़ते । सम्भवतया जैनशास्त्रोंमें इसीलिये इन दोनोंके चिंउटियोंको शक्कर खिलानेके लिये तो ये लोग सातवें नरक तकके बन्ध होनेका उल्लेख मिलता है जबकि जङ्गल-जङ्गल घूमते हैं, पर अपहृत महिलाओंके अन्य क्रूर-से-क्रूर पशु-पक्षियोंके प्रायः छठे नरक तक उद्धारके बजाय उनकी छायासे भी दूर भागते हैं। काहीबन्ध होता है। इमानकी बात तो यह है कि चिड़ीमारके हाथासे तात-चिड़ियाांक मनुष्यकी करतूतोंकी तुलना किसी भी जानवरसे उद्धार करते हैं, पर आतताइयोंके चंगुल में फँसी,रोतीनहीं की जा सकती। यह अपनी यकताँ मिसाल है। बिलखतीं नारियोंको मुक्त करना पाप समझते हैं। ___मनुष्य अपने सजातीय यानी मनुष्यका संहार यूँ तो आये दिन इस तरहके काण्ड होते ही रहते करनेका आदी है। फिर भी भारतके हिन्दुओंके अति- हैं, परन्तु सीनेपर हाथ रखकर एक घटना और - रिक्त प्रायः सभी मनुष्योंने देश, धर्म, समाजकी पढ़ लीजिये: For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ अनेकान्त : साम्प्रदायिक उपद्रवोंके परिणामस्वरूप अन्यत्र की तरह देहरादूनमें भी हिन्दू-मुसलमानोंमें संघर्ष हुआ। उसी अवसरपर चार मुसलमान हाथोंमें तलवार लिये एक ब्राह्मणके घर पहुँचे । और ब्राह्मणसे जाकर बोले कि तुम सकुटुम्ब मुसलमान हो जाओ और अपनी जवान लड़कीको हममेंसे एकके साथ शादी कर दो, वर्ना हम सबको जानसे मार डालेंगे । ब्राह्मण यह दृश्य देखकर घबराया और . लड़की देने तथा धर्म-परिवर्तन करनेको प्रस्तुत हो होगया । किन्तु जब वह अपनी युक्ती कन्याका हाथ उनमें से एक मुसलमान के हाथमें देने लगा तो लड़कीने फुर्ती से उस मुसलमान से तलवार छीनकर पलक मारते ही दोको खुद्रा भेज दिया; बाकी दो भाग गये। वीर लड़कीके साहसके कारण ब्राह्मण और उसका कुटुम्ब तो धर्म-परिवर्तनसे बच गये, लेकिन उस वीराङ्गनाको खूनके अपराधमें पुलिस पकड़ कर | भाग्य देहरादूनका कलकर सहृदय और गुणज्ञ अंग्रेज था । उसे जब वास्तविक घटनाका ज्ञान हुआ तो उसने वह मुक़दमा किसी तरह अपनी अदालत में ले लिया और दो-चार पेशियोंके बाद लड़कीको निरपराध घोषित करके उसको लिवा जानेके लिये उस ब्राह्मणके पास इत्तला भेजी तो ब्राह्मणने कहलवा भेजा कि चार-पाँच रोज़में बिरादरीसे पूछ कर - बतला सकूँगा कि लड़कीको घरपर वापिस ला सकता हूं या नहीं । चार-पाँच रोजके बाद ब्राह्मणने लिख दिया कि - 'लड़कीको घरंपर वापिस लानेकी बिरादरी इजाजत नहीं देती, इसलिये वह मजबूर है।' इस उत्तरको पढ़कर कलकर बहुत हैरान हुआ और ब्राह्मणकी इस निष्ठुरताका कारण उसकी समझमें नहीं आया । लाचार उसने वहाँके आर्य समाजियोंको वह लड़की सौंपते हुए कहा - 'यदि यह लड़की इङ्गलिस्तानमें उत्पन्न होकर ऐसा वीरतापूर्ण कार्य करती तो अंग्रेज इसकी मूर्ति बनवाकर स्मृति स्वरूप किसी वाटिका में स्थापित करते और जो स्त्री-पुरुष वहाँसे पास होते उसको आदर देते । किन्तु यह हिन्दुस्तान है, यहाँका हिन्दु पिता अपनी लड़की [ वर्ष ह. को शाबासी देनेके बजाय उसे अपने साथ रखना भी पाप समझता है !' मालूम होता