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किरण ७
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जैन पुरातन अवशेष
पड़ेगा – १ प्राचीन प्रस्तर लेख, २ सम्पूर्ण प्रतिमा लेख जो प्रस्तरपर है', ३ मध्यकालीन प्रस्तर लेख, ४ धातु प्रतिमाओं के लेख ।
५ - भिन्न भिन्न विविध भावदर्शक' जो शिल्प मिलते हैं, उनको सचित्ररूपमें जनता के सम्मुख रखा जाय, यह कार्य कुछ कठिन अवश्य है पर है महत्व पूर्णं ।
६ -- जैनकलासे सम्बद्ध मन्दिर, प्रतिमाएँ, मानस्तम्भ, लेख, गुफाएँ आदि प्रस्तरोत्कीर्ण शिल्पोंकी ऐसी सूची तैयार की जानी चाहिये जिससे पता चल १ इस विभागपर यद्यपि कार्य होचुका है पर जो श्रवशिष्ट है उसे पूर्ण किया जाय ।
२ इस प्रकारके विविध भावोंके परिपूर्ण शिल्पोंकी समस्या तब ही सुलझाई जा सकती है जब प्राचीन साहित्यका तलस्पर्शी अध्ययन हो, एक दिन मैं रॉयल एशियाटिक सोसाइटीके रीडिंगरूममें अपने टेबलपर बैठा था इतनेमें मित्रवर्य श्रद्धेन्दुकुमार गांगुलीने — जो भारतीय कलाके महान् समीक्षक और 'रूपम्' के भूतपूर्व सम्पादक थे— मुझे एक नवीन शिल्पकृतिका फोटू दिया, उनके पास बड़ौदा पुरातत्त्व विभागकी ओरसे आया था कि वे इस पर प्रकाश डालें, मैंने उसे बड़े ध्यान से देखा, बात समझ में आई कि यह नेमिनाथजीकी बरात है पर यह तो तीन चार भागों में विभक्त था, प्रथम एक तृतियांशमें नेमिनाथ जी विवाह के लिये रथपर श्रारूढ़ होकर जारहे हैं, पथपर मानव समूह उमड़ा हुआ है, विशेषता तो यह थी सभीके मुखपर हर्षोल्लास के भाव झलक रहे थे, रथके पास पशु रुध था, आश्चर्यान्वितभावोंका व्यक्तिकरण पशुमुखोंपर बहुत अच्छे ढंग से व्यक्त किया गया था, ऊपरके भागमें रथ पर्वतकी र प्रस्थित बताया है। इस प्रकारके भावों की शिल्पों की स्थिति अन्यत्र भी मैंने देखी है पर इसमें तो और भी भाव थे जो अन्यत्र शायद आज तक उपलब्ध नहीं हुए । यही इसकी विशेषता है । ऊपरके भाग में भगवानका लोच बताया है, देराना भी है और निर्वाण महोत्सव भी है, दक्षिण कोनेपर राजिमतीकी दीक्षा और गुफा में कपड़े सुखानेका दृश्य सुन्दर है इतने भावका व्यक्तिकरण जैन कलाकी दृष्टिसे बहुत महत्व
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जाय कि कहाँपर क्या है ? इसमें अजायबघरोंकी सामग्री भी आजानी चाहिये' ।
जबतक उपर्युक्त कार्य नहीं होजाते हैं तबतक जैन पुरातत्त्वका विस्तृत या संक्षिप्त इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता। कई बार मैंने अपने परम श्रद्धेय और पुरातत्त्व विषयक मेरी प्रवृत्तिके प्रोत्साहक पुरातत्त्वाचार्य श्रीमान् जिनविजयजी आदि कई मित्रोंसे कहा कि आप पुरातत्त्वपर जैन दृष्टिसे क्यों न कुछ लिखें, सर्व स्थानोंसे एक उत्तर मिलता है “साधना कहाँ है ?" बात यथार्थ है । सामग्री है पर उपयुक्त प्रयोक्ताके अभावमें यों ही दिनं प्रतिदिन नष्ट हो रही है । मेरा विश्वास है कि हमारी इस पीढ़ीका काम है साधनोंको एकत्रित करना, विस्तृत अध्ययन, मनन और लेखन तो अगली परम्पराके विद्वान करेंगे । साधनोंको टटोलने में भी बहुत समय लग जायगा । जैन मन्दिरों, गुफाओं और प्रतिमाओं आदिके प्राचीन चित्र कुछ तो प्रकाशित हुए हैं फिर भी अप्रकट भी कम नहीं; जो प्रकट हुए हैं वे केवल प्राचीनताको प्रमाणित करनेके लिये ही, उनपर कला के विभिन्न अङ्गपर समीक्षात्मक प्रकाश डालनेका प्रयास नहीं किया गया है। रायल एशियाटिक सोसाइटी लन्दन और बङ्गाल, 'आर्किलोजिकल सर्वे आफ इण्डिया' के रिपोर्ट 'रूपम् ' 'इण्डियन आर्ट एण्ड इण्डस्ट्री', 'सोसाइटी ऑफ दी इण्डियन ओरिएन्टल आर्ट बम्बई यूनिवर्सिटी', 'जनरल ऑफ दी अमेरिकन सोसाइटी ऑफ दी आर्ट', 'भांडारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्सिटिट्यूट' 'इण्डियन कलचर' आदि जनरल्स एवं भारतीय अभारतीय आश्चर्य गृहोंकी सूचियोंमें जैन पुरातत्त्व और कलाके मुखको उज्वल करने वाली सामग्री पर्याप्तमात्रामें भरी पड़ी है (जैन पुरातत्त्व विस्तृत ग्रंथ सूची और अवशेषोंकी एक सूची मैंने
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रखता है । मेरे इसका उदाहरण देनेका एक ही प्रयोजन है कि ऐसे साधन जहाँ कहीं प्राप्त हों तुरन्त फोटू तो उतरवा ही लेना चाहिये ।
१ इन छहों विभागोंपर किस पद्धतिसे काम करना होगा इसकी विस्तृत रूपरेखा मैं अलग निबन्धमें व्यक्त करूंगा।
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