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अनेकान्त
वास्तविक सुख-शान्ति प्राप्त नहीं करता - केवल क्षणिक -सी शान्तिको पाकर फिरसे उन्हीं उलझनोंमें फँस जाता है, पर सच्ची शान्तिका हल वहाँ नहीं पाता ।
संसारमें असंख्य पदार्थ दिखाई देते हैं । प्रत्येकमें अनगिनत गुण हैं । प्रति-समय उनकी पर्यायें पलटती जाती हैं - किसी पदार्थ में भी स्थिरता नहीं पाई जाती । कोई पैदा होता है तो कोई नाश होता है । यह सब परिवर्तन क्या है ? क्या आपने कभी सोचा है ? यह सब संसारचक्र है । जिस प्रकार २, ३, ४, ५ आदि शब्दों के मेल से नाना प्रकारके पदवाक्यादि बन जाते हैं उसी प्रकार २, ३, ४ आदि वस्तुओंके मेलसे नाना प्रकारके भौतिक पदार्थ नये-नये रूपमें सामने आते रहते हैं। यह संसारका चक्कर है और वह इसी प्रकार सदा चलता रहेगा। मनुष्य अपनी अपूर्ण अवस्थामें कभी भी किसी पदार्थ के पूर्ण गुणोंको जान नहीं सकेगी - उसका पूरा ज्ञान कभी नहीं होसकेगा । और इस लिये उसे सदा असंतोष और दुख बना रहेगा । कोई भी प्राणी यह नहीं कहता कि "मैं अब संसारकी सम्पत्ति व प्रभुता प्राप्त कर चुका हूँ और यह सदा मेरे पास इसी तरहसे स्थिर बनी रहेगी और मैं सदा सुख भोगता रहूँगा ।" प्रत्येक प्राणी अधिक से अधिक धनादिककी इच्छा करता है । साधु भी होजाते हैं उनमें भी अधिकांश अपनी सेवा कराकर धन आदिका ही आशीर्वाद देते हैं। इससे पता चलता है कि वे साधु होकर भी धनादिकमें ही सुखकी स्थापना करते हैं— उन्हें वास्तविक विवेक-बुद्धि जागृत नहीं
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हुई । आत्मा के स्वरूपको उन्होंने नहीं जाना । उनकी दृष्टि सांसारिक भोगों में ही लगी रही। -
स्वर्ग में जाकर अनेक प्रकारके सांसारिक भोगों में रमण करने या नरकमें निवास करके नाना प्रकार की यातनाओंको सहने या मनुष्य-भव प्राप्त करके - कला-कौशल तथा प्रभुताको पानेपर भी श्रात्माको अपने असली स्वरूपकी पहचान नहीं हुई— आत्मा बन्धनमें पड़ा ही रहा । परतन्त्र तो रहा ही।
कितने ही प्राणी यह समझते हैं कि धर्मस्थानोंमें जानेसे और देवोंकी भक्ति - उपासना करनेसे आत्माका असली स्वरूप मालूम होजायगा और इसके लिये वे वहाँ जाते हैं और रागी, द्वेषी नाना प्रकारके देवीदेवताओंकी मान्यताएँ करते हैं। परन्तु उनसे भी उन्हें 'आत्माका असली स्वरूप मालूम नहीं हो पाता ।
वास्तवमें तथ्य यह है कि आत्मामें राग-द्वेषकी कल्पनाका अभाव होजाना ही आत्माकी असली शांति है और वही आत्माका वास्तविक निज स्वभाव हैराग और द्वेषका सर्वथा अभाव अर्थात् प्रशम-गुणयथाख्यातचारित्रादि आत्मा (जीव ) की असली सम्पत्ति है । संसारदशामें वह पुद्रलकमोंसे ढकी हुई है- अपने विवेक, संयम, तपः साधना आदि निज प्रयत्नों से उन पुद्रलकर्मोंके अलग होजानेपर वह प्रकट होजाती है। यह आत्मस्वभाव ही हम सबके लिये उपादेय है और इस दिशा में ही संसारी जीवोंके प्रयत्न श्रेयस्कर एवं दुखमोचक हैं।
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