Book Title: Anekant 1940 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 46
________________ जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैं ? [ ले० - श्री० ला० हरदयाल, एम० ए० ] जा कृतिका जीवन किस वस्तु में है ? किस चीज़ में जातिकी रमा छिपी हुई है ? क्या तावीज़ है, जिसे जाति अपनी रक्षा के लिये पहने रहती है । क्या कस्तूरी है, जिसे एक अधमरी जातिको सुँघाना चाहिए कि वह कुछ तो होश में श्रावे? वह क्या रहस्य है जिसमें शेष सब भेद छिपे हुए हैं ? वह क्या कुंजी है, जिससे जातीय प्रश्नोंके सब ताले खुलते हैं ? थलीबाबाको एक मंत्र याद था, जिससे तरह तरहके बहुमूल्य मोती- जवाहर उसके हाथ आये थे। उसका भाई यह शब्द भूल गया; और वह अपने भाग्यको पीटता रहा; दौलतका द्वार न खुला, पर न खुला। इसी तरह हम पूछते हैं कि जाति के लिए वह क्या मंत्र है, जिससे मनमानी मनोकामना मिलती है-धन, मान, बल स्वराज्य, चक्रवर्ती राज्य सब प्राप्त होते हैं ? यह स्पष्ट प्रकट है कि जातिके जीवनका संसार व्यापी सिद्धान्त अवश्य है, अन्यथा जातिके कर्णधार किस प्रकार अपने देश वासियोंकी भलाईका प्रयत्न कर सकते हैं । किस नियम से वह काम करने में सहायता लें, किस नेता के अनुयायी बने, किस गुरुसे शिक्षा ग्रहण करें ? यदि कोई सिद्धान्त नहीं है तो बड़ी निराशाकी बात है । सब मामला श्रटकल - पच्चू और अनिश्चित् रहा। किसी श्रान्दोलनकी बुराई - भलाईको पहचानना असम्भव हो गया । प्रकृतिकी अँधेरी रात्रि में मनुष्य जैसे कमज़ोर यात्री के लिये कोई कुतुब (ध्रुव) मार्ग दिखानेवाला नहीं रहा । सिद्धान्त अवश्य होगा । प्रकृति नियमकी प्रेमिणी है; नियमबद्ध श्रान्दोलनकी मतवाली है । प्रकृतिको पूर्वी रजवाड़ों की सी बदइन्तज़ामी पसन्द नहीं । प्रकृति फूहड़ नहीं है । पार्थिव संसार में हर वस्तु टल नियम के अनुसार अपना असर दिखाती है । फिर नैतिक और देशोंकी दुनिया में भी अवश्य किसी न किसी तरकीबके अनुसार काम होता होगा । या कार्यवाही न होती होगी । यदि तमाम जातियोंकी उन्नति और उनकी अवनतिसे हम कोई सिद्धान्त नहीं निकाल सकते, जिससे हम अपने मार्ग से काँटे हटा सकें, तो इतिहासको धिक्कार है। उसके लड़ाई के मैदान केवल कसाईखाने और उसकी क्रान्तियां केवल होलीका स्वांग रही हैं । अफ़सोस है कि लाखों निरपराध जानें गईं, ज़माने में उथल-पथल हुई एक क्षण भी मनुष्यको चैन न मिला । अगर इस पर भी इतिहास से कोई सिद्धान्त जातीय जीवनको बनाए रखने के लिए नहीं मिल सकता, तो उसे व्यर्थ समझना उचित है । क्या यह संसारकी जातियोंको यों ही यह नाच नचा रहा है ? श्रवश्य ही जातीय जीवनका कोई विश्वव्यापी सिद्धान्त है जो हमको मालूम हो सकता है । जिस प्रकार कटोपनिषद् में लिखा है कि नेचिकेनाने भय से पूछा -- मुझे मनुष्यकी मृत्युका रहस्य बताओ ? मुझे हाथी घोड़े सोना चाँदीकी श्रावश्यकता नहीं | उसी तरह हमारे मन में निरन्तर प्रश्न उठता रहता है कि क्या जातीय जीवनका कोई सिद्धान्त है ? यदि है, तो हम जाननेके लिये उद्यत हैं । जंगलों में घूमने से हम

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