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वर्ष ३, किरण ५]
. भगवान महावीर और उनका उपदेश
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मार्गका उपदेश दिया, जिसमें वह कुछ कुछ रागद्वेषको खराब होती है-उन्नति करनेके बदले और ज्यादा कम करते हुए अपने विषय कषायोंको भी करते नीचेको गिरती है। इस कारण जितना भी धर्मसाधन रहें और उन्हें रोकते भी रहें। इस तरह कुछ कुछ हो वह अपनी इन्द्रियोंको काबमें करने के वास्ते ही हो । पाबन्दी लगाते लगाते अपने विषय कषायोंको कम अधिक धर्म-साधन नही हो सकता है तो थोड़ा करो, करते जार्वे और रागद्वेषको घटाते जावें । जिन लोगोंने रागद्वेष बिल्कुल नहीं दबाये जा सकते हैं तो शुभ भाव हिम्मत बाँधकर अपनेको विषय कषायोंके फंदेसे छड़ा ही रखो, सबको अपने समान समझ कर सब ही .का लिया है, रागद्वेषको नष्ट करके कर्मोकी जंजीरोंको भला चाहो । दया भाव हृदय में लाकर सब ही के काम तोड़ डाला है और अपना असली ज्ञानानन्द स्वरूप में प्रायो। किसीसे भी द्वेष और ग्लानि न करके सब हासिल कर लिया है ! उनकी कथा कहानियाँ सुनकर, ही को धर्म मार्ग पर लगायो। सांसारिक जायदादकी उनकी प्रतिष्ठा अपने हृदय में बिठाकर खुद भी हौसला तरह धर्म बाप-दादा की मीरासमें नहीं मिलता है और पकड़े और विषय कषायों पर फ़तह पाकर आगे ही न माल-असबाबकी तरह किसीकी मिलकियत ही हो आगे बढ़ते जावें । यह ही पूजा भक्ति है जो धर्मात्माओं सकता है । तब कौन किसीको धर्मके जानने या उसका को करनी वाजिब है। और जो परी तरहसे विषय साधन करने से रोक सकता है ? जो रोकता है वह अपने कषायों को त्याग सकते हैं, राग-द्वेषको दबा सकते हैं को ही पापोंमें फंसाता है। घमण्डका सिर नीचे होता उन्हें गृहस्थदशा त्याग कर मुनि हो जाना चाहिये। है । जो अपनेको ही धर्मका हक़दार समझता है और दुनिया का सब धन्धा छोड़कर अपनी सारी शक्ति अपनी दूसरोंको दुर-दुर-पर-पर करता है वह श्राप ही धर्मसे . अात्माको राग-द्वेषके मैलसे पवित्र और शुद्ध बनाने अनजान है और इस घमण्ड के द्वारा महापाप कमा और अपना ज्ञानानन्दस्वरूप हामिल करने में ही लगा रहा है । धर्मका प्रेमी तो किसीसे भी घृणा नहीं करता देनी चाहिये।
है। घृणा करना तो अपने धर्म श्रद्धानमें विचिकित्सा ___वस्तु-स्वभावके जानने वाले सच्चे धर्मात्मा अपना नामका दूषण लगाना है । सच्चा धर्मात्मा तो सब ही . काम दूसरोंसे नहीं लिया चाहते । वह दीन हीनोंकी जीवों के धर्मात्मा हो जाने की भावना भाता है। नीचसे तरह गिड़गिड़ा कर किसीसे कुछ नहीं माँगते हैं । हाँ, नीच और पापीसे पापीको भी धर्मका स्वरूप जिन्होंने धर्म-साधन करके अपने असली स्वरूपको धर्म में लगाना चाहता है। धर्म तो वह वस्तु है जिसका हासिल कर लिया है, उनकी श्रद्धा और शक्ति अपने श्रद्धान करने से महा हत्यारा चाण्डाल भी देवोंसे पजित हृदय में बिठा कर खुद भी वैसा ही साधन करनेकी चाह हो जाता है और अधर्मी स्वर्गोका देवभी गंदगीका अपने मन में ज़रूर जमाते हैं । धर्मका साधन तो राग- कीड़ा बन कर दुःख सठाता है। इस ही कारण वीर द्वेष को दूर करने और विषय-कषायोंसे छुटकारा पाने के भगवानने तो महानीच गंदे और महा हत्यारे मांस भक्षी वास्ते ही होता है, न कि उल्टा उन्हींको पोषनेके पशुओंको भी अपनी सभामें जगह देकर धर्म उपदेश
'सही कारण वीर भगवानका यह उपदेश था सुनाया। धर्मका यह ही तो एक काम है कि वह पापी
थी हो या मुनि धर्मात्माको तो हरगिज़ भी को धर्मात्मा बनावे, जो उसे ग्रहण करे वह ही उन्नति किसी भी धम-साधन के बदले किसी सांसारिक कार्यकी करने लग जावे, नीचेसे ऊँचे चढ़ जावे और पज्य सिद्धि की इच्छा नहीं करनी चाहिये। अगर कोई ऐसा बन जावे । धर्म तो पापियोंको ही बताना चाहिये, नीचों करता है तो सब ही करे करायेको मेटकर उल्टा पापोंमें से उनकी नीचता छुड़ाकर उनको ऊपर उभारना फँसता है। धर्मसेवन तो अपनी. अात्मिक शुद्धि के वास्ते चाहिये। जो कोई महानीच-पापियोंको धर्मका स्वरूप ही होता है न कि सांसारिक इच्छाओंकी पूर्ति के वास्ते, बता कर उनसे पाप छुड़ाने की कोशिश करने को अच्छा । जिससे अात्मा शुद्ध होनेके स्थान में और भी ज्यादा नहीं समझता है, पापसे घृणा नहीं करता है, कठोर