________________
308
जाता है । यह आकर्षण प्रत्येक जडवस्तु में है । काँच के किन्हीं भी दो समतल टुकड़ों को एक दूसरेपर रखनेसे वे चिपकसे जाते हैं और जोर देनेपर छूटते हैं । इसी प्रकार लोहे के टुकड़ोंमें, लोहे और लोहकांत (चुंबक) में, लोहांत के विभिन्न ध्रुव ( Poles ) में तथा एक ही प्रकारकी दूसरेसे विभिन्न गुण वाली सृष्टियों – नर और मादा में - यह आकर्षण बहुत ही प्रबल है ।
मनुष्य आदि उच्च प्राणियों में उक्त दोनों प्रकारके आकर्षणों का एक विचित्र संमिश्रण है । अनेक बार देखा जाता है कि श्राध्यात्मिक प्रेम अनेक बार इस शारीरिक जड मोहमें परिणत होता है और शारीरिक प्रेम अनेक बार आध्यात्मिक रूप ले लेता है । स्त्रीपुरुषका श्राकर्षण इसी प्रकारका है ।
पदार्थों में जो आकर्षण है वह प्रेमका असली रूप नहीं है वह उसका बहुत ही विकृत और तामसी रूप है । आध्यात्मिक प्रेम ही सत्य है और सब प्रेम 1 झूठ हैं, माया हैं और मोह हैं । आध्यात्मिक प्रेमग्राह्य है और जड प्रेम त्याज्य है । आध्यात्मिक प्रेम आत्मिक
1
उन्नतिका कारण है और जड प्रेम श्रवनतिका ।
आत्मा के विकास के लिये प्रेमकी बहुत बड़ी श्रावश्यकता है | वह विश्वके प्रत्येक प्राणी के प्रति प्रेम ही था जिसने भगवान महावीर और बुद्धको महान् बनाया । वह सीता के प्रति प्रेम ही था जिसने रामचन्द्रजीको महान् बनाया और जिसे कवि लोग गाते गाते नहीं थकते । शारीरिक प्रेम भी वियोग होने के बाद श्राध्यात्मिक प्रेम में परिणत हो जाता है । प्रेमका सौन्दर्य वियोग में ही है, संयोग में तो उसका शतांश भी नहीं है । मेघदूत इसी लिये सर्वोत्तम काव्य है— उसमें हमें उस चिरंतन वियोगका एक आभास मिलता है और आत्मा उसे
तस पिपासा से पीती जाती है।
e
[फाल्गुन वी - रनिर्वाण सं० २४६६
जिन लोगों में उस सनातन वियोगकी चिरंतन अग्नि जल रही है वे ही सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, दार्शनिक हैं और योगी हैं। जिनमें वह अग्नि विभ्रांतिसे दब गई है - जिनकी विषयलालसनोंने उसे दबा दिया है— जिनके कर्म उसे जानने नहीं देते उनका कर्तव्य है कि वे भ्रांति दूर करें – विषयोंसे बचें। यह वह अग्नि है जिसके तीव्र होनेपर सब कर्ममल काफूरके समान उड़ जाते हैं। कहा भी है- "प्रेमाग्निना दूह्यते सर्वपापं ।”
.
प्रेमके विकास के लिये योगद्वारा प्रदर्शित जुदी- जुदी प्रकृति के लोगोंके लिये साधककी योग्यतानुसार जुदे-जुदे मार्ग हैं।
सात्विक प्रकृति के साधकोंके लिये ईश्वर भक्ति या ईश्वर-प्रेम उत्तम उपाय है, ईश्वरप्रेम क्या और किस तरह किया जाना चाहिए, यह बताने के पहले यह जानना आवश्यक है कि दरअसल में ईश्वर है क्या वस्तु ?
ईश्वर शब्द प्राचीनसे प्राचीन वेदादि ग्रंथों में तीन अर्थों में आया है, इनको समझ लेनके बाद इनका समन्वय अनेकान्त दृष्टिसे किया जा सकता है ।
ईश्वर या ब्रह्मका प्रथम अर्थ आध्यात्मिक है । इस अर्थ में आत्मा ही शाश्वत और अविनाशी ब्रह्म है ।
यथा
पुरातनोऽहं पुरुषोऽहमीशो हिरण्मयोऽहं शिवरूपमस्मि । वेदैरनेकैरहमेव वेद्यो विश्वविद्वेदविदेव चाहं ।
न पुण्यपापे मम नास्ति नाशो न जन्मदेहेन्द्रिय बुद्धिरस्ति । समस्तसाचि सदसद्विद्दीनं प्रयाति शुद्धं परमात्मरूपम् । श्रनेन ज्ञानमाप्नोति संसारार्णवनाशनं । तस्मादेव विदित्वैनं कैवल्यं पदमश्नुते ॥
— अथर्ववेदीया कैवल्योपनिषद् ईश्वरका दूसरा अर्थ प्राधिभौतिक या सामाजिक
अनेकान्त