Book Title: Anekant 1940 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 61
________________ वर्ष ३, किरण ५ ] मूल और भाष्यकी गाथाओं को भिन्न भिन्न टाइपोंमें दिया गया है, विषय सूची अलग देने के अतिरिक्त ग्रंथ में जहाँपर जो विषय प्रारम्भ होता है वहाँपर उस विषयकी सूचना सुन्दर बारीक टाइप में हाशियेकी तरफ दे दी है, इससे ग्रन्थ बहुत उपयोगी होगया है । छपाई - सफाई सुन्दर है और कागज भी अच्छा लगा है। ग्रंथ आत्मशुद्धि में दत्तचित्त साधु-साध्वियों के अतिरिक्त पुरानी बातोंका अनुसंधान करनेवाले विद्वानों के संग्रह योग्य है । साहित्य- परिचय और समालोचन (२) निजात्मशुद्धिभावना और मोक्षमार्गप्रदीप ( हिन्दी अनुवाद सहित ) – मूल लेखक, मुनि कुंथु - सागर जी – अनुवादक, पन्नानूलाल शास्त्री, जयपुर - प्रकाशिका, श्री संघवी नानीव्हेन सितवाडा निवासी । पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर १४४ । मूल्य, स्वाध्याय । मिलने का पता, पं वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, 'कल्याण' प्रेस, शोलापुर । ये दोनों ग्रन्थ एक साथ निबद्ध हैं- पहले में ६४ और दूसरे १६४ संस्कृत पद्य हैं तथा पिछले ग्रन्थके साथ ३८ पद्योंकी एक प्रशस्ति भी लगी हुई है, जिसमें लेखक ने अपने गुरु आचार्य शान्तिसागर के वंशादिकका कीर्तन किया है. अपनी दूसरी रचनाओंका उल्लेख किया है और इस ग्रंथका रचना समय ज्येष्ठ कृष्ण १३ वीर निर्माण संवत् २४६२ दिया है । साथ ही, अनुवादक और अनुवादके समयका भी उल्लेख कर दिया है। पहले ग्रंथका रचना समय उसके अन्तिम पद्योंमें फाल्गुन शुक्ला ३ वीर नि० सं० २४६२ दिया है। दोनों ग्रंथ अपने नामानुकूल विषयका प्रतिपादन करनेवाले, रचना - सौन्दर्यको लिये हुए, पढ़ने तथा संग्रह करने के योग्य है | अनुवाद भी प्रायः अच्छा ही हुआ है और उसके विषय में अधिक लिखनेकी कुछ ज़रूरत भी मालूम नहीं होती, जबकि मूलकारने स्वयं उसे स्वीकार किया है और अपनी प्रशस्ति तक में स्थान दिया है | अनुवादक महाशयने इस ग्रन्थकी एक हज़ार प्रतियाँ अपनी ओर से बिना मूल्य वितरण भी की हैं, जिससे उनका ग्रंथके प्रति विशेष अनुराग होने के साथ ३७५ साथ सेवाभाव प्रकट है, और इसके लिये वे विशेष धन्यवाद के पात्र हैं । ग्रंथकी दूसरी एक हज़ार प्रतियाँ प्रकाशिका नानी व्हेन की ओर से बिना मूल्य वितरित हुई है । जिनका चित्र सहित परिचय भी साथमें दिया हुआ है । लेखकने यह ग्रंथ अपने गुरु श्राचार्य शान्तिसागरको समर्पित किया है। दोनों के अलग अलग फोटो चित्र भी ग्रंथ में लगे हुए हैं और पं० वर्धमान पार्श्व - नाथ शास्त्रीने अपने 'वक्तव्य' में दोनोंका कुछ परिचय भी दिया है । परन्तु ग्रंथके साथमें कोई विषयसूची नहीं है, जिसका होना ज़रूरी था । (३) धर्मवीर सुदर्शन - लेखक, मुनि श्री अमरचन्द | प्रकाशक, वीर पुस्तकालय, लोहा मंडी, आगरा पृष्ठसंख्या, सब मिला कर ११२ । मूल्य, पांच श्राना । सेठ सुदर्शनकी कथा जैन समाजमें खूब प्रसिद्ध है । यह उसीका नई तर्ज़ के नये हिन्दी पद्योंमें प्रस्फुटित और विशद रूप है । इसमें धर्मवीर सेठ सुदर्शन के कथानकका ग्रोजस्वी भाषामें बड़ा ही सुन्दर जीताजागता चित्र खींचा गया है। पुस्तक इतनी रोचक है कि उसे पढ़ना प्रारम्भ करके छोड़नेको मन नहीं होता वह पशु बल पर नैतिक बलको विजयका अच्छा पाठ पढ़ाती है । पद-पद पर नैतिक शिक्षाओं, अनीतिकी अवहेलना और कर्तव्य बोधकी बातोंसे उसका सारा कलेवर भरा हुआ है। साथ ही, कविता सरल, सुबोध और वर्णन-शैली चित्ताकर्षक है । लेखक महोदय इस जीवनी लिखने में अच्छे सफल हुए जान पड़ते हैं । प्राचीन पद्धति के कथानकोंको नवीन पद्धति में लिखने का उनका यह प्रथम प्रयास अभिनन्दनीय है । उन्हें इसके लिखनेकी प्रेरणा अपने मित्र श्री मदनमुनि जीसे प्राप्त हुई थी । प्रेरणाका प्रसंग भी एक स्थान पर होलीके भारी हुल्लड में सदाचारका हत्याकाण्ड और भारतीय सभ्यताका खून देखकर उपस्थित हुआ था, जिसका 'आत्म निवेदन' में उल्लेख है, और उससे यह भी मालूम होता है कि इस चरित्र ग्रंथका निर्माण राधेश्याम रामायण के ढंग पर भारतीय गांवों में सदाचारका महत्व समझाने-बुझाने के उद्देश्य से हुआ है ।

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