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अनेकान्त
[ वर्ष ६
तीसरे, प्राचीन संस्कृत विद्याके पारगामी पण्डित हूँ जो हे नाथ ! मैं आपके चरणोंका अन्तरङ्गसे अनुबनाकर जनताके समक्ष वास्तविक तत्त्वके स्वरूपको रागी हूँ, मेरी सामर्थ्य नहीं थी जो उत्कृष्ट श्रावकका रख देना आवश्यकीय है। यद्यपि समयके अनुकूल आचार पाल सकूँ; परन्तु.आपके शासनके मोहवश कुछ विद्वान् जैन समाजमें गणनीय हैं पर उनके बाद इस क्षुल्लक पदको अङ्गीकार किया है । इसी वर्ष तीव्र भी यह परिपाटी चली जावे, इसकी महती आवश्य- गरमी पड़ी, दो मास तृषा परीषहका अनुभव होगया कता है। एक भी ऐसा विद्यालय नहीं जहां १०० छात्र और दैगम्बर धर्ममें दृढ श्रद्धा होगई। मेरे मनमें यह भी संस्कृतका अध्ययन करते हों। जितने विद्वान् हैं वे आता है कि जो यथागम इसे पालन करूँ, और इस तो अपने बालकोंको अर्थकरी विद्या पढ़ानेमें लगा देते संसार यातनासे बचूँ । आपके आगमसे मेरी तो दृढहैं। जो बालक सामान्य स्थितिके हैं उनके यह धारणा तम श्रद्धा होगई है जो आत्मा ही आत्माका गुरु है। होगई है जो संस्कृत विद्या पढ़नेसे कुछ लौकिक वैभव जिस समय इन रागादि शत्रुओंपर विजय कर लूँगा तो मिलता नहीं । पारलौकिककी आशा की जावे, जब उस समय स्वयं ही आप जैसा बन जाऊँगा। कुछ धर्मार्जन हो, सो जहाँ नोन-तेले-लकड़ीकी चिन्ता हे वीर ! आपने यही तो मार्ग बताया, परन्तु से मुक्ति नहीं वहाँ धर्मार्जन कैसा! अतः वे बालक हे भगवन् ! हम लोगोंने उस मार्गको नहीं अपनाया। भी उदास होगये । रहे धनाढ्योंके बालक, सो उन आपकी मूर्ति पूजी, निर्वाण-भूमि पूजी, किन्तु आपके लोगोंके यह विचार हैं जो हमको, पण्डित थोड़े ही बताये मार्गपर न चले। आपने तो परिग्रह त्याग बनाना है जो दर-दर जावें । हमें तो धनकी कृपा है बताया, किन्तु हम लोग आपके नामपर लाखों रुपया तब अनायास बीसों पण्डित हमारे यहाँ आते ही एकत्रित कर मू के पात्र बने हैं । मान लो रुपया भी रहेंगे । अतः मामूली विद्या पढ़ाकर बालकोंको दूकान- एकत्रित करें, तो उसी वीरप्रभुके शासन प्रचारमें लगा 'दारीके धन्धेमें लगा देते हैं । आप ही बतावें, ऐसी दें। परन्तु उस ओर हमारा लक्ष्य नहीं। हे प्रभो ! अवस्थामें वीरशासनका प्रचार कैसे हो ? रहा त्यागी- अब बहुत कष्टमय काल है। एक बार फिर प्राचीन वर्ग, सोंप्रथम तो जैनियोंमें त्यागी ही नहीं, जो हैं उन कालकी लहर आजाय, जो हम लोग सुमार्ग पर आवें के पठन-पाठनकी कोई व्यवस्था नहीं । अथवा, और आपके शासनका प्रचार करें। अन्तमें, क्रान्तिके समाजने उनके लिये एक या दो आश्रम जो खोले. भी इस युगमें वीरशासनके प्रचारके लिये समाजके हैं किन्तु वहाँ यथेष्ट पठन-पाठनकी व्यवस्था नहीं। विद्वानों और श्रीमानोंमें सङ्गठित कार्य करनेकी शक्ति समाज रुपया भी देना चाहती है तब परिग्रह-पिशाच . जागृत हो, इसकी भावना करते हुए हम अपने भाषणकी ऐसी कृपा होती है जो त्यागी महाराज भी उसीके को समाप्त करते हैं। बढ़ानेमें अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं। क्या कहूँ मैं श्री वीरप्रभुको अन्तिम नमस्कार करके यह प्रार्थना करता
वीरशासनकी जय।
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