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________________ किरण ७ ] सम्पादकीय २८३ . कसाईके उद्धारकी कथा कहते-सुनते स्वयं पत्थर कैसे किसी एक भी औरतको जबर्दस्ती भगाया यां बन गये। बेइज्जत किया जा सकता है ? जब तक हम यह वुत बनके वोह सुना किये बेदादका गिला। मानते रहेंगे कि हमारी ऐसी बेइज्जती करते ही रहेंगे।" सूझा न कुछ जवाब तो पत्थरके होगये । वास्तवमें हिन्दुओंकी इस आत्म-घातक बुनियादी करोड़ों राजपूत-मेव,राँघड़, मलकाने मुसलमान कमजोरीको जड़मूलसे उखाड़नेके लिये बहुत बड़े बन गये, पर इन्होंने उनके रोने और घिघयानेपर भी आन्दोलनकी आवश्यकता है। मनुष्य जब आत्मउन्हें गले नहीं लगाया । लाखों महिलायें गत वर्ष ग्लानियोंसे भर उठता है और स्वयं अपनी नज़रोंसे अपहृत होगईं परन्तु ये वज्रहृदय न तो उनकी रक्षा पतित होजाता है, तब उसका उद्धार त्रिलोकीनाथ भी ही करनेको उद्यत हुए और न अब उन्हें वापिस लेने नहीं कर सकते। को ही तैयार हैं। गिर जाते हैं हम खुद अपनी नज़रोंसे सितम यह है । जिन पापियोंके कारण १०-१५ करोड़ हिन्दू बदल जाते तो कुछ रहते, मिटे जाते हैं ग़म यह है ॥ विधर्मी हुए उनके प्रायश्चित्तका असली उपाय यही है -अकबर कि उनकी सन्तानको काश्मीर और हैदराबाद के मोर्चों जो धर्म पतितोंको उबारने, विधर्मियोंको अपना पर हिन्दु जातिकी रक्षार्थ भेज देना चाहिये । क्योंकि बनानेमें सञ्जीवनी शक्ति था । वही आज चौका-चूल्हे, आक्रामक अधिकांश वही लोग हैं जो इनके कारण तिलक-जनेऊमें फंसकर समाज-भक्षक बन रहा है। विधर्मीब । और जो अब भी इस तरहके अप- हिन्दु जातिकी यह कितनी आत्म-घातक नीति वित्र मनुष्य हैं, उन्हें भङ्गियोंका कार्य सौंप देना रही है कि झूठ-मूठ दोष लगा देनेपर, या बलात् कोई चाहिए और भङ्गियोंको कोई दूसरा कार्य-ताकि अधर्म कार्य कराये जानेपर वह स्वयं अपनेको धर्मउनके मिलानेसे भङ्गी अपना अपमान न समझे। भृष्ट समझ लेती है ! और इस अपमानका बदला न समाजके ऐसे कोढ़ियोंको, जिनसे समाज क्षीण होता लेकर स्वयं विधर्मियोंमें सम्मिलित हो जाती.। हो, चाण्डालोंकी संज्ञा देकर उनसे चाण्डालों जैसा । और नारी-सतीत्व जो उसके अमरत्वके लिये व्यवहार करना चाहिए। . . अमृत था, वही अब विषसे भी अधिक घातक सिद्ध __वाहरे पोंगापन्थियो ! सकुटुम्ब धर्म-परिवर्तनको हो रहा है। जब स्त्री-पुरुष समान हैं तब बलात्कारसे तैयार! लुच्चे-लफंमोंको जवान लड़की देना मन्जूर !! केवल स्त्रीका ही धर्मभृष्ट क्यों समझा जाता है ? पुरुष न इसमें बिरादरीकी नाक कटती और न जातीय- का धर्मभृष्ट क्यों नहीं होता . नारी ही क्यों तिरस्कृत मर्यादा नष्ट होती । परन्तु आतताइयोंको पाठ पढ़ाने और घृणित होकर रह जाती है ? वह क्यों भोग्य वाली सीतासे भी बढकर सुशीला लड़कीको अपनाने- बनी हुई है ? में बिरादरीकी इज्जत गोबर होती! ___ नारीकी इसी दुर्बलतासे कामुक पुरुष लाभ उठाते बेशक ऐसी हिजड़ी समाज उसे कैसे अपनाती हैं। नारी इस कृत्यको इतना बुरा समझती है कि और कैसे अपना कलुषित मुँह दिखलातीः- पुरुषके बलात्कार करनेपर भी उसे गोपन रखनेकी परदेकी और कुछ वजह अहले जहाँ नहीं । . स्वयं मिन्नतें करती है। और किसीपर प्रकट न कर दे नियको दिखाने के काबिल नहीं रहे। इस आशङ्कासे उसके इशारोंपर नाचती है। उचितआत्म-घातक नीति अनुचित सभी बातें मानती है। स्वयं अपनेको भृष्ट 'एक ही रास्ता' शीर्षकमें महात्मा गाँधीजीने लिखा समझती है। और भृष्ट करने वाले नर-पशुसे बदला था-"मेरी समझमें यह नहीं आता कि कैसे किसी न लेकर उसके हाथोंमें खेलती है। आदमीका दीन-धर्म जबरन बदला जा सकता है। या १-हरिजन सेवक १ दि० १६४६ पृ० ४१२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527257
Book TitleAnekant 1948 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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