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________________ २५६ ... अनेकान्त [ वर्ष । पाप-पुण्यका फल माना भी जाय, पर ऐसा होता पाप-पुण्यका फल नहीं है। जिस प्रकार बाह्य सामग्री नहीं; अतः हानि-लाभको पाप-पुण्यका फल मानना अपने-अपने कारणोंसे प्राप्त होती है उसी प्रकार किसी भी हालतमें उचित नहीं है। सरोगता और नीरोगता भी अपने-अपने कारणोंसे - शङ्का-यदि बाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य- प्राप्त होती है। इसे पाप-पुण्यका फल मानना किसी पाप कर्मका फल नहीं है तो फिर एक गरीब और भी हालतमें उचित नहीं है। दूसरा श्रीमान् क्यों है ? ___ शङ्का-सरोगता और नीरोगताके क्या कारण हैं ? समाधान—एकका गरीब दूसरेका श्रीमान होना . समाधान-अस्वास्थ्यकर आहार, विहार व यह व्यवस्थाका फल है पुण्य-पापका नहीं । जिन देशों सङ्गति करना आदि सरोगताके कारण हैं और स्वामें पूँजीवादी व्यवस्था है और व्यक्तिको सम्पत्ति जोड़ने स्थ्यवर्धक आहार, विहार व सङ्गति करना आदि की पूरी छूट है वहाँ अपनी अपनी योग्यता व साधनों नीरोगताके कारण हैं। के अनुसार लोग उसका संचय करते हैं और इसी इस प्रकार कर्मकी कार्य-मर्यादाका विचार करने व्यवस्थाके अनुसार गरीब और अमीर इन वर्गोंकी पर यह स्पष्ट होजाता है कि कर्म बाह्य सम्पत्तिके संयोग सृष्टि हुआ करती है। गरीबी और अमीरी इनको वियोगका कारण नहीं है । उसको तो मर्यादा उतनी ही पाप-पुण्यका फल मानना किसी भी हालत में उचित है जिसका निर्देश हम पहले कर आये हैं। हाँ जीवके नहीं है। रूसने बहुत कुछ अंशोंमें इस व्यवस्थाको विविध भाव कर्मके निमित्तसे होते हैं। और वे कहींतोड़ दिया है इस लिये वहाँ इस प्रकारका भेद नहीं कहीं बाह्य सम्पत्तिके अर्जन आदिमें कारण पड़ते हैं, दिखाई देता है फिर भी वहाँ पुण्य और पाप तो हैं ही। इतनी बात अवश्य है। सचमुचमें पुण्य और पाप तो वह है जो इन बाह्य नैयायिक दर्शन व्यवस्थाओंसे परे है और वह है आध्यात्मिक । जैन । कर्मशास्त्र ऐसे ही पुण्य-पापका निर्देश करता है। ... यद्यपि स्थिति ऐसी है तो भी नैयायिक कार्यमात्र शङ्का-यदि बाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य के प्रति कर्मको कारण मानते हैं। वे कमको जीवनिष्ठ पापका फल नहीं है तो सिद्ध जीवोंको इसकी प्राप्ति मानते हैं। उनका मत है कि चेननगत जितनी विषमक्यों नहीं होती? ताएँ हैं उनका कारण कर्म तो है ही। साथ ही वह समाधान-बाह्य सामग्रीका सद्भाव जहाँ है वहीं जहावड़ी अचेतनगत सब प्रकारकी विषमताओंका और उनके उसकी प्राप्ति सम्भव है। यों तो इसकी प्राप्ति जड न्यूनाधिक संयोगोंका भी जनक है। उनके मतसे चेतन दोनोंको होती है। क्योंकि तिजोड़ी में भी धन जगतमें द्वथणुक आदि जितने भ कार्य होते हैं वे किसी रक्खा रहता है, इसलिये उसे भी धनकी प्राप्ति कही न किसीके उपभोगके योग्य होनेसे उनका कर्ता जासकती है। किन्तु जडके रागादि भाव नहीं होता कम ही है। और चेतनके होता है इसलिये वही उसमें ममकार ___नैयायिकोंने तीन प्रकारके कारण माने हैं-समऔर अहङ्कार भाव करता है। वायिकारण, असमवायिकारण और निमित्तकारण । ___ शङ्का-यदि बाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य- जिस द्रव्यमें कार्य पैदा होता है वह द्रव्य उस कार्यके पापका फल नहीं है तो न सही पर सरोगता और प्रति समवायिकारण है । संयोग असमवायि कारण नीरोगता यह तो पाप-पुण्यका फल मानना ही है। तथा अन्य सहकारी सामग्री निमित्त है। इनकी पड़ता है ? सहायताके बिना किसी भी कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। समाधान-सरोगता और नीरोगता यह पाप- ईश्वर और कर्म कार्यमात्रके प्रति साधारण कारण पुण्यके उदयका निमित्त भले ही होजाय पर स्वयं यह क्यों हैं, इसका खुलासा उन्होंने इस प्रकार किया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www ainelibrary.org
SR No.527257
Book TitleAnekant 1948 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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