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________________ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने युक्त्यनुशासन विधिर्निषेधोऽनभिलाप्यता च त्रिरेकशस्त्रिद्विश एक एव । यो विकल्पास्तव सप्तधाऽमी स्याच्छब्दनेयाः सकलेऽर्थभेदे ||४५ || 'विधि, निषेध और अनभिलाप्यता – स्यादस्त्येव, स्यान्नास्त्येव, स्यादवक्तव्यमेव-ये एक-एक करके (पदके) तीन मूल विकल्प हैं। इनके विपक्षभूत धर्मकी संधि-संयोजनारूपसे द्विसंयोगज विकल्प तीनस्यादस्ति-नास्त्येव, स्यादस्त्यवक्तव्यमेव, स्यान्नास्त्यवक्तव्यमेव होते हैं और त्रिसंयोज विकल्प एकस्यादस्ति-नास्त्यवक्तव्यमेव - ही होता है । इस तरह से सात विकल्प हे वीर जिन ! सम्पूर्ण अर्थभेदमें - अशेष जीवादितत्त्वार्थ- पर्यायोंमें, न कि किसी एक पर्यायमें— आपके यहाँ (आपके शासन में) घटित होते हैं, दूसरों के यहाँ नहीं - क्योंकि “प्रतिपर्यायं सप्तभङ्गी" यह श्रापके शासनका वचन है, दूसरे सर्वथा एकान्तवादियों के शासनमें वह बनता ही नहीं। और ये सब विकल्प 'स्यात्' शब्द के द्वारा नेय हैं—नेतृत्वको प्राप्त हैं— अर्थात् एक विकल्प के साथ स्यात् शब्दका प्रयोग होनेसे शेष छहों विकल्प उसके द्वारा गृहीत होते हैं, उनके पुनः प्रयोगकी जरूरत नहीं रहती; क्योंकि स्यात्पदके साथमें रहनेसे उनके अर्थविषयमें विवादका अभाव होता है । जहाँ कहीं विवाद हो वहाँ उनके क्रमशः प्रयोगमें भी कोई दोष नहीं है; क्योंकि एक प्रतिपाद्य के भी सप्त प्रकारकी विप्रतिपत्तियोंका सद्भाव होता हैउतने ही संशय उत्पन्न होते हैं उतनी ही जिज्ञासाओंकी उत्पत्ति होती है और उतने ही प्रश्नवचनों (सवालों) की प्रवृत्ति होती है । और प्रश्नके वशसे एक वस्तुमें रूपसे विधि-निषेधकी जो कल्पना है उसीका Jain Education International नाम 'सप्तभङ्गी' है । अतः नाना प्रतिपाद्यजनोंकी तरह एक प्रतिपाद्यजनके लिये भी प्रतिपादन करने वालोंका सप्त विकल्पात्मक वचन विरुद्ध नहीं ठहरता है ।' स्यादित्यपि स्याद्गुण- मुख्य- कल्पैकान्तो यथोपाधि-विशेष-वीक्ष्यः । तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपं द्विधा भवार्थ-व्यवहारवत्त्वात् ||४६|| C ''स्यात्' (शब्द) भी गुण और मुख्य स्वभावोंके द्वारा कल्पित किये हुए एकान्तोंको लिये हुए होता हैनयोंके आदेश । अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकी प्रधानता से अस्तित्व - एकान्त मुख्य है । शेष नास्तित्वादि- एकान्त गौण हैं; क्योंकि प्रधानभावसे वे विवक्षित नहीं होते और न उनका निराकरण ही किया जाता है। इसके सिवाय, ऐसा अस्तित्व गधेके सींगकी तरह असम्भव है जो नास्तित्वादि धर्मोकी अपेक्षा नहीं रखता । 'स्यात्' शब्द प्रधान तथा गौणरूपसे ही उनका द्योतन करता है - जिस पद अथवा धर्मके साथ वह प्रयुक्त होता है उसे प्रधान और शेष पदान्तरों अथवा धर्मोको गौण बतलाता है, यह उसकी शक्ति है । व्यवहारनयके आदेश ( प्राधान्य) से नास्तित्वादिएकान्त मुख्य हैं और अस्तित्व - एकान्त गौण है; क्योंकि प्रधानरूपसे वह तब विवक्षित नहीं होता और न उसका निराकरण ही किया जाता है, अस्तित्वका सर्वथा निराकरण करनेपर नास्तित्वादि धर्म बनते भी नहीं; जैसे कछवेके रोम । नास्तित्वादि धर्मोके द्वारा अपेक्षमान जो वस्तुका अस्तित्व धर्म है वह 'स्यात् ' शब्दके द्वारा द्योतन किया जाता है। इस तरह 'स्यात् ' नामका निपातं प्रधान और गौणरूपसे जो कल्पना करता है वह शुद्ध (सापेक्ष ) नय के आदेशरूप सम्यक् For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527257
Book TitleAnekant 1948 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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