Book Title: Anekant 1948 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ किरण ७ 1 दान विचार वाले मनुष्यों को शास्त्रमें परोपकारी, धर्मात्मा आदि दानोंके द्वारा प्राणी कुछ कालके लिये दुःखसे विमुक्तशब्दोंसे सम्बोधित कर सम्मानित किया है । साहोजाता है परन्तु यह दान ऐसा अनुपम और धर्मदान महत्वशाली है कि एक बार भी यदि इसका सम्पर्क होजावे तो प्राणी जन्म-मरण के क्लेशों से विमुक्त होकर निर्वाणके नित्य आनन्द सुखोंका पात्र होजाता है । अतएव सभी दानोंकी अपेक्षा इस दानकी परमावश्यकता । धर्मदान ही एक ऐसा दान है जो प्राणियोंको संसार दुःखसे सदाके लिये मुक्तकर सच्चे सुखका अनुभव कराता है । इस अभय दानसे भी उत्तम धर्मदान है । इस परमोत्कृष्ट दानके प्रमुख दानी तीर्थङ्कर महाराज तथा गणधरादि देव हैं । इसीलिये आपके विशेषणोंमें "मोक्षमार्गस्य नेत्तारम्” (मोक्षमार्गके नेता ) यह प्रथम विशेषण दिया गया है। बड़े-बड़े राजा, महाराजा, यहाँ तक कि चक्रवर्तियोंने भी बड़े-बड़े दान दिये किंतु संसारमें उनका आज कुछ भी अवशिष्ट नहीं है । तथा तीर्थकर महाराजने जो उपदेश द्वारा दान दिया था उसके द्वारा बहुतसे जीव तो उसी भवसे मुक्तिलाभ कर चुके और अब तक भी अनेक प्राणी उनके बताये सन्मार्गपर चलकर लाभ उठा रहे हैं । भव-बन्धन परम्पराके पाशसे मुक्त होंगे, तथा आगामीकालमें भी उस सुपथपर चलनेवाले उस अनुपम सुखका लाभ उठावेंगे। कितने प्राणी उस पवित्र धर्मोपदेशसे लाभ उठावेंगे यह कोई अल्पज्ञानी नहीं कर सकता । अपनी आत्मताडनाकी परवाह न करके दूसरोंके लिये मीठे स्वर सुनाने वाले मृदङ्गकी तरह जो अपने अनेक कष्टों की परवाह न कर विश्वहित के लिये निरपेक्ष निस्वार्थ उपदेश देते हैं वे महात्मा भी इसी धर्मदानके कारण जगत पूज्य या विश्ववन्द्य हुए हैं। धर्मदान के वर्तमान दातार वर्तमानमें गणधर, आचार्यं आदि परम्परासे यह दान देनेकी योग्यता संसार से भयभीत, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह विहीन, ज्ञान-ध्यान-तपमें आसक्त, वीतराग, दिगम्बर मुनिराजके ही हैं। क्योंकि जब हम स्वयं विषय कषायोंसे दग्ध हैं तब क्या इस दानको करेंगे । जो वस्तु अपने पास होती है. वही दान दी जासकती है। हम लोगोंने तो उस धर्मको जो कि आत्माकी निज परणति है; कषायाग्निसे दग्ध कर रक्खा है । यदि वह वस्तु आज हमारे पास होती तब हम लोग दुःखों के पात्र न होते। उसके बिना ही आज संसारमें हमारी अवस्था कष्टप्रद होरही है । उस धर्मके धारक परम दिगम्बर निरपेक्ष परोपकारी, विश्वहितैषी वीतराग नको कर सकते हैं । इसीसे गृहस्थानके अन्तर्गत नहीं किया । धर्मदानकी महत्ता यह दान सभी दानोंमें श्रेष्ठतम है, क्योंकि इतर Jain Education International २७१ जब तक प्राणीको धार्मिक शिक्षा नहीं मिलती तब तक उसके उच्चतम विचार नहीं होते, और उन विचारों के अभावमें वह प्राणी उस शुभाचरणसे दूर रहता है जिसके बिना वह लौकिक सुखसे भी वचित रहकर धोबी के कुत्तेकी तरह "घरका न घाटका " कहींका भी सुखी रह सकते हैं जो या तो नितान्त मूर्ख हों, या नहीं रहता। क्योंकि यह सिद्धान्त है कि "वही जीव करने वाले हैं वही संसारमें पूज्य और धर्म संस्थापक पारङ्गत दिग्गज विद्वान हों ।" अतः जो इस दानके कहे जाते हैं । इसी तरह धर्मदानकी महत्ता जानकर हमें उस दानको प्राप्त करनेका पात्र होना चाहिये । सिंहनीका दूध स्वर्णके पात्रमें रह सकता है, धर्मदान सम्यग्ज्ञानी पात्रमें रह सकता है। लौकिक दान उक्त दानोंके अतिरिक्त लौकिक दान भी महत्वपूर्ण दान है जगतमें जितने प्रकारके दुःख हैं उतने ही भेद लौकिक दानके हो सकते हैं परन्तु मुख्यतया जिनकी आज आवश्यकता है बे इस प्रकार हैं *यश्च मूढतमो लोके, यश्च बुद्ध: परांगतः । तावुभौ सुख मेधेते, क्लिश्यन्तीतरे जनाः ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46