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किरण ७ ]
दरिद्रोंकी वृद्धि और आलसी मनुष्योंकी संख्या बढ़ती है और तीसरे अर्थ परम्पराका बीजारोपण होता है, परन्तु यदि ऐसे मनुष्य बुभुक्षित या रोगी हों तो उन्हें ( दान दृष्टिसे नहीं अपितु ) कृपादृष्टिसे अन्न या औषधि दान देना वर्जित नहीं है। क्योंकि अनुकम्पा दान देना प्राणीमात्रके लिये है । दान देने हेतु
दान देने में प्राणियों के भिन्न-भिन्न हेतु होते हैं । स्थूल दृष्टिसे परके दुःखको दूर करनेकी इच्छा सर्वं साधारणकी कही जासकती है. परन्तु पृथक्-पृथक् . दातारों के भिन्न-भिन्न पात्रोंमें दान देनेके हेतुओं पर यदि आप सूक्ष्मतम दृष्टिसे विचार करेंगे तब विभिन्न अनेक कारण दिखाई पड़ेंगे। उन हेतुओं में जो सर्वोत्तम हेतु हो वही हमको ग्रहण करना चाहिये । १- कितने ही मनुष्य परका दुःख देख उन्हें अपनेसे जघन्य स्थिति में जानकर “दुखियोंकी सहायता करना हमारा कर्तव्य है" ऐसा विचारकर दान करते हैं । २- कितने ही मनुष्य दूसरोंके दुःख दूर करनेके लिये, परलोक में सुख प्राप्ति और इस लोकमें प्रतिष्ठा (मान) के लिये दान करते हैं । ३-और कुछ लोग अपने नामके लिये कीर्ति पानेका लालच और जगतमें वाहवाहीके लिये अपने द्रव्यको परोपकारमें दान करते हैं । दातारके भेद
मुख्यतया दातारके तीन भेद होते हैं .१ - उत्तम दातार २ - मध्यम दातार और ३-जघन्य दातार । उत्तम दातार
दान- विचार
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जो मनुष्य निःस्वार्थ दान देते हैं, पराये दुःखको दूर करना ही जिनका कर्तव्य है, वही उत्तम दातार हैं परोपकार करते हुए भी जिनके अहम्बुद्धिका लेश नहीं वही सम्यकदानी हैं और वही संसार सागरसे पार होते हैं; क्योंकि निष्काम (निस्वार्थ ) किया गया कार्य बन्धका कारण नहीं होता । जो मनुष्य इच्छापूर्वक कार्य करेगा उसे कार्य सिद्धान्त के अनुसार तज्जन्य बन्धका फल अवश्य भोगना पड़ेगा । और जो निष्काम वृत्तिसे कार्य करेगा उसके इच्छाके बिना कायादिकृत
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व्यापार बन्धके उत्पादक नहीं होते । अथवा यों कहना चाहिये कि जो सर्वोत्तम मनुष्य हैं वे बिना स्वार्थ ही दूसरेका उपकार किया करते हैं । और उन्हीं विशुद्ध परिणामोंके बल से सर्वोत्तम पदके भोक्ता होते हैं । जैसे प्रखर सूर्यकी किरणोंसे सन्तप्त जगतको शीतांशु (चन्द्रमा) अपनी किरणों द्वारा निरपेक्ष शीतल कर देता है, उसी प्रकार महान पुरुषोंका स्वभाव है कि वे. संसार-तापसे सन्तापित प्राणियोंके तापको हरण कर लेते हैं।
मध्यम दातार
जो पराये दुःखको अपने स्वार्थ के लिये दान करते हैं वह मध्यम दातार हैं। क्योंकि जहाँ इनके स्वार्थमें बाधा पहुँचती है वहाँपर यह परोपकारके कार्यको त्याग देते हैं । अतः इनके भी वास्तविक दयाका विकास नहीं होता परन्तु धनकी ममता अत्यन्त प्रबल है, धनको त्यागना सरल नहीं है, अतः इनके द्वारा यदि अपनी कीर्तिके लिये ही धनका व्यय किया जावे किन्तु जब उससे दूसरे प्राणियोंका दुःख दूर होता है कोई संकोच न करेगा। क्योंकि वह दान ऐसे दान तब परकी अपेक्षा से इनके दानको मध्यम कहने में करने वालेके आत्म-विकास में प्रयोजक नहीं हैं ।
जघन्य दातार
जो मनुष्य केवल प्रतिष्ठा और कीर्तिके लालच दान करते हैं वे जघन्य दातार हैं । दानका फल लोभ निरशनपूर्वक शान्ति प्राप्त होना है, वह इन दातारोंको नहीं मिलता। क्योंकि दान देने से शान्तिके प्रतिबन्धक आभ्यन्तर लोभादि कषायका अभाव होता है अतएव आत्मा में शान्ति मिलती है । जो कीर्तिप्रसारकी इच्छासे देते हैं उनके आत्म-सुख गुणके घातक कर्मकी हीनता तो दूर रही प्रत्युत बन्ध ही होता है । अतएव ऐसे दान देने वाले जो मानवगण हैं उनका चरित्र उत्तम नहीं। परन्तु जो मनुष्य लोभके वशीभूत होकर १ पाई भी व्यय करने में संकोच करते हैं उनसे यह उत्कृष्ट है ।
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