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________________ कर्म और उसका कार्य (लेखक-५० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री) कर्मकी मर्यादा . पर ग्लानि होती है । धन-सम्पत्तिको देखकर लोभ कर्मका मोटा काम जीवको संसारमै रोक रखना है। होता है और लोभवश उसके अर्जन करने, छीन लेने ॥ परावर्तन संसारका दूसरा नाम है। द्रव्य, क्षेत्र, या चुरा लेनेकी भावना होती है। ठोकर लगनेपर काल, भव और भावके भेदसे वह पाँच प्रकारका है। दुःख होता है और मालाका संयोग होनेपर सुख । कर्मके कारण ही जीव इन पाँच प्रकारके परावर्तनोंमें इस लिये यह कहा जा सकता है कि केवल कर्म ही घूमता फिरता है। चौरासी लाख योनियाँ और उनमें आत्माकी विविध परिणतिके होनेमें निमित्त नहीं हैं रहते हुए जीवकी जो विविध अवस्थाएँ होती हैं उनका किन्तु अन्य सामग्री भी उसका निमित्त है अतः कर्ममुख्य कारण कर्म है। स्वामी समन्तभद्र आप्तमीमांसा का स्थान बाह्य सामग्रीको मिलना चाहिये। में कर्मके कार्यका निर्देश करते हुए लिखते हैं- परन्तु विचार करनेपर यह युक्त प्रतीत नहीं होता; ___'कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः' क्योंकि अन्तरङ्गमें वैसी योग्यताके अभावमें बाह्य 'जीवकी काम-क्रोध-प्रतिरूप विविध अवस्था अपने सामग्री कुछ मा नहा कर सकता है। जिस यागाक अपने कर्मके अनुरूप होती हैं।' " राग-भाव नष्ट होगया है उसके सामने प्रबल रागकी बात यह है कि मुक्त दशामें जीवकी प्रतिसमय, सामग्री उपस्थित होनेपर भी राग पैदा नहीं होता। जो स्वाभाविक परिणति होती है उसका अलग अलग इससे मालूम पड़ता है कि अन्तरङ्गमें योग्यताके बिना निमित्तंकारण नहीं है, नहीं तो उसमें एकरूपता नहीं बाह्य सामग्रीका कोई मूल्य नहीं है। यद्यपि कमके बन सकती। किन्तु संसारदशामें वह परिणति प्रति- विषयमें भी ऐसा ही कहा जा सकता है पर कर्म और समय जुदी जुदी होती रहती है इसलिये उसके जदे बाह्य सामग्री इनमें मौलिक अन्तर है। जुदे निमित्तकारण माने गये हैं। ये निमित्त संस्कार कर्म वैसी योग्यताका सूचक है पर बाह्य सामग्रीरूपमें आत्मासे सम्बद्ध होते रहते हैं और तदनुकूल का वैसी योग्यतासे कोई सम्बन्ध नहीं । कभी वैसी परिणतिके पैदा करने में सहायता प्रदान करते हैं। योग्यताके सद्भावमें भी बाह्य सामग्री नहीं मिलती जीवकी अशुद्धता और शुद्धता इन निमित्तोंके सद्भाव और कभी उसके अभावमें भी बाह्य सामग्रीका संयोग और असद्भावपर आधारित है। जब तक इन निमित्तों- देखा जाता है। किन्तु कर्मके विषय में ऐसी बात नहीं का एकक्षेत्रावगाहसंश्लेशरूप सम्बन्ध रहता है तब है। उसका सम्बन्ध तभी तक आत्मासे रहता है जबतक अशुद्धता बनी रहती है और इनका सम्बन्ध तक उसमें तदनुकूल योग्यता पाई जाती है। अतः छूटते ही जीव शुद्ध दशाको प्राप्त होजाता है। जैन कर्मका स्थान बाह्य सामग्री नहीं ले सकती। फिर भी दर्शनमें इन्हीं निमित्तोंको 'कर्म' शब्दसे पुकारा गया है। अन्तरङ्गमें योग्यताके रहते हुए बाह्य सामग्रीके मिलने• ऐसा भी होता है कि जिस समय जैसी बाह्य , पर न्यूनाधिक प्रमाणमें कार्य तो होता ही है इस लिये सामग्री मिलती है उस समय उसके अनुकूल अशुद्ध निमित्तोंकी परिगणनामें बाह्य सामग्रीकी भी गिनती आत्माकी परिणति होती है। सुन्दर सुस्वरूप स्त्रीके होजाती है। पर यह परम्परानिमित्त है इसलिये इसकी मिलनेपर राग होता है। जुगुप्साकी सामग्री मिलने- परिगणना नोकर्मके स्थानमें की गई है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527257
Book TitleAnekant 1948 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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