है कलर साहबको हिन्दुस्तान आये थोड़े ही दिन हुए होंगे । अन्यथा देहरादून के उस ब्राह्मणकी इस करतूत से वे व्यथित नहीं हुए होते ! उन्हें क्या मालूम कि यहाँ ऐसे ही सन्तानघातक और समाज-भक्षियोंका प्राबल्य है । ऐसे ही पापियोंके कारण भारतके १४-१५ करोड़ हिन्दू ईसाई और मुसलमान बने हैं। फिर भी इनकी यह लिप्सा अभी शान्त नहीं हुई है और दिन-रात अपने समाज और वंशका घात करने में लगे हुए हैं। यशोदाने मुस्लिम प्यासे पानी पी लिया. धनीराम सिंघाईके तांगेके नीचे चूहा मर गया, कनौजियोंकी परांतपर यवनोंकी परछांई पड़ गई। छुट्ट पंडेका तिलक रमजानी भटियारेने चाट लिया, गुड़गांवेंके गूजरोंने मेवोंके हाथ गाय बेच दी, श्रीमालीब्राह्मण मस्जिदके कुए पर स्नान कर आये । अतः ये सब विधर्मी होगये हैं। हिन्दुजातिसे वहिष्कृत, हुक्का-पानी, रोटी-बेटी व्यवहार इनके साथ बन्द ! और तारीफ़ यह कि वे स्वयं भी अपनेको पतित समझकर विधर्मियोंमें आंसू बहाते हुए मिल जाते हैं। न तो ये सोने-चाँदी से मढ़े भगवान् ही उनकी रक्षा कर पाते हैं न पतित-पावनी गङ्गा-यमुना, न भगवानका गन्धोदक । सब निकम्मे होजाते हैं और वे गायकी तरह डकराते हुए अपनों विछुड़नेको बाध्य होते हैं। इन पोंगापन्थियोंके कारण भारतको अनेक दुर्दिन देखने पड़े हैं । भारतपर जब विदेशियोंके आक्रमण होने लगे तो ये तिलक लगाये, हाथमें माला लिये निश्चेष्ट गो-मन्दिरोंका विध्वंस देखते रहे । सीता हरणकी कथा पढ़-पढ़कर रोते रहे. परन्तु आँखों के सामने हजारों सीताओं का अपहरण देखते हुए भी इनका रोम न हिला । काश्मीर के ब्राह्मणः बलात् मुसलमान बना लिये गये तो काश्मीरमहाराज काशी आकर गिड़गिड़ाये और इन धर्मके ठेकेदारोंसे उन्हें वापिस धर्म में ले लेनेकी व्यवस्था चाही, पर ये टस से मस न हुए। मूर्तिको पतित पावन और गणिका तथा सदना 1 For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] सम्पादकीय २८३ . कसाईके उद्धारकी कथा कहते-सुनते स्वयं पत्थर कैसे किसी एक भी औरतको जबर्दस्ती भगाया यां बन गये। बेइज्जत किया जा सकता है ? जब तक हम यह वुत बनके वोह सुना किये बेदादका गिला। मानते रहेंगे कि हमारी ऐसी बेइज्जती करते ही रहेंगे।" सूझा न कुछ जवाब तो पत्थरके होगये । वास्तवमें हिन्दुओंकी इस आत्म-घातक बुनियादी करोड़ों राजपूत-मेव,राँघड़, मलकाने मुसलमान कमजोरीको जड़मूलसे उखाड़नेके लिये बहुत बड़े बन गये, पर इन्होंने उनके रोने और घिघयानेपर भी आन्दोलनकी आवश्यकता है। मनुष्य जब आत्मउन्हें गले नहीं लगाया । लाखों महिलायें गत वर्ष ग्लानियोंसे भर उठता है और स्वयं अपनी नज़रोंसे अपहृत होगईं परन्तु ये वज्रहृदय न तो उनकी रक्षा पतित होजाता है, तब उसका उद्धार त्रिलोकीनाथ भी ही करनेको उद्यत हुए और न अब उन्हें वापिस लेने नहीं कर सकते। को ही तैयार हैं। गिर जाते हैं हम खुद अपनी नज़रोंसे सितम यह है । जिन पापियोंके कारण १०-१५ करोड़ हिन्दू बदल जाते तो कुछ रहते, मिटे जाते हैं ग़म यह है ॥ विधर्मी हुए उनके प्रायश्चित्तका असली उपाय यही है -अकबर कि उनकी सन्तानको काश्मीर और हैदराबाद के मोर्चों जो धर्म पतितोंको उबारने, विधर्मियोंको अपना पर हिन्दु जातिकी रक्षार्थ भेज देना चाहिये । क्योंकि बनानेमें सञ्जीवनी शक्ति था । वही आज चौका-चूल्हे, आक्रामक अधिकांश वही लोग हैं जो इनके कारण तिलक-जनेऊमें फंसकर समाज-भक्षक बन रहा है। विधर्मीब । और जो अब भी इस तरहके अप- हिन्दु जातिकी यह कितनी आत्म-घातक नीति वित्र मनुष्य हैं, उन्हें भङ्गियोंका कार्य सौंप देना रही है कि झूठ-मूठ दोष लगा देनेपर, या बलात् कोई चाहिए और भङ्गियोंको कोई दूसरा कार्य-ताकि अधर्म कार्य कराये जानेपर वह स्वयं अपनेको धर्मउनके मिलानेसे भङ्गी अपना अपमान न समझे। भृष्ट समझ लेती है ! और इस अपमानका बदला न समाजके ऐसे कोढ़ियोंको, जिनसे समाज क्षीण होता लेकर स्वयं विधर्मियोंमें सम्मिलित हो जाती.। हो, चाण्डालोंकी संज्ञा देकर उनसे चाण्डालों जैसा । और नारी-सतीत्व जो उसके अमरत्वके लिये व्यवहार करना चाहिए। . . अमृत था, वही अब विषसे भी अधिक घातक सिद्ध __वाहरे पोंगापन्थियो ! सकुटुम्ब धर्म-परिवर्तनको हो रहा है। जब स्त्री-पुरुष समान हैं तब बलात्कारसे तैयार! लुच्चे-लफंमोंको जवान लड़की देना मन्जूर !! केवल स्त्रीका ही धर्मभृष्ट क्यों समझा जाता है ? पुरुष न इसमें बिरादरीकी नाक कटती और न जातीय- का धर्मभृष्ट क्यों नहीं होता . नारी ही क्यों तिरस्कृत मर्यादा नष्ट होती । परन्तु आतताइयोंको पाठ पढ़ाने और घृणित होकर रह जाती है ? वह क्यों भोग्य वाली सीतासे भी बढकर सुशीला लड़कीको अपनाने- बनी हुई है ? में बिरादरीकी इज्जत गोबर होती! ___ नारीकी इसी दुर्बलतासे कामुक पुरुष लाभ उठाते बेशक ऐसी हिजड़ी समाज उसे कैसे अपनाती हैं। नारी इस कृत्यको इतना बुरा समझती है कि और कैसे अपना कलुषित मुँह दिखलातीः- पुरुषके बलात्कार करनेपर भी उसे गोपन रखनेकी परदेकी और कुछ वजह अहले जहाँ नहीं । . स्वयं मिन्नतें करती है। और किसीपर प्रकट न कर दे नियको दिखाने के काबिल नहीं रहे। इस आशङ्कासे उसके इशारोंपर नाचती है। उचितआत्म-घातक नीति अनुचित सभी बातें मानती है। स्वयं अपनेको भृष्ट 'एक ही रास्ता' शीर्षकमें महात्मा गाँधीजीने लिखा समझती है। और भृष्ट करने वाले नर-पशुसे बदला था-"मेरी समझमें यह नहीं आता कि कैसे किसी न लेकर उसके हाथोंमें खेलती है। आदमीका दीन-धर्म जबरन बदला जा सकता है। या १-हरिजन सेवक १ दि० १६४६ पृ० ४१२ । For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ [ वर्ष वाला अनुष्ठान होना चाहिये सो नहीं हो पाता। जबतक प्राचीन कीर्तिकलाकी जड़ें कुछ अंशों में हरी न होजायें तबतक कोई भी व्यक्ति हमारे समाजको शिक्षित कैसे मान सकता है ? जैन विद्यालयोंमें जो बालकोंको शिक्षा दी जाती है वह उनके नैतिक विकासके लिये तो पर्याप्त है ही परन्तु यदि समाज अजैन शिक्षा-विषयक संस्थाओं में जैन पीठ स्थापितकर सांस्कृतिक अनुशीलनका काम करे -करवावे तो बौद्धिक जीवन करनेवाले समाजका बहुत बड़ा उपकार हो सकता है । - गोयलीय और मैं तो मानता हूँ कि जैन संस्कृतिकी सच्ची सेवा किसी न किसी रूप में हो सकती है। मैं समाजका ध्यान कविवर श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा प्रस्थापित शान्तिनिकेतन आश्रमकी ओर खींचना चाहता हूँ, जहाँपर भारतीय संस्कृति और सभ्यताके सभी अङ्गका समुचित अध्ययन बड़े मनोयोग - पूर्वक कराया जाता है। शायद ही भारतका कोई शिक्षित व्यक्ति ऐसा होगा, जो वहाँकी शिक्षण - प्रणालिकासे अपरिचित हो । अनेकान्त 1 अतः अब इस प्रबल आन्दोलनकी आवश्यकता है कि नारीसे बलात्कार करनेपर भी उसका सतीत्व अखण्ड रहता है । कोई पापी कुछ ही खिलादे और और कुछ भी करले, पर धमभृष्ट नहीं होता। क्योंकि धर्म आत्माकी तरह अजर-अमर है । न इसे कोई नष्ट कर सकता है, न छीन सकता है, न अपवित्र कर सकता है । जो धर्म आत्माको परमात्मा बनानेकी अमोघ शक्ति रखता है, वह किसीसे भी छिन्न-भिन्न नहीं हो सकता । डालमियानगर (विहार) १६ जौलाई १६४८ श्रीशान्तिनिकेतन में जैन शिक्षापीठकी आवश्यकता आज दुनिया के सामने जो जलती हुई समस्याएँ हैं उनमें शैक्षणिक समस्या बहुत ही अधिक महत्त्व रखती है; क्योंकि किसी भी राष्ट्रकी सांस्कृतिक स्थिति की रक्षा शिक्षाकी मजबूत नींवपर ही अवलम्बित है। मानव के आधिभौतिक और आध्यात्मिक उन्नतिके मूल इसमें सन्निविष्ट हैं । बात बिल्कुल -दीपकवत् स्पष्ट है। अतः शिक्षा विषयक अधिक लिखना या विचार करना उपयुक्त नहीं; परन्तु यदि सचमुच में हमें यह हमारी कमजोरी दीखती है तो उसे क्रियात्मक उपायोंसे अविलम्ब दूर करना चाहिये । कथन और मननका जमाना गया, जमाना है ठोस काम करनेका, वह भी मूकभावसे । वर्तमान जैनसमाजकी शिक्षणप्रणालिका र यदि दृष्टि कर उसपर गम्भीरता पूर्वक विचार करेंगे तो बड़ी भारी निराशा होगी । जिस पद्धतिके अनुसार जैन बालक और प्रौढोंकी शिक्षा होनी चाहिये उसका हमारे सर्वथा अभाव भले ही न हो पर वह दिशा अवश्य ही उपेक्षित है। इसके कटुफल हमारी सन्तानको चखना पड़ेंगे। आजका सांस्कृतिक वायुमण्डल जैनोंके अनुकूल होने के बावजूद भी समाज इसपर समुचित ध्यान नहीं दे रहा है। कहनेको तो शिक्षालय - गुरुकुलोंकी हमारे यहाँ कोई कमी नहीं हैं परन्तु फिर भी जो सांस्कृतिक गौरव - गरिमाको बढ़ाने कलकत्तासे पटनाकी ओर विहार करते हुए मुझे कुछ यहां पर रहनेका सुअवसर प्राप्त हुआ था, वहाँ पर मैंने चीनाभवन, हिन्दी भवन, प्राच्यविद्याभवन, कलाभवन आदि पृथक पृथक विद्याकी शाखा की सुसाधना करनेवाले शिक्षा मन्दिरोंका अवलोकन किया एवं अध्यापकोंसे भी एतद्विषयक विचार विनिमय - किया । चीनी, फारसी, अरबी, पाली, हिन्दी, संस्कृत, बंगला आदि भारतकी सभी प्रान्तीय भाषाओं और विविध साहित्योंका गंभीर अध्ययन तथा मनन यहाँ पर होता है । यही कारण है कि विदेशों में इस आश्रमका जो स्थान है वह किसीको प्राप्त नहीं हुआ । विदेशी गवेषक और भारतीय संस्कृतिके प्रेमी विद्वान् यहाँपर आते ही रहते हैं। वे तो यही समझते हैं कि भारतीय सभी धर्मों और साहित्योंका प्रधान केन्द्र