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________________ २८४ [ वर्ष वाला अनुष्ठान होना चाहिये सो नहीं हो पाता। जबतक प्राचीन कीर्तिकलाकी जड़ें कुछ अंशों में हरी न होजायें तबतक कोई भी व्यक्ति हमारे समाजको शिक्षित कैसे मान सकता है ? जैन विद्यालयोंमें जो बालकोंको शिक्षा दी जाती है वह उनके नैतिक विकासके लिये तो पर्याप्त है ही परन्तु यदि समाज अजैन शिक्षा-विषयक संस्थाओं में जैन पीठ स्थापितकर सांस्कृतिक अनुशीलनका काम करे -करवावे तो बौद्धिक जीवन करनेवाले समाजका बहुत बड़ा उपकार हो सकता है । - गोयलीय और मैं तो मानता हूँ कि जैन संस्कृतिकी सच्ची सेवा किसी न किसी रूप में हो सकती है। मैं समाजका ध्यान कविवर श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा प्रस्थापित शान्तिनिकेतन आश्रमकी ओर खींचना चाहता हूँ, जहाँपर भारतीय संस्कृति और सभ्यताके सभी अङ्गका समुचित अध्ययन बड़े मनोयोग - पूर्वक कराया जाता है। शायद ही भारतका कोई शिक्षित व्यक्ति ऐसा होगा, जो वहाँकी शिक्षण - प्रणालिकासे अपरिचित हो । अनेकान्त 1 अतः अब इस प्रबल आन्दोलनकी आवश्यकता है कि नारीसे बलात्कार करनेपर भी उसका सतीत्व अखण्ड रहता है । कोई पापी कुछ ही खिलादे और और कुछ भी करले, पर धमभृष्ट नहीं होता। क्योंकि धर्म आत्माकी तरह अजर-अमर है । न इसे कोई नष्ट कर सकता है, न छीन सकता है, न अपवित्र कर सकता है । जो धर्म आत्माको परमात्मा बनानेकी अमोघ शक्ति रखता है, वह किसीसे भी छिन्न-भिन्न नहीं हो सकता । डालमियानगर (विहार) १६ जौलाई १६४८ श्रीशान्तिनिकेतन में जैन शिक्षापीठकी Jain Education International आवश्यकता आज दुनिया के सामने जो जलती हुई समस्याएँ हैं उनमें शैक्षणिक समस्या बहुत ही अधिक महत्त्व रखती है; क्योंकि किसी भी राष्ट्रकी सांस्कृतिक स्थिति की रक्षा शिक्षाकी मजबूत नींवपर ही अवलम्बित है। मानव के आधिभौतिक और आध्यात्मिक उन्नतिके मूल इसमें सन्निविष्ट हैं । बात बिल्कुल -दीपकवत् स्पष्ट है। अतः शिक्षा विषयक अधिक लिखना या विचार करना उपयुक्त नहीं; परन्तु यदि सचमुच में हमें यह हमारी कमजोरी दीखती है तो उसे क्रियात्मक उपायोंसे अविलम्ब दूर करना चाहिये । कथन और मननका जमाना गया, जमाना है ठोस काम करनेका, वह भी मूकभावसे । वर्तमान जैनसमाजकी शिक्षणप्रणालिका र यदि दृष्टि कर उसपर गम्भीरता पूर्वक विचार करेंगे तो बड़ी भारी निराशा होगी । जिस पद्धतिके अनुसार जैन बालक और प्रौढोंकी शिक्षा होनी चाहिये उसका हमारे सर्वथा अभाव भले ही न हो पर वह दिशा अवश्य ही उपेक्षित है। इसके कटुफल हमारी सन्तानको चखना पड़ेंगे। आजका सांस्कृतिक वायुमण्डल जैनोंके अनुकूल होने के बावजूद भी समाज इसपर समुचित ध्यान नहीं दे रहा है। कहनेको तो शिक्षालय - गुरुकुलोंकी हमारे यहाँ कोई कमी नहीं हैं परन्तु फिर भी जो सांस्कृतिक गौरव - गरिमाको बढ़ाने कलकत्तासे पटनाकी ओर विहार करते हुए मुझे कुछ यहां पर रहनेका सुअवसर प्राप्त हुआ था, वहाँ पर मैंने चीनाभवन, हिन्दी भवन, प्राच्यविद्याभवन, कलाभवन आदि पृथक पृथक विद्याकी शाखा की सुसाधना करनेवाले शिक्षा मन्दिरोंका अवलोकन किया एवं अध्यापकोंसे भी एतद्विषयक विचार विनिमय - किया । चीनी, फारसी, अरबी, पाली, हिन्दी, संस्कृत, बंगला आदि भारतकी सभी प्रान्तीय भाषाओं और विविध साहित्योंका गंभीर अध्ययन तथा मनन यहाँ पर होता है । यही कारण है कि विदेशों में इस आश्रमका जो स्थान है वह किसीको प्राप्त नहीं हुआ । विदेशी गवेषक और भारतीय संस्कृतिके प्रेमी विद्वान् यहाँपर आते ही रहते हैं। वे तो यही समझते हैं कि भारतीय सभी धर्मों और साहित्योंका प्रधान केन्द्र शांतिनिकेतन है और बात भी कुछ अंशोंमें सच है । परन्तु यहाँ पर दो बातोंकी मैंने जो कमी देखी वह मुझे उसी समय बहुत ही अखरी - एक तो इतनी विशाल लायब्रेरीमें उच्च श्र णिके जैन- साहित्यका सर्वथा अभाव, जो अनु For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527257
Book TitleAnekant 1948 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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