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अनेकान्त
[फाल्गुन वीर निर्वाणसं० २४६६
प्रचार हो गया है और अहिंसा का एक नाम ही बाकी हुई हिंसाको बन्द कराकर सुख और शान्ति का मार्ग रह गया है।
चलाया वीर भगवान के उस कल्याण कारी तत्व उपदेश अन्तमें हम सब ही पाठकोंसे प्रार्थना करते हैं कि को और सुख और शान्तिके देनेवाले उस दया धर्मको वह वीर भगवानके उपदेशको पढें और वस्तु स्वभावको श्राप भी सब चावें । अाजकल में जो हिंसा हो समझे। जैनियोंसे भी हमारी यह प्रार्थना है कि आप ही रही है उसका बन्द न होना क्या आप हीकी ग़फ़लतका वीर भगवानके उपदेशोंके अमानतदार हैं इस ही कारण नतीजा नहीं है ? परी तरह प्रयत्न करलेने पर भी कार्य इस बात के ज़िम्मेदार हैं कि वीर भगवानने जीव मात्रके
का सिद्धि न होने में मनुष्य अपनी ज़िम्मेदारीसे बच जाता
की सिद्धि न होने में मन कल्याण के अर्थ ३० वर्ष तक ग्राम २ फिर कर जिस है, परन्तु कुछ भी प्रयत्न न करने की अवस्था में तो सारा धर्म तत्वको सब लोगों को सुनाया, उस समय में होती दोष अपने ऊपर ही अाता है ।
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साहित्य प्ररिचय और समालोचन
(१) जीतकल्पसूत्र ( स्वोपज्ञ भाष्य भूषित )- अर्थ 'पूर्व' होता है, यह निर्णय किया है कि यह भाष्य लेखक, श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण । संशोधक (संपादक) उन्हीं जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणका बनाया हुअा है जो मुनि श्री पुण्यवि जय । प्रकाशक, भाई श्री बबलचन्द्र अावश्यक-भाष्य के कर्ता हैं, और इसीसे उन्होंने इस केशवलाल मोदी, हाजापटेलाकी पोल, अहमदाबाद। गाथामें यह सूचित किया कि 'तिसमयहार' अर्थात् पृष्ठ संख्या, २२४ । मूल्य, लिखा नहीं।
"जावइया तिसमया" (श्राव० नियुक्ति० गाथा ३०) इस ग्रन्थका विषय निर्ग्रन्थ जैन साधु-साध्वियोंके इत्यादि पाठ गाथानों का स्वरूप जिस प्रकार पहले अपराधस्थान विषयक प्रायश्चित्तोंका वर्णन है। इसमें (पर्व ) आवश्यक ( भाष्य ) में विस्तारसे कहा गया मूल सूत्र गाथाएँ २०३ और भाष्य की गाथाएँ २६०६ है उसी प्रकार यहाँ भी वह वर्णनीय है । क्योंकि श्रावहैं । मूल की तरह भाष्यकी गाथाएँ भी प्राकृत श्यक नियुक्ति के अन्तर्गत "जावइया तिसमया” आदि भाषामें हैं। भाष्यमें मुलके शब्दों और विषयका प्रायः गाथाश्रोंका भाष्यग्रन्थ द्वारा, विस्तृत व्याख्यान करने अच्छा स्पष्टीकरण किया गया है, और इससे वह बड़ा वाले श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के सिवाय दूसरे और ही सुन्दर तथा उपयोगी जान पड़ता है। इस भाष्यकी कोई भी नहीं हैं । इससे यह भाष्य मूल ग्रंथकारका ही बाबत अभी तक किसीको निश्चितरूपसे यह मालम नहीं. निर्माण किया होनेसे स्वोपज है। इतनेपर भी यह भाष्य था कि यह किसकी रचना है, क्योंकि न तो इस भाष्यमें ग्रंथ प्रायः कल्पभाष्य, ब्यवहारभाष्य, पंचकल्पभाष्य, भाष्यकारने स्वयं अपने नामका उल्लेख किया, न चूर्णि- पिण्ड नियुक्तिश्रादि ग्रंथोंकी गाथाओंका संग्रहरूप ग्रंथ है; कारने अपने ग्रंथमें इस भाष्य विषयक कोई सूचना की क्योंकि इस ग्रंथमें ऐसी बहूत गाथाएँ हैं जो उक्त ग्रंथों
और न अन्यत्रसे ही ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख मिलता की गाथाअोंके साथ अक्षरशः मिलती जुलती हैं, ऐसा था जिसके अाधारपर भाष्यकारके नामका ठीक निर्णय प्रस्तावनामें सूचित किया गया है। साथ ही, यह भी किया जाता । ग्रन्थ सम्पादक मुनि श्री पुण्यविजयजीने सूचित किया गया है कि श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकी अपनी प्रस्तावनामें, इस भाष्यकी गाथा नं० ६०% और महाभाष्यकारके रूपमें ख्याति होते हुए भी प्रस्तुत भाष्य उसमें खास तौरसे प्रयुक्त हुए 'हेटा' शब्द परसे जिसका में श्री संघदासगणि कृत भाष्यादि ग्रन्थोंकी गाथात्रोंके
* तिसमय हारादीणं गाहाणऽढरह वी सरूवंत। होने में कोई बाधा नहीं है; क्योंकि वे उनसे पहले हो वित्थरयो वरणेज्जा जह हेट्ठाऽऽवस्सए भियेण चुके हैं । अस्तु, ग्रंथका सम्पादन बहुत अच्छा हुआ है,