Book Title: Anekant 1948 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 22
________________ २६४ अनेकान्त [ वर्ष प्रारम्भ करदी है) कुछ अवशेष भी अभी कारखानेमें होजानेके बाद स्थान निश्चित होजायें तब) अपने प्रांत बन्द हैं। इन सभीकी सहायतासे काम प्रारम्भ कर जिले और तहसीलमें पाये जाने वाले जैन अवशेषों देनी चाहिये । परन्तु एक बातको ध्यानमें रखना की सूचना; यदि संभव होसके तो वर्णनात्मक परिचय आवश्यक है कि.जहाँ तक होसके अपनी मौलिक खोज और चित्र भी, भेजकर सहायता प्रदान करें। क्योंकि को ही महत्व देना चाहिए, अपनी दृष्टिसे जितना बिना इस प्रकारके सहयोगके काम सुचारु रूपसे अच्छा हम अपने शिल्पोंको देख सकेंगे उतना दूसरी चल न सकेगा, यदि प्रान्तीय संस्थाएँ प्रान्तवार इस दृष्टिसे संभव नहीं। कामको प्रारम्भ करदें तो अधिक अच्छा होगा, कमसे __इन कामोंको कैसे किया जाय यह एक समस्या है कम उनकी सूची तो अवश्य ही 'अनेकान्त' कार्यालय मुझे तो दो रास्ते अभी सूझ रहे हैं: में भेजें, वैसे निबन्ध भी भेजें, उनको सादर सप्रेम १ पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी, बाबू छोटे . आमन्त्रण है। लालजी जैन डा. हीरालाल जैन, डा० ए० एन० अब रही आर्थिक बात, जैनोंके लिये यह प्रश्न तो उपाध्ये, मुनि पुण्यविजयजी, विजयेन्द्रसूरि, बाबू मेरी विनम्र सम्मतिके अनुसार उठना ही नहीं चाहिये जुगलकिशोर मुख्तार, पं० नाथूरामजी प्रेमी, डा. क्योंकि देव द्रव्यकी सर्वाधिक सम्पत्ति जैनोंके पासमें बूलचन्द, डा० बनारसीदासजी जैन, श्री कामताप्रसाद है, इससे मेरा तो निश्चित मत है कि समस्त भारतीय जी जैन, डा० हँसमुख सांकलिया, मि० उपाध्याय, श्री सम्प्रदायोंकी अपेक्षा जैनी चाहें तो अपने स्मारकोंको उमाकान्त प्रे० शाह, डा. जितेन्द्र बैनरजी, प्रो. अच्छी तरह रख सकते हैं । इससे बढ़कर और क्या अशोक भट्टाचार्य, श्रीयुत अर्द्वन्दुकुमार गांगुली, डा० सदुपयोग उस सम्पत्तिका समयको देखते हुए हो सकता कालीदास नाग, अंजुली मजूमदार, डा. स्टेला, है । अपरिग्रह पूर्ण जीवन यापन करने वाले वीतराग श्रीरणछोड़लाल ज्ञानी, डा० मोतीचन्द, डा० अग्रवाल, परमात्माके नामपर अटूट सम्पत्ति एकत्र करना उनके डा० पी० के. आचार्य, डा. विद्याधर भट्टाचार्य, सिद्धान्तकी एक प्रकारसे नैतिक हत्या करना है। यदि अगरचन्द नाहटा, साराभाई नबाब आदि जैन एवं इस सम्पत्तिके रक्षक (?) इस कार्यके लिये कुछ रकम जैन पुरातत्त्वके विद्वान एवं अनुशीलक व्यक्तियोंका देदें तो उत्तम बात, न दें तो भी सारा भारतवर्ष पड़ा एक "जैन पुरातत्त्व संरक्षक संघ' स्थापित करना हुआ है माँगके काम करना है, तब चिन्ता ही किस चाहिये । इनमेंसे जो जिस विषयके योग्य विद्वान हों बातकी है। मेरी सम्यत्यनुसार यदि "भारतीय ज्ञानउनको वह कार्य सौंपा जाय । ऊपर मैंने जो नाम दिये पीठ" काशी इस कार्यको अपने नेतृत्वमें करावें तो हैं उनमेंसे ११ व्यक्तियोंको मैंने अपनी यह योजना क्या कहना, क्योंकि उन्हें श्रीमान पं० महेन्द्रकुमार मौखिक कह सुनाई थी, जो सहर्ष योगदान देनेको न्यायाचार्य, बा० लक्ष्मीचन्दजी एम० ए० और श्रीतैयार हैं। हाँ कुछेक पारिश्रमिक चाहेंगे। इसकी कार्य अयोध्याप्रसादजी गोयलीय जैसे उत्कृष्ट संस्कृति प्रेमी पद्धतिपर विद्वान जैसे सुझाव दें वैसे ढङ्गसे विचार और परिश्रम करने वाले बुद्धि जीवी विद्वान प्राप्त हैं । किया जासकता है । उनको सादर आमन्त्रण है। मान पूर्व में ग्राहक बनाना प्रारम्भ करदें तो भी कमी नहीं लीजिये संघ स्थापित होगया । परन्तु इसकी संकलना रह सकती। ये बातें केवल यों ही लिख रहा हूँ सो तभी संभव हैं जब प्रत्येक प्रान्त और जिलेके व्यक्तियों बात नहीं है आज यदि कार्य प्रारम्भ होता है तो ५०० का हार्दिक और शारीरिक सहयोग प्राप्त हो; क्योंकि प्राहक आसानीसे तैयार किये जासकते हैं ऐसा मेरा जिन-जिन प्रान्तोंमें जैन संस्थाएँ हैं उनके पुरातत्त्व दृढ़ अभिमत है। प्रेमी कार्यकर्ताओं और प्रत्येक जिलेके शिक्षित जैनों २ दूसरा उपाय यह है कि जितने भी-भारतमें का परम कर्तव्य होना चाहिए कि वे (यदि स्थापित जैन विद्यालय या कॉलेज हैं उनमें अनिवार्यरूपसे जैन Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.org

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