Book Title: Anekant 1948 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 13
________________ किरण ७ ] . - कर्म और उसका कार्य .. २५५ वहाँ सर्व प्रथम उन्होंने साता और असाता वेदनीय आदि कर्मके क्षय व क्षयोपशमका ही फल है। का वही स्वरूप दिया है जो सर्वार्थसिद्धि आदिमें बाह्य सामग्री इन कारणोंसे न प्राप्त होकर अपनेबतलाया गया है। किन्तु शङ्का-समाधानके प्रसङ्गसे अपने कारणोंसे ही प्राप्त होती है। उद्योग करना, उन्होंने सातावेदनीयको जीवविपाकी और पदलविपाकी व्यवसाय करना, मजदूरी करना, व्यापारके साधन उभयरूप सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। जुटाना, राजा महाराजा या सेठ साहुकारकी चाटु___इस प्रकरणके वाचनेसे ज्ञान होता है कि वीरसेन कारी करना, उनसे दोस्ती जोड़ना, अर्जित धनकी स्वामीका यह मत था कि सातावेदनीय और असाता- रक्षा करना, उसे व्याजपर लगाना, प्राप्त धनको विविध वेदनीयका काम सुख-दुखको उत्पन्न करना तथा इनकी व्यवसायोंमें लगाना, खेती-बाड़ी करना, झाँसा सामग्रीको जुटाना दोनों हैं। देकर ठगी करना, जेब काटना, चोरी करना, जुआ • (२) तत्त्वार्थसूत्र अध्याय २, सूत्र ४ की सर्वार्थ- खेलना, भीख मांगना, धर्मादयको संचित कर पचा सिद्धि टीकामें बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिके कारणोंका जाना आदि बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिके साधन हैं। इन निर्देश करते हुए लाभादिको उसका कारण बतलाया व अन्य कारणोंसे बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति होती है उक्त है । किन्तु सिद्धोंमें अतिप्रसङ्ग देनेपर लाभादिके कारणोंसे नहीं। साथ शरीरनामकर्म आदिकी अपेक्षा और लगा दी शङ्का-इन सब बातोंके या इनमेंसे किसी एकके है। ये दो ऐसे मत हैं जिनमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिका करनेपर भी हानि देखी जाती है सो इसका क्या क्या कारण है इसका स्पष्ट निर्देश किया है। आधुनिक कारण है ? . विद्वान भी इनके आधारसे दोनों प्रकारके उत्तर देते समाधान-प्रयत्नकी कमी या बाह्य परिस्थिति हुए पाये जाते हैं। कोई तो वेदनीयको बाह्य सामग्रीकी या दोनों। निमित्त बतलाते हैं। और कोई लाभान्तरीय शङ्का-कदचित व्यवसाय आदि नहीं करनेपर आदिके क्षय व क्षयोपशमको। इन विद्वानोंके ये मत भी धनप्राप्ति देखी जाती है, सो इसका क्या कारण है ? उक्त प्रमाणोंके बलसे भले ही बने हों किन्तु इतने समाधान-यहाँ यह देखना है कि वह प्राप्ति मात्रसे इनकी पुष्टि नहीं की जासकती; क्योंकि उक्त कैसे हुई है ? क्या किसीके देनेसे हुई है या कहीं पड़ा • कथन मूल कर्मव्यवस्थाके प्रतिकूल पड़ता है। हुआ धन मिलनेसे हुई है ? यदि किसीके देनेसे हुई - .. यदि थोड़ा बहुत इन मतोंको प्रश्रय दिया जा है तो इसमें जिसे मिला है उसके विद्या आदि गुण सकता है तो उपचारसे ही दिया जासकता है। वीरसेन कारण हैं या देनेवालेकी स्वार्थसिद्धि, प्रेम आदि ग स्वामीने तो स्वर्ग, भोग-भूमि और नरकमें सुख-दुखकी कारण हैं। यदि कहीं पड़ा हुआ धन मिलनेसे हुई है निमित्तभूत सामग्रीके साथ वहाँ उत्पन्न होनेवाले तो ऐसी धनप्राप्ति पुण्योदयका फल कैसे कही जा जीवोंके साता और असाताके उदयका सम्बन्ध देख सकती है । यह तो चोरी है। अतः चोरीके भाव कर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि बाह्य इस धनप्राप्तिमें कारण हुए न कि साताका उदय । सामग्री साता और असाताका फल है। तथा पूज्य- शङ्का-दो आदमी एक साथ एक-सा व्यवसाय पाद स्वामीने संसारी जीवमें बाह्य सामग्रीमें लाभादि- करते है फिर क्या कारण है कि एकको लाभ होता है रूप परिणाम लाभान्तराय आदिके क्षयोपशमका फल और दूसरेको हानि ? जानकर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि . समाधान व्यापार करनेमें अपनी अपनी लाभान्तराय आदिके क्षय व क्षयोपशमसे बाह्य सामग्री योग्यता और उस समयकी परिस्थिति आदि इसका ' की प्राप्ति होती है। तत्त्वतः बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति न कारण है, पाप-पुण्य नहीं । संयुक्त व्यापारमें एकको तो साता-असाताका ही फल है और न लाभान्तराय लाभ हो तो कदाचित् हानि-लाभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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