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किरण ७ ] .
कर्म और उसका कार्य
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ही होती है। पहले साता वेदनीयका उदय होता है
इस बुराईको दूर करना है और तब जाकर इष्ट सामग्रीकी प्राप्ति होती है ऐसा नहीं है किन्तु इष्ट सामग्रीका निमित्त पाकर साता
यद्यपि जैन कर्मवादकी शिक्षाओं द्वारा जनताको
यह बतलाया गया कि जन्मसे न कोई छूत होता है वेदनीयका उदय होता है ऐसा है।
और न अछूत । यह भेद मनुष्यकृत है। एकके पास रेलगाड़ीसे सफर करनेपर या किसी मेलामें हमें अधिक पूँजीका होना और दूसरेके पास एक दमड़ी कितने ही प्रकारके आदमियोंका समागम होता है। का न होना, एकका मोटरोंमें घूमना और दूसरेका कोई हँसता हुआ मिलता है तो कोई रोता हुआ। भीख माँगते हुए डोलना यह भी कर्मका फल नहीं है, इनसे हमें सुख भी होता है और दुख भी। तो क्या क्योंकि यदि अधिक पूँजीको पुण्यका फल और पूँजी . ये हमारे शुभाशुभ कर्मोंके कारण रेलगाड़ीमें सफर के न होनेको पापका फल माना जाता है तो अल्पकरने या मेला ठेला देखने आये हैं ? कभी नहीं। संतोषी और साधु दोनों ही पापी ठहरेंगे। किन्तु इन . जैसे हम अपने कामसे सफर कर रहे हैं बसे वे भी शिक्षाओंका जनता और साहित्यपर स्थायी असर अपने अपने कामसे सफर कर रहे हैं। हमारे और नहीं हुआ। उनके संयोग-वियोगमें न हमारा कर्म कारण है और न
अन्य लेखकोंने तो नैयायिकोंके कवादका उनका ही कर्म कारण है। यह संयोग या वियोग या तो प्रयत्नपूर्वक होता है या काकतालीयन्यायसे
समर्थन किया ही, किन्तु उत्तरकालवी जैन लेखकोंने सहज होता है । इसमें किसीका कर्म कारण नहीं है।
- - जो कथासाहित्य लिखा है उससे भी प्रायः नैयायिक फिर भी यह अच्छे बुरे कर्मके उदयमें सहायक होता
कर्मवादका ही समर्थन होता है। वे जैन कर्मवादके रहता है।
आध्यात्मिक रहस्यको एक प्रकारसे भूलते ही गये
और. उनके ऊपर नैयायिक कमवादका गहरा रंग नैयायिक दर्शनकी आलोचना
चढ़ता गया । अन्य लेखकों द्वारा लिखे गये कथा
साहित्यको पढ़ जाइये और जैन लेखकों द्वारा लिखे ___ इस व्यवस्थाको भ्यानमें रख कर नैयायिकोंके · गये कथा-साहित्यको पढ़ जाइये । पुण्य-पापके वर्णन कर्मवादकी आलोचना करनेपर उसमें हमें अनेक दोष करनेमें दोनोंने कमाल किया है। दोनों ही एक दृष्टिदिखाई देते हैं। वास्तवमें देखा जाय तो आजकी कोणसे विचार करते हैं । अन्य लेखकोंके समान सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था और एकतन्त्रके जैन लेखक भी बाह्य आधारको लेकर चलते हैं। वे प्रति नैयायिकोंका कर्मवाद ओर ईश्वरवादही उत्तरदायी जैन मान्यताके अनुसार कर्मों के वर्गीकरण और उनके है। इसीने भारतवर्षको चालू व्यवस्थाका मुलाम बनाना अवान्तर भेदोंको सर्वथा भूलते गये। जैन दर्शनमें सिखाया। जातीयताका पहाड़- लाद दिया। परिग्रह- यद्यपि कर्मोके पुण्य - कर्म और पाप कर्म ऐसे भेद वादियोंको परिग्रहके अधिकाधिक संग्रह करनेमें मदद मिलते हैं पर इससे बाह्य सम्पत्तिका अभाव पाप दी। गरीबीको कर्मका दुर्विपाक बताकर सिर न कर्मका फल है और सम्पत्ति पुण्य कर्मका फल है यह उठाने दिया । छूत-अछूत और स्वामी-सेवक-भाव नहीं सिद्ध होता । गरीब होकर भी मनुष्य सुखी देखा पैदा किया । ईश्वर और कर्मके नामपर यह सब हमसे जाता है और सम्पत्तिवाला होकर भी वह दुखी देखा कराया गया। धर्मने भी इसमें मदद की। विचारा जाता है। पुण्य और पापकी व्याप्ति सुख और दुखसे कर्म तो बदनाम हुआ ही धर्मको भी बदनाम होना की जा सकती है, अमीरी गरीबीसे नहीं। इसीसे जैन पड़ा। यह रोग भारतवर्ष में ही न रहा । भारतवर्षके दर्शनमें सातावेदनीय और असाता वेदनीयका फल बाहर भी फैल गया।
सुख दुख बतलाया है, अमीरी गरीबी नहीं। किन्तु
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