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वर्ष ३. किरण ५ ]
किसी ग्रन्थ में नहीं देखी; क्योंकि योगग्रन्थोंमें अधिकांश बातें गुरुगम्य और अनुभवगम्य ही रक्खी गई हैं; पढ़ कर कोई अभ्यास नहीं कर सकता तथा राजयोग के सच्चे गुरु मिलना एक तरह से असंभवसा है ।
इस क्रिया के बतलाने के पहले निद्राका सूक्ष्म विश्लेकरना आवश्यक है । यह विश्लेषण सांख्य-पद्धतिसे होगा ।
निद्रा तीन प्रकारकी होती है-सात्विक, राजसिक तामसिक । इन सब प्रकारकी निद्राओं में तमोगुणकी प्रबलता रहती है। जिसमें सत्वगुणकी ही पूर्ण प्रचलता हो उसे योगनिद्रा कहते हैं, वह इन तीन प्रकारोंसे दी है।
सरल योगाभ्यास
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सत्वगुण श्रात्माका चैतन्यगुण है, इसमें निर्मलता और व्यवस्थिति रहती है । रजोगुण क्रियाशीलताका गुण है और तमोगुण निष्क्रियता, जड़ता और अँधकार गुण है।
जिस निद्रा में तमोगुणका नम्बर पहला और सत्वगुणका दूसरा होता है उसे सात्विक निद्रा कहते हैं । जिस निद्रा में तमोगुणका नम्बर वही प्रथम, परन्तु रजोगुणका नंबर दूसरा होता है उसे राजसिक निद्रा कहते हैं, और जिसमें तमोगुणका नम्बर प्रथम तथा द्वितीय दोनों ही रूप है उसे तामसिक निद्रा कहते हैं ।
सात्विक निद्राको सुषुप्ति कहते हैं, इसमें स्वप्न नहीं ते तथा 'मैं हूँ' इसका मान रहता है तथा जीव विश्रांति और सुखका अनुभव करता है:
सुषुप्ति काले सकले विल्लीने तमोभिभूतः सुखरूपमेति ।
— कृष्णयजुर्वेदीय कैवल्योपनिषद् | अर्थात् - सुषुप्ति के समय में तमोगुणसे अभिभूत होकर सब कुछ विलीन हो जाता है और जीव अपनेको
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सुखरूप अनुभव करता है ।
राजसिक निद्रा में स्वप्न देखता है परन्तु इन स्वप्नों में वह दृष्टा स्वप्न लोकके सृष्टा के रूपमें होता है और देख देखकर सुख-दुखका अनुभव करता है ।
स्वप्ने स जीवः सुखदुःखभोक्ता स्वमाययाकल्पितविश्वलोके ।
-- कैवल्योपनिषद्
अर्थात् - यह जीव स्वप्न में अपनी मायासे बनाये हुए विश्वलोक में सुख-दुःखका भोग करता है ।
तामसिक सुषुप्ति में मनुष्य को यह खयाल ही नहीं रहता कि मैं कौन हूँ और क्या कर रहा हूँ । उस समय विषयों के आक्रमण होने पर वह विमूढ़ जड़के समान आचरण करता है । राजसिक सुषुप्ति में अच्छे बुरेका कुछ ज्ञान रहता है परन्तु तामसिक निद्रामें वह नहीं रहता ।
सात्विक निद्राके बाद मनुष्य में फुर्ती रहती है और वह खुश होता है | राजसिक निद्राके वाद मनुष्य कुछ अन्यमनस्क रहता है तथा उसे विश्रांति के लिये अधिक सोनेकी आवश्यकता होती है । परन्तु तामसिक निद्राके बाद मनुष्य को ऐसा अनुभव होता है मानो वह किसी वजनदार शिला के नीचे रात्रि भर दबा पड़ा रहा हो ।
योगग्रंथों में मनुष्य शरीर के तीन विभाग किये हैं, जिन्हें तीन लोकका नाम दिया गया है तथा कहा गया है कि मन या लिंगात्मा के सहित प्राण जिस लोक में जाते हैं श्रात्मा वहां सुख-दुःखोंका अनुभव करता है । इस विषय में ' योगमार्ग' शीर्षक लेख देखें । स्वप्न के समय प्राण इन भिन्न भिन्न लोकों में विहार करता है, जिससे विचित्र विचित्र दृश्य देखता है:पुरत्रयो क्रीडति यश्च जीवस्ततस्तु जातं सकलं विचित्रम् । - कैवल्योपनिषद्