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अनेकान्त
पापका बाप लोभ
लोभ वेग मनुष्य किन-किन नीच कृत्योंको नहीं करते ? और कौन-कौनसे दुःखोंकों भोगकर दुर्गतिके पात्र नहीं होते यह उन एक दो ऐतिहासिक व्यक्तियोंके जीवनसे स्पष्ट होजाता है। जिनका नाम इतिहासके काले पृष्ठों में लिखा रह जाता है ।
गजनीके शासक, लालची लुटेरे महमूद गजनवीने १००० और २०२६ के बीच २६ वर्ष में भारतवर्षपर १७ वार आक्रमण किया, धन और धर्म लूटा ! मन्दिर और मूर्तियोंका ध्वंसकर श्रमणित रत्नराशि और अपरमित स्वर्ण चाँदी लूटी !! परन्तु जब इतने पर भी लोभका संघरण नहीं हुआ तब सोमनाथ मन्दिरके काठके किवाड़ और पत्थरके खम्भे भी न छोड़े, ऊँटोंपर लादकर गजनी ले गया !!!
दूसरा लोभी था (ईशवी सन्के ३२७ वर्ष पूर्व) ग्रीसका बादशाह सिकन्दर; जिसने अनेक देशोंको परास्तकर उनकी अतुल सम्पत्ति लूटी, फिर भी सारे संसारको विजित करके संसार भरकी सम्पत्ति हथयाने की लालसा बनी रही !
लोभ के कारण दोनोंका अन्त समय दयनीय दशामें व्यतीत हुआ। लालच और लोभमें हाय ! हाय !! करते मरे, पर इतने समर्थ शासक होते हुए भी एक फूटी कौड़ी भी साथ न ले जा सके ।
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[ वर्ष
अतः उसे संसारवर्धक दुष्ट विकल्पोंसे बचाये रहना, सम्यग्दर्शनादि दान द्वारा सन्मार्गमें लानेका उद्योग करते रहना चाहिये। दूसरे दयाका क्षेत्र २ अपना निज घर है फिर ३ जाति ४ देश तथा ५ जगत है अन्तमें जाकर यही - "वसुधैव कुटुम्बकम्" होजाता है ।
दयाका क्षेत्र
१ - प्रथम तो दयाका क्षेत्र अपनी आत्मा है, दान देकर सुयशके भागी बनेंगे ।
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अनुरोध
इस पद्धति अनुकूल जो मनुष्य स्वपरहितके निमित्त दान देते हैं वही मनुष्य साक्षात् या परम्परा में अतीन्द्रिय अनुपम सुखके भोक्ता होते हैं । अतएव आत्म- हितैषी महाशयोंका कर्तव्य है कि समयानुकूल इस दानपद्धतिका प्रसार करें । भारतवर्ष में दानकी पद्धति बहुत है किन्तु विवेककी विकलताके कोरण दानके उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो पाती।
• ऊसर जमीनमें, पानीसे भरे लबालब तालाब में, सार और सुगन्धि हीन सेमर वृक्षोंके जङ्गल में, दावानलमें व्यर्थ ही धधकने वाले बहुमूल्य चन्दनमें यदि मेघ समानरूपसे वर्षा करता है तो भले ही उसकी उदारता प्रशंसनीय कही जा सकती है परन्तु गुणरत्न पारखी वह नहीं कहला सकता। इसी तरह पात्र अपात्रकी, आवश्यकताकी पहिचान न कर दान देने वाला उदार कहा जा सकता हैं परन्तु गुणविज्ञ वह नहीं कहला सकता । आशा है हमारा धनिक वर्ग उक्त बातों पर ध्यान देते हुए पद्धतिके अनुकूल ही
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