Book Title: Anekant 1948 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 20
________________ २६२ अनेकान्त मनोभावोंसे काम न लिया जाय । सत्यको प्रकट कर. देने में ही जैनधर्मकी ठोस सेवा है । २ प्रतिमा लेखोंकी चर्चा यों तो प्रसङ्गानुसार उपर्युक्त पंक्तियों में हो चुकी है कि दशम शतीके बाद इसका विकास हुआ। ज्यों-ज्यों प्रतिमाएँ बड़ी-बड़ी बनती गईं त्यों-त्यों उनके निर्माण-विधान में भी कलाकारोंने परिवर्तन करना प्रारम्भ कर दिया । १२वीं शती से लगातार आज तक जो-जो मूर्तियें बनीं उनकी बैठकके पश्चात् और अग्रभागमें स्थान काफी छूट जाता था वहीं पर लेख खुदवाए जाते थे। स्पष्ट कहा जाय तो इसीलिये स्थान छोड़ा जाता था। जब कि पूर्व में इस स्थानपर धर्मचक्र या विशेष चिह्न या नवग्रह आदि बनाये जाते देखे गये हैं । लेखोंमें प्रतिस्पर्द्धा भी थी, धातुप्रतिमाओं पर भी संवत्, प्रतिष्ठापक आचार्य, निर्मापक, स्थान आदि सूचक लेख रहते थे, जब पूर्वकालीन प्रतिमा केवल संवत् और नामका ही , निर्देश रहता था । हाँ, इतना कहना पड़ेगा कि जैनोंने चाहे पाषाण या धातु ही प्रतिमा क्यों न हो, पर उनमें लिपि-सौंदर्य ज्योंका त्यों सुरक्षित रखा, मध्य कालीन लिपि - विकासके इतिहासमें वर्णित जैन लेखा का स्थान अनुपम है । दिगम्बर जैनसमाजकी अपेक्षा श्वेताम्बरोंने इसपर अधिक ध्यान दिया है । कभी-कभी प्रतिमाओं के पश्चात् भागों में चित्र भी खोदे जाते थे । ये लेख हजारोंकी संख्यामें प्रकट होचुके हैं पर अप्रका शित भी कम नहीं' । २५०० बीकानेरके हैं ५०० मेरे संग्रहमें हैं, श्रीसाराभाई नबाबके पास सैकड़ों हैं और भी होंगे। इनकी उपयोगिता केवल जैनोंके लिये ही है इसे मैं स्वीकार न करूँगा । १ श्राज भी अनेकों प्रतिमाएँ ऐसी हैं जिनके लेख नहीं लिये गये । दिगम्बर प्रतिमाओं की संख्या इसमें अधिक । जैन मुनि विहार करते हैं वे कम से कम खाने वाले मन्दिर के लेख लेलें, तो काम हल्का होजायगा, दि० मुनियोंके साथ जो पंडितादि परिवार रहता है वह भी कर सकता है; क्योंकि दि० मन्दिरोंमें श्वेताम्बरोंको स्वाभाविक सुविधा नहीं मिलती है, मुझे अनुभव है । Jain Education International [ वर्ष उपर्युक्त पंक्तियोंसे जैनोंके कलात्मक विशिष्ट अवशेषका स्थूलाभास मिल जाता है, एवं इस बातका भी पता चल जाता है कि हमारे पूर्व पुरुषोंने कितनी महान् अखूट सम्पत्ति रख छोड़ी है। सच कहा जाये तो किसी भी सभ्य समाजके लिये इनसे बढ़कर उचित और प्रगति पथ-प्रेरक उत्तराधिकार हो ही क्या सकता है ? सांस्कृतिक दृष्टिसे इन शिलाखण्डों का बहुत बड़ा महत्व है, मैं तो कहूँगा हमारी और सारे राष्ट्रकी उन्नतिके अमर तत्त्व इन्हींमें लुप्त हैं। बाहरी अनार्यम्लेच्छोंके भीषण आक्रमणोंके बाद भी सत्य पारम्परिक दृष्टिसे अखण्डित है । अत: किन किन दृष्टियों से इनकी उपयोगिता है यह आजके युगमें बताना पूर्व कथित उक्तियोंका अनुसरण या पिष्टपेषण मात्र है। समय निःस्वार्थ भाव से काम करनेका है। समय अनुकूल है । वायुमण्डल साथ है । अनुशीलनके बाह्य साधनोंका और शक्तिका भी अभाव नहीं । अब यहाँ पर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इतने विशाल प्रदेशमें प्रसारित जैन अवशेषोंकी सुरक्षा कैसे की जाय और उनके सार्वजनिक महत्वसे हमारे जैन विद्वत्समाजको कैसे परिचय कराया जाय, दोनों प्रश्न गम्भीर तो हैं पर जैन जैसी धनी समाजके लिये असम्भव नहीं हैं । जो अवशेष भारत सरकार द्वारा स्थापित पुरातत्त्वके अधिकारमें और जैन मन्दिरों में विद्यमान हैं वे तो सुरक्षित हैं ही, परन्तु जो यत्र तत्र सर्वत्र खण्डहरोंमें पड़े हैं और जैन समाजके अधिकार में भी ऐसी वस्तुएँ हैं जिनके महत्वको न तो समाज जानता है न उनकी ओर कोई लक्ष ही है । मैंने अवशेषों के प्रत्येक भागमें सूचित किया है कि जैन पुरातत्त्व विषयक एक स्वतन्त्र ग्रन्थमाला ही स्थापित की जाय जिसमें निम्न भागोंका कार्य सञ्चालित हो: १ - जैनमन्दिरोंका सचित्र ऐतिहासिक परिचय । २ - जैन गुफाएँ और उनका स्थापत्य, सचित्र | ३ – जैन प्रतिमाओं की कलाका क्रमिक विकास । इसे चार भागों में बाँटना होगा । तभी कार्य सुन्दर और व्यवस्थित हो सकता है। जैनलेख । इसे भी चार भागों में विभाजित करना For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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