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________________ २६६ अनेकान्त - [वर्ष पूर्वक प्रकट किया है, पर इस संग्रहमें केवल कलात्मक ध्यानसे बाहर नहीं है पर मैं जानबूझ कर उनको यहाँ दृष्टिसे ही काम लिया जाता तो ग्रन्थका महत्व उल्लिखित नहीं कर रहा हूँ। सम्भव है यदि समय निःसंहेह बहुत बढ़ जाता, ऐसे मूल्यवान ग्रन्थोंमें और शक्तिने साथ दिया तो अगले निबन्धमें लिखू। विषयके सार्वभौमिक महत्वपर प्रकाश डालने वाली इस निबन्धमें सबसे बड़ी कमी जो चित्रोंकी रह गई भूमिका न हो, सबसे बड़ी कमी है । श्वेताम्बर इसे मैं दुःख पूर्वक स्वीकार करता हूँ। क्योंकि समस्त सम्प्रदायसे इन चित्रोंका सम्बन्ध है। मैं आशा करता प्रकृतियोंकी व्यवस्था न सका. एक कारण यह भी है कि हूँ कि भविष्यमें जो भी भाग प्रकट होंगे उनमें इसकी निबन्ध लेखन कार्य विहारमें ही हुआ है। यदि किसी पूर्तिपर समुचित ध्यान दिया जायगा, जब एक नवीन भी प्रकारकी स्खलनाएँ रह गई हो तो पाठक मुझे विषयको लेकर कोई भी व्यक्ति समाजमें उपस्थित हों अवश्य ही सूचित करें । जैन संस्कृति प्रेमी भाई और विषय स्फोटिनी भूमिका न हो तो जिनको शिल्प बहनोंको एवं गवेषकोंसे मेरा निवेदन है कि. वे ऊपर का सामान्य भी ज्ञान न हो तो वे उसे कैसे तो समझ सूचित कार्यमें अधिकसें अधिक सहायता प्रदान करें। सकते हैं और क्या ही उनके आन्तरिक मर्मको यदि किसी भी अंशमें निबन्ध उपयोगी प्रमाणित हृदयङ्गम कर कार्य आगे बढ़ा सकते है। "बाबू" भी हुअा हो तो मैं अपना अत्यन्त क्षुद्रप्रयास सफल इसी प्रकार है। जैन संस्थाएँ या मुनिवर्ग इसकी समदूंगा। उपेक्षा करते हैं । अबसे इसे ध्यानमें रखा जाय। गङ्गासदन, पटनासिटी - जैन पुरातत्त्वकी और भी जो शाखाएँ हैं वे मेरे ता० १३-५-१९४८ वैशाली-(एक समस्या) (लेखक-मुनि कान्तिसागर, पटना सिटी) . इसमें कोई संदेह नहीं कि आजके परिवर्तनशील लिये अपनी प्यारी जान तककी हँसते-हँसते बाजी युगमें अज्ञानता वश अपने ही पैरोंसे पूर्वजोंकी कीर्ति- लगादी, अपने चिरंतन आदर्शसे पतित न हुए अपितु लताकी जड़ कुचली जारही है। जहाँपर आध्यात्मिक अनेकोंको वास्तविक मार्गपर लाये उन पवित्र आत्माओं ज्योतिको प्रज्वलित करने मले प्रातः स्मरणीय महा- के संस्मरण जिस भूमिके साथ व्यवहारिक रूपसे जुड़े पुरुषोंने वर्षों तक सांसारिक वासनाओंका परित्याग हुए हों ऐसे स्थानको -कोई भी विचारशील, सुसंस्कृत करें भीषणतिभीषण अकथनीय कष्ट और यातनाओं व्यक्ति कैसे भूल सकता है ? उनसे आज भी हमें को सहनकर, किसी भी प्रकारके विघ्नोंकी लेशमात्र भी प्रेरणा और स्फूर्ति मिलती है । वहाँके रजःकरण चिन्ता न कर आत्मिक विकासके प्रशस्त मागेपर सांस्कृतिक इतिहासके अमर तत्त्वोसे। अग्रसर होनेके लिये एवं भविष्यके मानवके कल्याणार्थ जहाँपर पैर रखनेसे हमारे मस्तिष्कमें उच्चतर विचारों कठोरतम साधनाएँ की थीं, मानव संस्कृति और की बाढ़ आने लगती है, अतीत फिल्मके अनुसार सभ्यताके उच्चतम विकसित तत्त्वोंकी जहाँपर गम्भीर घूम जाता है, पूर्वकालीन स्वर्णिम स्मृतियाँ एकाएक गवेषणा हुई, मानव ही. क्यों, जहाँपर जीवमात्रको जागृत हो उठती हैं, हृदयमें तूफान-सा वायुमण्डल सुखपूर्वक जीवन-यापन करनेका नैतिक अधिकार थिरकता है, नसोंमें रक्तका दौड़ाव गति पार कर जाता मिला, “वसुधैवकुटुम्बकम्' जैसे आदर्श वाक्यको है, रोम-रोम पुलकित हो उठते हैं, मानव खड़ा-खड़ा जीवनमें चरितार्थ करनेकी योजना जहाँपर सुयोजित न जाने चित्रवत् क्या-क्या खींचता है, कहनेका तात्पर्य हुई, जिस भूमिने अनेकों ऐसे माईके लाल उत्पन्न किये यह कि कुछ क्षणोंके जीवनमें आमूल परिवर्तन हो जिन्होंने देश, समाज और सांस्कृतिक तत्त्वोंकी रक्षाके जाता है, हृदयमें उमँगोंकी तरंगें उठती रहती हैं और Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.org
SR No.527257
Book TitleAnekant 1948 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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