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वर्ष ३, किरण
हरिभद्र-सूरि
महत्तरा धर्मजननी माता थीं, विद्याधर गच्छ और श्वे- नामके दो भगिनी-पुत्र (भाणेज ) थे। ये दोनों किसी ताम्बर सम्प्रदाय था।
कारण वशात् वैराग्यशील होकर अनगार-धर्मकी दीक्षा प्राचार्य हरिभद्र सूरिने याकिनी महत्तराजीके प्रति ग्रहणकर इनके शिष्य हो गये थे। प्राचार्य हरिभद्र अत्यन्त भक्ति, कृतज्ञता, लघुता, श्रद्धा और पुत्रभाव सूरिने व्याकरण, साहित्य, दर्शन एवं तत्त्वज्ञान आदि प्रदर्शित करने के लिये अपनी अनेक कृतियोंमें अपनेको विषयोंमें इन्हें पूर्ण निष्णात बना दिया था। किन्तु 'याकिनी महत्तरा सूनु' के नामसे अंकित किया है, फिर भी इनकी इच्छा बौद्ध विद्या पीठमें ही जाकर बौद्ध जैसा कि उनके द्वारा रचित श्री दशवैकालिकनियुक्ति दर्शनके गम्भीर अध्ययन करनेकी हुई । उस समयमें टीका, उपदेशपद, पंचसूत्रटीका, अनेकान्त जयपताका, मगध प्राँतकी अोर बौद्धोंका प्रबल प्रभाव था। मगध ललिताविस्तरा और आवश्यक नियुक्ति टीका आदि अादि प्राँतकी अोर अनेक विद्याकेन्द्र थे । एक विद्यापवित्र कृतियों द्वारा एवं अन्य ग्रन्थकारों द्वारा रचित पीठ तो इतना बड़ा था कि जिसमें १५०० अध्यापक ग्रन्थोंसे सप्रमाण सिद्ध है।
और १५००० छात्र थे। उस समय में बौद्धोंने शुष्क : आचार्य हरिभद्र
तर्क-क्षेत्रमें अपना अत्यधिक प्राधिपत्य जमा रक्खा था।
हँस और परमहंस सदृश विद्वानोंका ऐसी स्थितिमें उस अब विप्रप्रवर हरिभद्रसे अनगार-प्रवर हरिभद्र हो
ओर आकर्षित हो जाना स्वाभाविक ही था। यद्यपि गये । पहले राज पुरोहित थे, अब धर्म-पुरोहित हो गये ।।
श्राचार्य हरिभद्र स्वयं बौद्ध दर्शनके महान् पण्डित और ये वैदिक साहित्य और भारतीय जैनेतर साहित्य-धाराके
असाधारण अध्येता थे, जैसा कि उनके उपलब्ध ग्रंथों में तो पूर्ण पण्डित और अद्वितीय विद्वान थे ही। अतः
उन द्वारा बौद्ध दर्शनपर लिखित अंशसे सप्रमाण सिद्ध जैन साहित्य और जैन दर्शनके आधार-भूत, ज्ञान,
शाना है। फिर भी हँस और परमहँसकी बौद्ध विद्यापीठमें ही दर्शन और चारित्ररूप त्रिपदीके भी अल्प समयमें ही
जाकर बौद्ध दर्शन के अध्ययन करनेकी प्रबल और और अल्प परिश्रमसे ही पूर्ण अध्येता एवं पूर्ण ज्ञाता
उत्कृष्ट उत्कण्ठा जागृत हो उठी । हरिभद्र सूरिने बौद्धोंकी हो गये । शनैः शनैः जैन दर्शन के गम्भीर मननसे ये
विद्वेषमय प्रवृत्तिके कारण ऐसा करनेके लिये निषेध . अाचार क्षेत्रमें भी एक उज्ज्वलनक्षत्रवत् चमक उठे
किया; किन्तु पूर्वकर्मोदय वशात् भावी अनिष्ठ ही हँस और जैसे एक चक्रवर्ती अपने पुत्रको भार सौंपकर
और परमहंसको उस ओर आकर्षित करने लगा। सच चिन्ता मुक्त हो उठता है, वैसे ही श्री जिनभट जी भी
है भवितव्यताकी शक्ति सर्वोपरि है। अपने गच्छके सम्पूर्ण भारको हरिभद्र पर छोड़कर
यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि ये चिन्ता मुक्त हो गये । इस प्रकार मुनि हरिभद्र आचार्य
दोनों शिष्य गुरुके अनन्य प्रेमी और असाधारण भक्त हरिभद्र हो गये और ज्ञान, दर्शन, चारित्रमें, अव्याहत
थे। गुरुके वचनोंपर सर्वस्व होम कर देनेकी पवित्र गतिसे विकास करने लगे।
भावनावाले थे। किन्तु भवितव्यतावश गुरुकी पुनीत हरिभद्रसरिके शिष्य
श्राज्ञासे इस समय विमुख हो गये । भावी अनिष्ट इन्हें कहा जाता है कि हरिभद्र सूरिके हँस और परमहंस बौद्ध विद्यापीठकी ओर खींचता चला गया। अन्ततो