Book Title: Anekant 1948 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 12
________________ २५४ अनेकान्त इतने विवेचनसे कर्मी कार्य-मर्यादाका पता लग जाता है। कर्मके निमित्तसे जीवकी विविध प्रकारकी वस्था होती है और जीव में ऐसी योग्यता आती है जिससे वह योगद्वारा यथायोग्य शरीरं, वचन, मन और श्वासोच्छवास योग्य पुगलोंको ग्रहणकर उन्हें अपनी योग्यतानुसार परिणामाता है । कर्मकी कार्य-मर्यादा यद्यपि उक्त प्रकारकी है तथापि अधिकतर विद्वानोंका विचार है कि बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति भी कर्मसे होती है । इन विचारोंकी पुष्टिमें वे मोक्षमार्गप्रकाशके निम्न उल्लेखोंको उपस्थित करते हैं—'तहां वेदनीय करि तौ शरीर विषै वा शरीर नाना प्रकार सुख दुःखनिको कारण पर द्रव्य का संयोग जुरै है ।' -पृष्ठ ३५ । उसीसे दूसरा प्रमाण वे यों देते हैं'बहुरि कर्म विषै वेदनीयके उदय करि शरीर विषै बाह्य सुख दुःखका कारण निपजे है । शरीर विषै आरोग्यपनौ, रोगीपनौ, शक्तिवानपनौ, दुर्बलपनौ अर क्षुधा तृषा रोग खेद पीड़ा इत्यादि सुख दुःखनिके कारण हो हैं । बहुरि बाह्य विषै सुहावना ऋतु पावनादिक वा इष्ट स्त्री पुत्रादिक वा मित्रधनादिक "सुख दुःखके कारक हो हैं ।' – पृष्ठ ५६ । इन विचारोंकी परम्परा यहीं तक नहीं जाती है किन्तु इससे पूर्ववर्ती बहुतसे लेखकोंने भी ऐसे ही विचार प्रकट किये हैं। पुराणों में पुण्य और पापकी महिमा इसी आधार से गाई गई है। अमितगतिके सुभाषितरत्नसन्दोह में देवनिरूपण नामका एक अधिकार है । उसमें भी ऐसा ही बतलाया है । वहाँ लिखा है कि पापी जीव समुद्रमें प्रवेश करनेपर भी रत्न नहीं. पाता किन्तु पुण्यात्मा जीव तटपर बैठे ही उन्हें प्राप्त कर लेता है । यथा'जलधिगतोऽपि न कश्चित्कश्चित्तगोऽपि रत्नमुपयाति । किन्तु विचार करनेपर उक्त कथन • युक्त प्रतीत नहीं होता | खुलासा इस प्रकार है कर्मके दो भेद हैं— जीवविपाकी और पुदल विपाकी जो जीवकी विविध अवस्था और परिणामोंके होनेमें निमित्त होते हैं वे जीवविपाकी कर्म कहलाते हैं । और Jain Education International [ वर्ष ह जिनसे विविध प्रकारके शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वासकी प्राप्ति होती है वे पुढलविपाकी कर्म कहलाते हैं। इन दोनों प्रकारके कर्मोंमें ऐसा एक भी कर्म नहीं बतलाया है जिसका काम बाह्य सामग्रीका प्राप्त कराना हो । सातावेदनीय और असातावेदनीय ये स्वयं जीवविपाकी हैं। राजवार्त्तिकमें इनके कार्यका निर्देश करते हुए लिखा है'यस्योदयादेवादिगतिषु शरीरमानस सुखप्राप्तिस्तत्सद्वेद्यम्, यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसद्वेद्यम् ।' — पृ० ३०४ । वार्त्तिकोंकी व्याख्या करते हुए वहाँ लिखा है'अनेक प्रकारकी देवादि गतियों में जिस कर्मके उदयसे जीवोंके प्राप्त हुए द्रव्य के सम्बन्धकी अपेक्षा शारीरिक और मानसिक नाना प्रकारका सुखरूप परिणाम होता है वह साता वेदनीय है । तथा नाना प्रकारकी नरकादि गतियोंमें जिस कमके फलस्वरूप जन्म, जरा, मरण, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, व्याधि, वध और बन्धनादि से उत्पन्न हुआ विविध प्रकारका मानसिक और कायिक दुःसह दुःख होता है वह असाता वेदनीय है । ' सर्वार्थसिद्धिमें जो सातावेदनीय और असातावेंदनीय स्वरूपका निर्देश किया है। उससे भी उक्त कथंनकी पुष्टि होती है । श्वेताम्बर कार्मिक ग्रन्थोंमें भी इन कर्मोंका यही अर्थ किया है। ऐसी हालत में इन कर्मोंको अनुकूल व प्रतिकूल बाह्य सामग्री के संयोगवियोग में निमित्त मानना उचित नहीं है । वास्तवमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति अपने-अपने कारणोंसे होती है । इसकी प्राप्तिका कारण कोई कर्म नहीं है । ऊपर मोक्षमार्ग प्रकाशकके जिस मतकी चर्चा की. इसके सिवा दो मत और मिलते हैं। जिनमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति कारणोंका निर्देश किया गया है । इनमेंसे पहला मत तो पूर्वोक्त मतसे ही मिलता जुलता है। दूसरा मत कुछ भिन्न है । आगे इन दोनों आधारसे चर्चा कर लेना इष्ट है (१) षट्खण्डागम चूलिका अनुयोगद्वार में प्रकृतियोंका नाम-निर्देश करते हुए सूत्र १८ की टीकामें वीरसेन स्वामीने इन कर्मोंकी विस्तृत चर्चा की है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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