Book Title: Anekant 1940 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 33
________________ वर्ष ३, किरण ५ ] मूर्त है । इस अर्थ में ईश्वर राष्ट्रकी, समाजकी, देशकी आत्मा है जिसके द्वारा राष्ट्र, समाज या देशका प्रत्येक व्यक्ति स्पंदित, प्रेरित या प्रभावित होता है। इस राष्ट्रपुरुष, समाज-पुरुष, देश - पुरुष या विश्व - पुरुष के जाग्रत या सुप्त होनेपर जुदे जुदे सत्, कलि श्रादि युगका विर्भाव होता है, ऐसा ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है । इस समाज-पुरुष या राष्ट्र-पुरुष की जाग्रति के चिह्न हम वर्तमान भारतीय आन्दोलन में देख रहे हैं । यह पुरुष समष्टिरूप है, इसीलिये कहा है कि सरल योगाभ्यास सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । -- ऋग्वेद-पुरुषसूक्त अर्थात् -- यह हज़ार सिरवाला, हज़ार आँखोंवाला और हज़ार पैरों वाला पुरुष है । जिसप्रकार हम यह कहें कि इस सभा या परिषद् के हज़ार सिर हैं अथवा भारत माता के ३०- कोटि बच्चे, उसी प्रकारका यह कथन है । इस पुरुषके - कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः । उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन् ॥ - ऐतरेय ब्राह्मणः । सोनेपर कलि, जंभाई लेनेपर द्वापर, खड़े होनेपर त्रेता और चलने लगने पर सत्युग होता है । वर्णोंके वर्गीकरण के बाद जिस समाज पुरुष- ब्रह्मवक्त्रं भुजो क्षत्रं कृत्स्नमूरूदरं विशः । पादौ यस्याश्रिताः शूद्राः तस्मै वर्णात्मने नमः ॥ के ब्राह्मण मुखरूप हैं, क्षत्रिय भुजारूप हैं, वैश्य पेटरूप हैं तथा शूद्र पैरोंके आश्रित हैं, उस वर्णात्माको मेरा नमस्कार है । ईश्वरका तीसरा अर्थ आधिदैविक है । जिस प्रकार जैन लोग त्रिलोकको पुरुषाकार मानते हैं उसी प्रकार वेदोपनिषद् और योग के ग्रन्थोंमें भी माना है । इसके ३४० आगे उनकी कल्पना इतनी और आगे बढ़ी है कि इस विराट् पुरुषाकृति में किसी नियंताशक्ति श्रात्माकी आ श्यकता है, जिसकी कल्पना विश्वप्रकृति के रूपमें ही की गई है । यथा— अग्निर्मुर्धा चक्षुषी चंद्रसूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्वृत्ताश्च देवाः । वायुः प्राणो हृदयं विश्वमस्य पद्भ्यां पृथिवीह्येष सर्वलोकान्तरात्मा ॥ — मुण्डकोपनिषद् | सर्वा दिशः ऊर्ध्वमधश्च तिर्यक् प्रकाशयन् भ्राजते यद्वनड्वा एवं सदेवो भगवान्वरेण्यो विश्वस्वभावादधितिष्ठत्येकः ॥ -- श्वेताश्वतरोपनिषद् | अर्थात् - जिसकी मूर्छा श्रमि है, सूर्य-चन्द्र आँखें हैं, दिशायें कान हैं, वचनादि देव हैं, वायु प्राण हैं, विश्व हृदय है, पैरोंमें पृथ्वी है ऐसा सर्वलोकाँतरात्मा है । ऊपर नीचे बाजूकी सारी दिशाओं को प्रकाश करने वाला जो भगवान् वरेण्यदेव है वह विश्वके रूपमें अवस्थित है । इस विश्वको परिचालित करनेवाली वह शक्ति कौनसी है, इस विषय में मतभेद हैं। जडवादी वैज्ञानिक उसे 'विद्युत' मानते हैं तथा कोई उसे 'सूर्य' मानते है, . तथा अध्यात्मवादी उसे 'सत्य' अथवा 'अहिंसा' मानते हैं; क्योंकि इन्हीं नैतिक नियमोंसे सब बंधे मालूम होते हैं । महात्मा गाँधी 'सत्य' को ही परमेश्वर मानते हैं । कुछ भी हो, जैनधर्मसे इनका कोई विरोध नहीं आता; क्योंकि इनमें से कोई भी इस ईश्वरको मनुष्यके समान चेतन तथा रागद्वेषपूर्ण नहीं मानता। जैनधर्म तो बाइबल, कुरान और भारतीय पाशुपत और वैष्णवमत रागद्वेषी व्यक्तिगत ईश्वरका विरोधी है । जैनधर्मानुसार मुक्त आत्माएँ सब एकसी ही हैं । उनमें जो भेद था वह काल और कर्मकृत् था, और

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