Book Title: Anekant 1948 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 23
________________ किरण ७ ] कलावशेषोंका ज्ञान प्राप्त करनेकी व्यवस्था होनी चाहिए, कमसे कम सप्ताहमें एक क्लास तो होना हो चाहिए | इससे विद्यार्थियोंके हृदयमें कला भावनाके अँकुर फूटने लगेंगे, होसकता है उनमेंसे कर्मठ कार्यकर्ता भी तैयार होजायें । ग्रीष्मावकाशमें जो शिक्षण शिविर” होता है उसमें भी ३-४ भाषण इस विषयपर आयोजित हों तो क्या हर्ज है गत वर्ष कलकत्तासे मैंने विद्वत् परिषदके मन्त्रीजीका ध्यान शिल्पकला पर भाषण दिलानेकी ओर आकृष्ट किया था पर ३-३ पत्र देनेके बावजूद भी उनकी ओरसे कोई उत्तर आज तक मैं प्राप्त न कर सका । संस्कृत के विद्वानोंको इतनी इन जैन पुरातन अवशेष उपेक्षा न करनी चाहिए। जिस युग में हम जाते हैं और आगामी नवनिर्माणमें यदि हमें अपना सांस्कृतिक योगदान करना है तो पाषाणोंसे ही मस्तिष्कको टकराना होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस विषयका साहित्य सामूहिक रूपसे एक स्थानसे प्रकाशित नहीं हुआ, अतः वक्ताको परिश्रम तो करना होगा, उन्हें पर्याप्त अध्ययन के बाद वर्णित कृतियोंके साथ चक्षुसंयोग भी करना आवश्यक होगा । अस्तु, आगे ध्यान दिया जायगा तो अच्छा है । मैं विश्वास के साथ कहता हूँ कि वे यदि इस विषयपर ध्यान देंगे तो वक्ता की कमी नहीं रहेगी, वर्तमानमें मैं देखता हूँ कि लोग शीघ्र कह डालते हैं कि क्या करें, कोई विद्वान नहीं मिलता है इसका कारण यही प्रतीत होता है कि सभी विषयके विद्वानों का सम्पर्क न होना । जैन शिल्पकला के विशाल ज्ञान प्राप्त करनेका यह भी मार्ग है कि या तो स्वतन्त्ररूपसे इसके गम्भीर - साहित्यादिका अध्ययन किया जाय, बादमें अवशेषों का विशिष्टदृष्टिसे खासकर तुलनात्मकदृष्टिसे समुचित निरीक्षण किया जाय अथवा एतद्विषयक विशिष्ट विद्वानोंके पास रहकर कुछ प्राप्त किया जाय, दूसरा तरीका सर्वश्रेष्ठ है बिना ऐसा किये हमारा अध्ययनसूत्र विस्तृत और व्यापक मनोभावों तक पहुँचेगा नहीं । अस्तु । जैन समाज के पास कोई भी ऐसा व्यापक अजायबघर भी नहीं जिसमें सांस्कृतिक सभी समस्याओं Jain Education International २६५ को प्रकाशित करने वाले मौलिक साधन सुरक्षित रखे जायें, अलग-अलग कुछ गृहस्थोंके पास सामग्रियाँ हैं पर उनका देखना सभीके लिये सम्भव नहीं जब तक उनकी वैयक्तिक कृपा न हो । मैं जैनतीर्थों और प्राचीन मन्दिरोंके जीर्णोद्धार करानेवाले धनवानोंको कहूँगा कि जहाँ कहींका भी जीर्णोद्धार करावें भूलकर भी प्राचीन वस्तुको समूल नष्ट न करें, न जाने क्या बुरी हवा हमारे समाजपर अधिकार जमाए हुए हैं कि लोग पुरानी कलापूर्ण सामग्रीको हटाकर तुरन्त मकरानेके पत्थर से रिक्त स्थानकी पूर्ती कर देते हैं और वे अपनेको धन्य भी मानते हैं । यही बड़ी भारी भूल है । न केवल जैन समाजको ही, अपितु सभी भारतीयोंकों संगमरमर पाषाणका बड़ा मोह लगा हुआ है जो सूक्ष्म कलाकौशलको पनपने नहीं देता । प्राचीन मन्दिर और कलापूर्ण जैनाद प्रतिमा एवं अन्य शिल्पोंके दर्शनका जिन्हें थोड़ा भी सौभाग्य प्राप्त है वे दृढ़ता पूर्वक कह सकते हैं कि पुरातन प्रबल कल्पनाधारी कलाकार और श्रीमन्तगण अपने ही प्रान्तमें प्राप्त होने वाले पाषाणोंपर ही विविध भावोत्पादक शिल्पका प्रवाह बड़ी ही योग्यता पूर्वक प्रवाहित करते - करवाते थे, वे इतनी शक्ति रखते थे कि कैसे भी पाषाणको वे अपने अनुकूल बना लेते थे, उनपर कीगई पालिश आज भी स्पर्द्धाकी वस्तु है । अल्प परिश्रमसे आज लोग सुन्दर शिल्पकी जो आशा करतें हैं वह दुराशा मात्र है । मेरी रुचि थी कि मैं जैन शिल्पकला के जो जो फुटकर चित्र जहाँ कहीं भी प्रकाशित हुए हैं उनकी विस्तृत सूची एवं जिन महानुभावोंने उपर्युक्त विषयपर आजतक महान् परिश्रम कर जो महद् प्रकाश प्रकाशित स्थान या पत्रादिका, उल्लेख कर दूं. परन्तु यों भी नोटका निबन्ध तो बन ही गया है अतः अब कलेवर बढ़ाना उचित न जानकर केवल अति संक्षिप्त रूपसे इतना ही कहूंगा कि 'भारतीय जैन तीर्थ और उनका शिल्प स्थापत्य' नामक एक ग्रन्थ जैन शिल्प विद्वान् श्री साराभाई नवाबने श्रम For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.

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