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________________ २७० अनेकान्त | । यिक सत्शिक्षा और सदुपदेशोंसे सुमार्गपर लाकर उन्हें उत्थान पथका पथिक बनाना चाहिए । शक्ति होते हुए भी यदि उसका विनियोग न किया जावे तो एक प्रकारका घातकीपन है । श्रणीके पहले मुनि लोगों की भी भावना संसारके उद्धारकी रहती जो मनुष्य दयाके कार्योंको नहीं करते वे भयङ्कर पाप करनेवाले हैं । अतएव यथाशक्ति दुःखियोंके दुःख दूर करनेका यत्न प्रत्येक मनुष्यको करना चाहिए बहुतसे भाइयोंकी ऐसी धारणा होगई कि पात्रोंके बिना दान देना केवल पापबन्धका करने वाला है। उन्हें इन पं॰ रॉजमल्लके वाक्योंका स्मरण करना चाहिए:दानं चतुर्विधं देयं, प्रत्रबुद्ध्याथ श्रद्धया । जघन्यमध्यमौत्कृष्टपात्रेभ्यः श्रावकोत्तमैः ॥ सुपात्रायाप्यपात्राय, दानं देयं यथोचितम् । पात्रबुद्ध्या निषिद्ध ं स्या-निषिद्धनं कृपाधिया ॥ शेषोभ्यः क्षुत्पिपासादि पीडितेभ्यो शभोदयात् । दीनेभ्यो ऽभयदानादि, दातव्यं करुणार्णवैः ॥ (पञ्चाध्यायी तृतीय श्रेणीके मनुष्य जो कुमार्गके पथिक हो चुके हैं, तथा जिनकी अधम स्थिति होचुकी है वह भी दयाके पात्र हैं। उनको दुष्ट आदि शब्दोंसे व्यवहार कर छोड़ देने का नहीं चलेगा। किन्तु उन्हें भी 'सन्मार्गपर लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। जैनधर्म तो प्राणिमात्रके हितका कर्ता है सूकर, सिंह, नकुल, बानर तक जीवोंको उपदेशका पात्र इसके द्वारा हुआ मनुष्योंकी कथा तो दूर रही । तथा श्री विद्यानन्दिने भी कहा है कि जो दुष्ट और असदाचारी हैं वह सद्धर्मको न जानकर इस उदाहरणके जाल में फँस गये हैं । अतएव ऐसे जो प्राणी हैं वह धिक्कारके पात्र नहीं प्रत्युत आपके द्वारा दयाके पात्र हैं । उनके ऊपर अत्यन्त सोम्यभाव रखते हुए सम्यगुपदेशों द्वारा उन्हें सन्मार्गपर लगाना प्रत्येक दयाशील मनुष्यका कर्तव्य है । दानके भेद इस दानके श्राचार्योंने संक्षेपसे ४ भेद बतलाये हैं । (१) आहार ( २ ) औषध (३) अभय (४) ज्ञान । Jain Education International A . १ - आहारदान और औषधिदान जो मनुष्य क्षुधासे क्षामकुक्षि एवं जर्जर होरहा है रोगसे पीडित है । सबसे प्रथम तथा आदि रोगोंको भोजन औषधि देकर निवृत्त करना चाहिए । आवश्यकता इसी बात की है । क्योंकि “बुभुक्षितः किं न करोति पापं " ( भूखा आदमी कौनसा पाप नहीं करता) इससे किसी कविने कहा है कि “शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनं " तथा शरीरके नीरोग रहने पर बुद्धिका विकाश होता है; तदुक्तं - "स्वस्थ - चित्ते बुद्धयः प्रस्फुरन्ति” तथा ज्ञान और धर्मके अर्जन का यत्न होता है । शरीर के नीरोग न रहनेपर विद्या और धर्मकी रुचि मन्द पड़ जाती है अतएव अन्नजल आदि औषधि द्वारा दुःखसे दुःखी प्राणियोंके दुःखका अपहरण करके उन्हें ज्ञानादिके अभ्यास में लग(नेका यत्न प्रत्येक प्राणीका मुख्य कर्तव्य होना चाहिए। जिससे ज्ञान द्वारा वह यथार्थवस्तुका जान कर प्राणी इस संसारके जाल में न फँसे । ज्ञानदान [ वर्ष ६ 'अन्नदानकी अपेक्षा विद्यादान अत्यन्त उत्तम है। क्योंकि अन्नसे प्राणिकी क्षणिक तृप्ति होती है किन्तु विद्यादानसे शास्वती तृप्ति होती है। विद्याविलासियोंको एक अद्भुत मानसिक सुख होता है, इन्द्रियोंके विलासियोंको वह सुख अत्यन्त दुर्लभ है क्योंकि वह सुख स्व-स्वभावोत्थ है जब कि इन्द्रियजन्य सुख पर जन्य है । अभयदान इसी तरह अभयदान भी एक दान है, यह भी बड़ा महत्वशाली दान है। इसका कारण यह है कि मनुष्यमात्रको ही नहीं, अपितु प्राणीमात्रको प शरीरसे प्रेम होता है। बाल हो अथवा युवा हो, आहोस्वित्, वृद्ध हो, परन्तु मरना किसीको इष्ट नहीं । मरते हुए प्राणिकी अभयदानसे रक्षा करना बड़े ही महत्व और शुभबन्धका कारण है। ऐसी रक्षा करने १ अन्नदानं परं दानं विद्यादानमतः परम् । अन्नन क्षणिका तृप्तिर्याजीवं तु विद्यया । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527257
Book TitleAnekant 1948 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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