शांतिनिकेतन है और बात भी कुछ अंशोंमें सच है । परन्तु यहाँ पर दो बातोंकी मैंने जो कमी देखी वह मुझे उसी समय बहुत ही अखरी - एक तो इतनी विशाल लायब्रेरीमें उच्च श्र णिके जैन- साहित्यका सर्वथा अभाव, जो अनु For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] शीलनात्मक कार्योंमें सहायता करना हो वहाँके विद्वानोंमें पं० प्रवर हजारीप्रसादजी द्विवेदी, आचार्य क्षितिमोहनसेन, जैनसाहित्यके प्रेमी और अन्वेषक हैं। श्रीयुत् रामसिंहजी तोमर तो प्राकृत और अपभ्रंश साहित्यके गंभीर अभ्यासी हैं । आपने अपभ्रंशभाषा और साहित्यका विवेचनात्मक इतिहास भी बड़े परिश्रमपूर्वक तैयार किया है जो शीघ्र ही हिन्दीभवनकी रसे प्रकाशित होगा। आगे भी उपर्युक्त विद्वान जैन संस्कृतिपर अध्ययन करनेकी सुरुचि रखते हैं; परन्तु आवश्यक साधनों के अभाव में उनका कार्य बढ़ नहीं सकता, जब कभी कुछ जैनसाहित्य और संस्कृति - विषयक ग्रन्थोंकी आवश्यकता पड़जाती है तो उन्हें वैयक्तिक रूपसे कहींसे प्राप्त कर काम चलाना पड़ता है। जैन समाज के लिये यह अत्यन्त खेदका विषय होना चाहिये । स्वतंत्र अन्वेषण करना तो रहा दूर, पर जो एतद्विषयक कार्योंमें अपना बहुमूल्य समय दे रहे हैं उनको आवश्यक साहित्यिक साधनों की भी पूर्ति न करना और सांस्कृतिक प्रचारकी बड़ी बड़ी बातें करना इसका क्या अर्थ हो सकता है ? खुशीकी बात है कि कलकत्ता- निवासी प्रसन्नचन्द बोथराने उपाध्याय सुखसागरजी महाराजके सदुपदेशसे ५०० रुपयोंका जैनसाहित्य यहाँ के लिये मँगवाना तै किया है । पर इससे होगा क्या ? सम्पूर्ण जैनसाहित्यिक संस्थाओंको-जो प्रचार कर रही हैं— चाहिये कि प्रकाशित ग्रन्थोंकी एक-एक प्रति तो अवश्य ही यहाँ भिजवावें । सम्पादकीय दूसरी अखरनेकी बात है वहाँपर जैन विद्यापीठका न होना, जब अधिक प्रसिद्ध धर्मों, साहित्योंकी २८५ अध्ययन प्रवृत्तियाँ यहाँ चलें और जैन शिक्षाकी कोई भी समुचित व्यवस्था न हो, यह भी आश्चर्यका ही विषय है । १५ वर्ष पूर्व बाबू बहादुरसिंह सिंघीके प्रयास से 'सिंघीविद्यापीठ' संस्थापित हुई थी, जिसके मुख्य अध्यापक पुरातत्त्वाचार्य जिनविजयजी थे परन्तु उनका जबसे वहाँ से प्रयाण हुआ तभीसे संस्था भी चली गई । अब जैनों की कोई खास व्यवस्था वहाँपर नहीं है । जबकि वहाँ के कार्यकर्ता चाहते अवश्य हैं । अतः जैनसमाजके श्रीमन्त व्यक्तियोंको चाहिये कि प्राकृतभाषा और जैनसाहित्यादिकी शिक्षाके लिये या तो जैन संस्कृतिशिक्षापीठ जैसी कोई स्वतन्त्र संस्था या ऐसी जैनचेयर वहाँपर अवश्य ही स्थापित कर देवे जिसपर एक ऐसे विद्वानकी नियुक्ति की जाये जो जैन दर्शन, धर्म, साहित्यादि सभी विषयोंका विद्वान् और तुलनात्मक अभ्यास करनेमें रुचि रखता हो, साम्प्रदायिक व्यामोहसे दूर हो । यदि यह व्यवस्था जैनसमाज कर दें तो रहने - करनेकी सुविधा वे देने को तैयार हैं। अधिक खर्च भी नहीं है केवल प्रतिवर्ष ५००० हजारका खर्च होगा, परन्तु वहाँ के सांस्कृतिक वायुमण्डल में जो तुलनात्मक अध्ययन जैन - अजैन व्यक्ति करेंगे वे श्रागे चलकर हमारी समाजके लिये बहुत ही उपयोगी प्रमाणित होंगे। मैं तो चाहूँगा कि जैनी लोग इस बातको अतिशीघ्र विचार कर "जैनशिक्षापीठ" स्थापित कर दें । जहाँ जैन संस्कृतिके विविध अङ्गका तलस्पर्शी अध्ययन, मनन और अन्वेषण हो । पटना सिटी, ता० २३-७-४८ - मुनिकान्तिसागर वीरसेवामन्दिरको प्राप्त सहायता किरण प्रकाशित सहायताके बाद वीरसेवामन्दिरको निम्न सहायता की प्राप्ति हुई है, जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं: ६००) बाबू नन्दलालजी सरावगी कलकत्ता (तैयार ग्रन्थोंके प्रकाशनार्थं स्वीकृत दस हजारकी सहायताके मध्ये) । ' १००) निर्मलकुमारजी सुपुत्र उक्त बाबू नन्दलालजी कलकत्ता । १००) बाबू शान्तिनाथजी सुपुत्र उक्त बाबू नन्दलालजी कलकत्ता । १०) श्रीदिगम्बर जैनसमाज बाराबङ्की, मार्फत ला० कन्हैयालजी जैन बाराबङ्की । For Personal & Private Use Only - अधिष्ठाता Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाकिस्तानी पत्र [पं० उग्रसेन गोस्वामी बी० ए०, एल-एल० बी० रावलपिंडी ज़िलेके अन्तर्गत सैय्यद कसरा गाँवके रहने वाले हैं । विभाजन होनेसे पूर्व कई लाखके आदमी थे । मकान-बगीचा था, सैकड़ों बीधे ज़मीन थी । गाँवमें अपनी भद्रता और वंश-प्रतिष्ठाके कारण श्रादर-सम्मानकी दृष्टिसे देखे जाते थे । आजकल डालमियानगरमें रहते हैं और मेरे पास उठते-बैठते हैं । इनके बाल्य-सखा कसरा साहबके अक्सर पत्र पाकिस्तानसे आते रहते है । एक पत्र उनमेंसे नीचे दिया जा रहा है । कसरा साहब उर्दू के ख्यातिप्राप्त शायर और लेखक हैं । बड़े नेक सहृदय मुसलमान हैं । डालमियानगरमें भारत-विभाजनसे पूर्व एक बार तशरीफ़ लाये थे; तब उनकी पत्नीका देहान्त हुए ४ रोज़ हुए थे। फिर भी मेरे यहाँ बच्चे की वर्षगाँठमें सम्मिलित हुए : मुबारकबादी-ग़ज़ल पढ़ी। रातके १२-१ बजे तक शेरोशायरीका दौर चला, परन्तु यह आभास तक न हो सका कि आपपर पत्नी-वियोगका पहाड़ टूट पड़ा है। उनके जानेके बाद ही उक्त घटनाका पता चला । ऐसा वज्र-हृदय मनुष्य भी पञ्जाबका रक्त-काण्ड देखकर रो उठा । . –गोयलीय] मुहब्बिये दिलनवाज़ जनाब गोस्वामी साहब, रावलपिंडी, जेहलम, कैमलपुर या. जैसे अज़ला - यह खत क्यों भेज रहा हूँ, कुछ न पूछिये । मैंने जहाँ अहले हनूद और सिक्खं भाइयोंकी तादाद कम है। सैयदके हालात सुने हैं, अभी गया नहीं । लेकिन जो आह ! इस अकलियतकों किस तरह बरबाद किया कुछ सुना है, वह इतना है कि मैं और आप अपने गया । ऐसा जुल्म तो किसी बड़े-से-बड़े ज़ालिम हमवतनोंकी रज़ालत, मज़हबी दीवानगी और दरिन्दगीकी बादशाहने भी मखलूके खुदापर नहीं किया । चंगेज़ और वजहसे कभी किसी मौजिज़ शख्शके सामने शर्मिन्दगीसे हलाकू फ़िसाने बनकर रह गये । इस तरीके ज़मानेमें सर नहीं उठा सकेंगे । एक दीवानगीका सैलाब था, जो यह बरबरैयत ? या अल्लाह ! खुदाकी पनाह, दिल नहीं आया और रास्तेमें जो कुछ भी मिला उसे बहाकर ले चाहता कि ऐसे मुल्कमें रहें । यह मुल्क दरिन्दोंका मुल्क गया । गाँवके