Book Title: Anekant 1948 07 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jugalkishor Mukhtar View full book textPage 9
________________ जीवका स्वभाव (लेखक – श्रीजुगल किशोर जैन, कागजी ). [ पाठक, देहलीकी ला० धूमीमल धर्मदासजी कागजीकी प्रसिद्ध फर्मसे अवगत होंगे। श्रीजुगलकिशोरजी जैन इसी फर्मके मालिक हैं। कितने ही वर्षोंसे मुझे आपके निकट सम्पर्क में आनेका अवसर मिला है। एकबार तो वीरसेवामन्दिर के अनेक प्रकाशनोंको छुपानेके लिये कई महीने तक मुख्तारसाहब और मैं आपके घरपर ही ठहरे। हमने निकटसे देखा कि श्राप बहुत शान्त परिणामी, भद्र, धार्मिक और तत्त्वजिज्ञासु हैं । श्राप घण्टों तत्व चर्चामें सब काम-काज छोड़कर रस लेते हैं। हाल में आप विदेशोंकी यात्रा करके लौटे हैं । वहाँ आपने अपनी संस्कृति, अपने चारित्र और ज्ञानका कितने ही लोगों पर श्राश्चर्यजनक प्रभाव डाला । श्रापके हृदय में यही बलवती भावना घर किये हुए है कि देश और विदेशमें जैनधर्मका प्रसार हो— उसके सिद्धान्तोंको दुनिया जाने और जानकर उनका श्राचरणकर सुख-शान्ति प्राप्त करे । प्रस्तुत लेख श्रापकी पहली रचना है । पाठक, देखेंगे कि वे अपने प्रथम प्रयत्नमें कितने सफल हुए हैं और जैनधर्मके दृष्टिकोण से जीवका स्वभांव समझाने में समर्थहो सके हैं। समाजको आपसे अच्छी आशाएँ हैं । —कोठिया ] जैन धर्म प्रत्येक जीवको अनादिकालसे स्वतन्त्र, अनादि और अकृत्रिम बतलाता है। इसमें जीवका लक्षण इस प्रकार कहा गया है- जो जीवे सोज । अर्थात् जो ज्ञान - दर्शन गुणसे सहित है । अनांदिकालसे यह जीव इस संसार में मौजूद है और अनन्तकाल तक रहेगा-न इसको किसीने पैदा किया है और न इसका कोई विनाश कर सकता है। द्रव्यकी अपेक्षासे समस्त जीव नित्य और समान हैं— समान गुणवाले हैं। अनादिकालसे क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, हास्य, रति, अरति, शोक, भय ग्लानि, वेद आदि पुद्गलविकारोंके वशीभूत हुए वे नाना प्रकारके शरीरोंको धारण कर संसार में घूम रहे हैं। मिध्यादर्शन (भ्रान्त दृष्टि) से संसार के पदामें सुख समझकर को प्राप्त करनेके लिये अनेक प्रकारकी चेष्टाएँ करते रहते हैं और उन पदार्थों को ही सदा अपनाते रहते हैं। मिध्यादर्शनके ही कारण हर एक प्राणी अपनी रुचिके अनुसार पदार्थोंमें राग व द्वेष करता है। एक ही Jain Education International पदार्थ किसीको इष्ट मालूम होता है तो वही पदार्थ दूसरेको अनिष्ट । एक पदार्थ एकको लाभदायक ज्ञात होता है तो दूसरेको वह हानिकारक प्रतीत होता है । हर जीव अपने-अपने संकल्प-विकल्प में पड़ा हुआ किसीसे राग और किसीसे द्वेष करता हुआ शारीरिक व मानसिक दुःखोंको भोगता रहता है। एक शरीरको प्राप्त करता हुआ उसको छोड़कर अन्य नवीन शरीरको ग्रहण करता है । प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। और सुख प्राप्त करनेका उपाय भी करता है । परन्तु प्रत्येक दिन व प्रत्येक समय उसे यही चिन्ता लगी रहती है कि मेरा कार्य पूर्ण कब और कैसे होगा ? मुझे मेरी इच्छित वस्तु कब और कैसे मिलेगी ? इस तरह विकल्प-जालोंमें पड़ा हुआ उसकी प्राप्तिके लिये अनुधावन करता है और कोशिशें करता है । यह हम सब देखते ही हैं कि मनुष्य इस संसार में प्रति-दिन नई-नई खोजें करता जाता है और आराम सुख व शान्तिके उपाय उनमें पाता-सा प्रतीत होता है, परन्तु होता क्या है कि वह उन्हें प्राप्त करके भी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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