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________________ २५८ अनेकान्त जैन दर्शनका मन्तव्य किन्तु जैन दर्शनमें बतलाये गये कर्मवादसे इस मतका समर्थन नहीं होता । वहाँ कर्मवादकी प्राणप्रतिष्ठा मुख्यतया आध्यात्मिक आधारोंपर की गई है। [ वर्ष ह जाना, रोजगारमें नफा-नुकसानका होना, दूसरोंद्वारा अपमान या सम्मानका किया जाना, अकस्मात् मकान का गिर पड़ना, फसलका नष्ट हो जाना, ऋतुका अनुकूल प्रतिकूल होना, अकाल या सुकालका पड़ना, रास्ता चलते-चलते अपघातका होना, किसीके ऊपर बिजलीका गिरना, अनुकूल प्रतिकूल विविध प्रकारके संयोगों व वियोगों का होना आदि ऐसे कार्य हैं जिनका कारण कर्म नहीं है । भ्रमसे इन्हें कर्मोंका कार्य समझा जाता है । पुत्रकी प्राप्ति होनेपर भ्रमवश मनुष्य उसे अपने शुभ कर्मका कार्य समझता है और उसके मर जानेपर भ्रमवश उसे अपने अशुभ कर्मका कार्य समझता है । पर क्या पिताके शुभोदयसे पुत्रकी उत्पत्ति और पिताके अशुभोदयसे पुत्रकी मृत्यु सम्भव है ? कभी नहीं। सच तो यह है कि ये इष्ट संयोग या इष्ट वियोग आदि जितने भी कार्य हैं वे अच्छे बुरे कर्मों के कार्य नहीं । निमित्त और बात है और कार्य और बात । निमित्तको कार्य कहना 'उचित नहीं है । ईश्वरको तो जैनदर्शन मानता ही नहीं । वह निमित्तको स्वीकार करके भी कार्यके आध्यात्मिक विश्लेषणपर अधिक जोर देता है। नैयायिक-वैशेषिकों ने कार्यकारणभावकी जो रेखा खींची है वह उसे मान्य नहीं । उसका मत है कि पर्यायक्रमसे उत्पन्न होना, नष्ट होना और ध्रुव रहना यह प्रत्येक वस्तुका स्वभाव है । जितने प्रकार के पदार्थ हैं उन सबमें यह क्रम चालू है । किसी वस्तुमें भी इसका व्यतिक्रम नहीं देखा जाता । अनादिकालसे यह क्रम चालू है और अनन्तकाल तक चालू रहेगा । इसके मत से जिस कालमें वस्तुकी जैसी योग्यता होती है उसीके अनुसार कार्य होता है । जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव जिस कार्य के अनुकूल होता है वह उसका निमित्त कहा जाता है। कार्य अपने उपादानसे होता है किन्तु कार्यनिष्पत्ति के समय अन्य वस्तुकी अनुकूलता ही निमित्तताकी प्रयोजक है । निमित्त उपकारी कहा जा सकता है कर्ता नहीं । इसलिये ईश्वरको स्वीकार करके कार्यमात्रके प्रति उसको निमित्त मानना उचित नहीं है। इसीसे जैनदर्शनने जगतको अकृत्रिम और अनादि बतलाया है। उक्त कारणसे वह यावत् कार्यों में बुद्धिमान्की आवश्यकता स्वीकार नहीं करता । घटादि कार्योंमें यदि बुद्धिमान् निमित्त देखा भी जाता है तो इससे सर्वत्र बुद्धिमान‌को निमित्त मानना उचित नहीं है ऐसा इसका मत है। 1 यद्यपि जैनदर्शन कर्मको मानता है तो भी वह यावत् कार्योंके प्रति उसे निमित्त नहीं मानता। वह जीवकी विविध अवस्थाएँ, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, वचन और मन इन्हींके प्रति कर्मको निमित्त कारण मानता है । उसके मतसे अन्य कार्य अपने अपने कारणोंसे होते हैं कर्म उनका कारण नहीं है । उदाहरणार्थ- पुत्रका प्राप्त होना, उसका मर Jain Education International गोम्मटसार कर्मकाण्डमें एक नोकर्म प्रकरण आया है। उससे भी उक्त कथनकी ही पुष्टि होती है । वहाँ मूल और उत्तर कर्मों के नो कर्म बतलाते हुए इष्ट अन्न-पान आदिको साता वेदनीयका, अनिष्ट अन्नपान आदिको असातावेदनीयका, विदूषक या बहुरूपियाको हास्य कर्मका, सुपुत्रको रतिकर्मका, इष्टवियोग और श्रनिष्ट-संयोगको अरति कर्मका, पुत्रमरणको शोककर्मका, सिंह आदिको भयकर्मका और ग्लानिकर पदार्थोंको जुगुप्सा कर्मका नोकर्म द्रव्यकर्म बतलाया है । गोम्मटसार कर्मकाण्डका यह कथन तभी बनता है जब धन-सम्पत्ति और दरिद्रता आदिको शुभ और अशुभ कर्मोंके उदयमें निमित्त माना जाता है। कम अवान्तर भेद करके उनके जो नाम और जातियाँ गिनाई गई हैं उनको देखनेसे भी ज्ञात होता है कि बाह्य सामग्रियोंकी अनुकूलता और प्रतिकूलता में कर्म कारण नहीं है। बाह्य सामग्रियोंकी अनुकूलता और प्रतिकूलता या तो प्रयत्नपूर्वक होती है या सहज For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527257
Book TitleAnekant 1948 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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