एक-एक मकानको जलाया गया। स्कूलको है । इन्सानियतकी कीमत यहाँ कुछ भी नहीं । जज़्बये खाकिस्तर कर दिया । यह नहीं सोचा कि आइन्दा बच्चों शराफ़त नापैद और खिज़फ़े रज़ालत अनगिनत । अब की तालीमका क्या होगा ? चीज़ मिटाई तो आसानीसे कैसा सलाम और कैसी दुआ ? मिलें भी तो कैसे मिलें ? जा सकती है, लेकिन बनाना मुश्किल होता है । फिर वे सिल्सिले खत्म . हो गये । वे दिन जाते रहे । इस किस्मके अदारे जिसमें हर क़ौम और हर मज़हबके इन्सानियत बदल गई । मेरे भाई, मैं आपसे निहायत बच्चे अपने मज़ाक और काबलियतके मुताबिक़ फ़ायदा शर्मिन्दा हूँ कि मेरी कौमने दरिन्दगीका वह मज़ाहिरा उठा सकते हैं । इनको मिटाना एक ऐसा गुनाह है किया जिसके लिये मेरा सर हमेशा नीचा रहेगा। जिसको कोई माफ़ नहीं कर सकता। ..... -गुलामहुसैन कसरा मिनहास For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन १. महाबन्ध — (महधवल सिद्धान्तशास्त्र) प्रथम भाग | हिन्दी टोका सहित मूल्य १२) । ७. मुक्ति- दूत - अञ्जना - पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौराणिक रौमाँस) मू०४||| ८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां - (६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमें उदाहरण देने योग्य | मूल्य ३) । ९. पथ चिह्न – ( हिन्दी-साहित्यकी अनुपम पुस्तक) स्मृति रेखाएँ और निबन्ध | मूल्य २)। १०. पाश्चात्यतक शास्त्र - (पहला भाग ) एक० ए० के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक | लेखक - भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ० ए०, पालि- अध्यापक, हिन्दू विश्व विद्यालय, काशी । पृष्ठ ३८४ । मूल्य ४ || । ११. कुन्दकुन्दाचार्य के तीन रत्नमूल्य २) । १२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची - (हिन्दी) मूडबिद्रीके जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्तवसदि तथा अन्य ग्रन्थभण्डार कारकल और अलिपूरके अलभ्य ताडपत्रीय ग्रन्थोंके सविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिरमें तथा शास्त्र भण्डारमें विराजमान करने योग्य । मूल्य १०) । २. करलक्खरण — (सामुद्रिक शास्त्र) हिन्दी अनुवाद सहित | हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ | सम्पादक - प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । मूल्य २) । ३. मदनपराजय — कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना सहित । जिनदेव के काम के पराजयंका सरस रूपक | सम्पादक और अनुवादक - पं० राजकुमारजी सा० । मू०८). ४. जैनशासन – जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना | हिन्दू विश्वविद्यालय के जैन रिलीजन के एफ० ए० के पाठ्यक्रम में निर्धारित । मुखपृष्ठ पर महावीर स्वामीका तिरङ्गा चित्र । मूल्य ४| - J ५. हिन्दी जैन - साहित्यका संक्षिप्त इतिहास – हिन्दी जैन - साहित्य का इतिहास तथा परिचय । मूल्य २||| ) | ६. आधुनिक जैन - कवि - वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ | मूल्य ३|||| वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं. प्रचारार्थ पुस्तक मँगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. A-731 Pasagam Pu@ாம वीरसेवामन्दिर सरसाकाके प्रकाशन Daca e Shke@hskoek 1 अनित्य-भावना आ० पद्मनन्दिकृत भावपूर्ण और हृदयग्राही महत्वकी कृति, साहित्य-तपस्वी पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तारके हिन्दी-पद्यानुवाद और भावार्थ सहित / मूल्य / ) 2 आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र सरल-संक्षिप्त नया सूत्र-ग्रन्थ, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारकी सुबोध हिन्दी-व्याख्यासहित / मूल्य ) 3 न्याय-दीपिका (महत्वका नया संस्करण)- अभिनव ॐ धर्मभूषण-यति रचित न्याय-विषयकी सुबोध द प्राथमिक रचना, न्याचार्य पं० दरबारीलाल कोठिया द्वारा सम्पादित, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत (101 पृष्ठकी) प्रस्तावना, प्राक्कथन, परिशिष्टादिसे विशिष्ट, 400 पृष्ठ प्रमाण, लागत मूल्य 5) / इसकी थोड़ी ही प्रतियाँ शेष रही हैं। विद्वानों और छात्रोंने इस संस्करणको खूब पसन्द किया है / शीघ्रता करें। फिर न मिलने पर पछताना पड़ेगा। 4 सत्साधु-स्मरणगंगलपाठ अभूतपूर्व सुन्दर और विशिष्ट संकलन, संकलयिता पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार, भगवान महावीरसे लेकर जिनसेनाचार्य पर्यन्त के 21 महान् जैनाचार्यों के प्रभावक गुणस्मरणों से युक्त / मूल्य ) 5 अध्यात्म-कमल-मात्त एड पञ्चाध्यायी तथा लाटीसंहिता आदि ग्रन्थों के रचयिता पं० राजमल्ल-विचित अपर्व आध्यात्मिक कृति, न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल कोठिया और पं० परमानन्दजी शास्त्रीके सरल हिन्दी अनुवादादि-सहित तथा मुख्तार पंडित जुगलकिशोरजी-द्वारा लिखित विस्तृत प्रस्तावनासे विशिष्ट / मूल्य || 6 उमास्वामिश्रावकाचार-परीक्षा मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी-द्वारा लिखित प्रन्थ-परीक्षाओंका इतिहास-सहित प्रथम अंश / मूल्य / / 7 विवाह-समुद्दश्य_____पं० जुगलकिशोरजी मुख्तोर-रचित विवाह के रहस्यको बतलाने वाली और विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य सुन्दर कृति / // SSRICISISRUSHRSta SISTORS re CURRBODOSA56 वीरसेवामन्दिरमें जो साहित्य तैयार किया जाता है वह प्रचारकी दृष्टिसे तैयार होता है एक व्यवसायके लिये नहीं और इसीलिये काग़ज, छपाई आदिके दाम बढ़ जानेपर भी पुस्तकोंका मूल्य वही पुराना (सन् १९४३का) रखा है। इतनेपर भी 10) से ज्यादाकी पुस्तकोंपर उचित कमीशन दिया जाता है। ORIESCORIA प्रकाशन विभाग-वीरसेवामन्दिर, सरसावा ज़िला सहारनपुर kak @Scresh @: S ka@kka@vsaa काशक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय ज्ञानपीठ काशीके लिये आशाराम खत्री द्वारा रॉयल प्रेस सहारनपुरमें मुद्रित Jain Education Interational For Personal & Private Use Only t