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वर्ष ३, किरण २]
होली है।
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उस समय चेतन श्रात्माके स्वरूपका उसमें एक गठित हो क्षण भरमें नेस्त व नाबूद कर सकते दम अभाव नजर आता है। इसलिये जीवको हैं। जीव या आत्मा शाश्वतिक और अमर है भूतजन्य या भूतमय कहना भ्रमसे खाली नहीं है। इसमें किसी भी आस्तिक दार्शनिकको लेशमात्र
जीवास्तित्वको आस्तिकताकी कसौटी मान संशय नहीं है और होना भी न चाहिये। सभी लेनेपर आस्तिकता और नास्तिकताके नाम पर दार्शनिकोंने जीव सिद्धि प्रबल प्रमाणोंसे की है। होनेवाले संसारके अनेक संघर्ष सरलतासे दूर अतः इस संसारको सुखमय स्वर्गीय बनानेके किये जा सकते हैं। आपसके वैमनस्य तथा घृणा लिये हमें इसी श्रेयस्करी मान्यताको आस्तिकता
आदि दोषोंका शमन इससे बहुत जल्द हो सकता की सच्ची कसौटी सहर्ष स्वीकार कर लेना है । और भारतवर्ष पारस्परिक प्रेम-सूत्रमें सुसंवद्ध चाहिये ।। हो उन्नतिकी चरम सीमा तक पहुँच सकता है, वीरसेवामन्दिर, सरसावा, तथा गुलामी जैसे असह्य अभिशापको हम सुसं.
होली है!
बच्चे ब्याह, बूढ़े व्याहें कन्याओंकी होली है। बेचें सुता, धर्म-धन खावें, ऐसी नीयत डोली है ! संख्या बढ़ती विधवाओंकी, जिनका राम रखोली है !! भाव-शून्य किरिया कर समझे,पाप कालिमा धो लीहै ! नीति उठी, सत्कर्म उठे,औं' चलती बचन-बसोली है ! ऊँच-नीचके भेद-भावसे लुटिया साम्य डुबो ली है !! दुख-दावानल फैल रहा है, तुमको हँसी-ठठोली हे !! रूढ़ि-भक्ति औ' हठधर्मीसे हुआ धर्म बस डोली है !!
(२) नहीं वीरता, नहीं धीरता, नहीं प्रेमकी बोली है ! सत्य नहीं,समुदार हृदय नहिं,पौरुष-परिणति खो ली है ! नहीं संगठन, नहीं एकता, नहीं गुणीजन-टोली है !! प्रण-दृढ़ताकी बात नहीं, समताकी गति न टटोली है !! हृदयोंमें अज्ञान-द्वेषकी बेल विषैली बोली है ! आर्तनाद कुछ सुन नहिं पड़ता, स्वारथ चक्की झोली है। भाई-भाई लड़ें परस्पर, पत अपनी सब खो ली है !! बल-विक्रम सब भगे,क्नी हा ! देह सबोंकी पोली है !!
उठती नहीं उठाए जाती, यद्यपि बहुती सो ली है ! खबर नहीं कुछ देश-दुनीकी, सचमुच ऐसी भोली है!! बाइस जैनी प्रतिदिन घटते, तो भी आँख न खोली है ! इन हालों तो उन्नति अपनी ऐ जैनो । बस हो ली है!!
'युगबीर'